Category: दिसंबर-२०२१

राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का योगदान

राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का योगदान

राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का योगदान (Contribution of Jainism in the development of national unity)जैन धर्म के कुछ मौलिक सिद्धान्त हैं, जिनके कारण इस धर्म का एक स्वतन्त्र अस्तित्व है, इनमें अनेकान्त, स्याद्वाद, अहिंसा तथा अपरिग्रह प्रमुख हैं, ये समस्त सिद्धान्त किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय एकता के आधार स्तम्भ हैं।सर्वप्रथम अनेकान्त के सिद्धान्त पर दृष्टिपात करें तो वर्तमान में दोषारोपण का जो दौर प्रचलित है उसका समाधान अनेकान्त से ही सम्भव है। अनेकान्त का अर्थ है ‘‘एक ही वस्तु में कई दृष्टियों का अस्तित्व होना’’ यदि इसके गम्भीर भाव को समझें तो इसमें विरोधी धर्मों का भी समभाव एक ही समय में एक ही वस्तु में स्वीकारा गया है। यद्यपि प्रथम दृष्ट्या ये विरोधाभास प्रतीत होता है किन्तु यह सत्य नहीं है। उदाहरण स्वरूप तेलंगाना को पृथक् राज्य बनाने की माँग आन्ध्रप्रदेश में हो रही थी, इस मुद्दे के अन्तर्गत पक्ष-विपक्ष का उद्देश्य है वह भिन्न-भिन्न है। एक पक्ष स्वतंत्र राज्य की स्थापना करके पृथक् प्रशासन प्रणाली विकसित करना चाहता था, जबकि केन्द्र सरकार इस माँग को अनुपयोगी समझते हुए अस्वीकार करती रही थी, तटस्थ दृष्टि से विचार करें तो ये दो भिन्न दृष्टियाँ हैं जो अपनी-अपनी अपेक्षा से सही हैं।तेलंगाना पृथक् राज्य की माँग के विषय में आन्ध्रप्रदेश में निवास करने वाला एक वर्ग इसे पृथक् बनाना चाहता है जबकि एक अन्य वर्ग इसके विरोध में था, अत: एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्मों का होना असम्भव नहीं, अपितु सम्भव है और यही अनेकान्त है, इस विषय पर हो रही हिंसा, इस समस्या का उपाय नहीं है।अनेकान्त का सिद्धान्त जहाँ अपनी स्थापना करता है वहीं यह प्रत्येक समस्या का स्वयं में समाधान है क्योंकि जो इसके सिद्धान्त को स्वीकारता है वह वस्तु के अनेकान्तमयी स्वभाव को मानता है। प्रसिद्ध भी है ‘स्वभावो तर्क गोचर:’ अर्थात् स्वभाव तर्क के दायरे से परे है और इस सिद्धान्त को मानने वाला समता परिणाम युक्त हो जाता है। उपयुक्त गद्य में कहा गया है अनेकान्त एक सिद्धान्त होने के साथ-साथ समस्या का समाधान है अत: जो इसके हार्द से अवगत हो जाता है, उसकी दृष्टि स्व तथा पर दोनों के लिए सम अर्थात् समान हो जाती है। तेलंगाना पृथक् राज्य का विषय भी इसी अनेकान्त के सिद्धान्त को समझने का दुष्परिणाम है, यद्यपि पृथक् राज्य बनाने की माँगों के जो कारण हो सकते हैं वे निम्नलिखित हैं। – १. जिस क्षेत्र के निवासी इसकी माँग कर रहे हैं सम्भवतया उन्हें विकास के वे लाभ प्राप्त नहीं हो रहे जो की सुलभ हैं। २. तैलंगाना क्षेत्र से सम्बन्धित श्थ्A स्वतन्त्र राज्य के निर्माण के माध्यम से उच्च पदों पर पहुँचना चाहते हैं अथवा उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिस प्रकार वे समाज की सेवा करना चाहते हैं, वह आन्ध्रप्रदेश से पृथक् होने पर ही सम्भव है। ३. एक अन्य सम्भावना यह हो सकती है कि चुनावों को ध्यान में रखते हुए जनता को भावनात्मक रीति से लक्ष्य विमुख करने की कतिपय श्थ्A की नीति हाया समाज को सही दिशा प्रदान करने की रणनीति हो, उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त भी कई अन्य कारण हो सकते हैं, इन समस्त विषयों में कहीं भी समदृष्टि का आभास नहीं हो रहा है बल्कि आपसी वैमनस्य की भावना इसे सामग्री प्रदान करती है। पृथक् राज्य बनाने के उपरान्त भी समस्याओं का अन्त कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि इसके बनने पर क्षेत्र का विभाग होगा जिसके अन्तर्गत कुछ नगर पुराने राज्य में रहना चाहेंगे तथा कुछ नवीन राज्य से जुड़ना महत्वपूर्ण समझेंगे, ऐसा नहीं होने पर तद् नगरों से सौतेला व्यवहार होगा और ऐसी परिस्थिति बनने पर पुन: दबे रूप में आक्रोश की ज्वाला प्रज्वलित रहेगी, जिससे अनवस्था दोष की स्थिति बनती है और ऐसे में कितनी बार राज्य का विभाजन होगा यह चिन्ता का विषय है, इतना तो निश्चित है कि इस प्रकार का निर्णय लेने पर वैधानिक दृष्टि से आगे के लिए मार्ग भी खुलता है जो कि समस्या का समाधान नहीं है। पूर्व कथित समस्या का यही समाधान है कि जिन कारणों से पृथक् राज्यों की माँग हो रही है उन माँगों पर विचार करके उनकी यथा सम्भव शीघ्रातिशीघ्र पूर्ति की जाये।जैनधर्म के उपयुक्त प्रमुख सिद्धान्तों में द्वितीय सिद्धान्त स्याद्वाद है। स्याद्वाद का अर्थ किसी अपेक्षा से कथन करना है, यहाँ अपेक्षा का अर्थ तात्पर्य, आशय, दृष्टिकोण कथन करने की पद्धति विशेष इत्यादि ग्रहण करना चाहिए। प्राय: दो वक्ताओं के मध्य में इस सिद्धान्त की समझ न होने के कारण विसंवाद हो जाता है, ऐसी परिस्थिति न केवल दो व्यक्तियों के मध्य होती है अपितु समाज के दो वर्गों में, दो राज्यों में तथा दो देशों या इससे अधिक के मध्य में सम्भव है और ऐसा होने के कारण ही भ्रम तथा अविश्वास की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, इस भ्रम या अविश्वास का प्रमुख कारण स्ग्ेम्दस्स्ल्हग्म्aूग्दह अहं, विकृत राजनीति, व्यक्तिगत स्वार्थ इत्यादी होते हैं। असंवाद की स्थिति प्राय: दो पड़ोसी देशों में बन जाती है क्योंकि जहाँ अन्य के प्रति अविश्वास या शंका बन जाती है वहीं असंवाद का बीज अंकुरित हो जाता है। भारत की ही स्थिति देखें तो कावेरी नदी के जल के बँटवारे को लेकर दो राज्यों में संघर्ष की स्थिति बनी हुई है और विसंवाद के कारण यह मामला उच्चतम न्यायालय में पहुँच गया है, इस अन्तर्द्वन्द्व के कारण ही जो विषय परस्पर सुलझाया जा सकता था वह न्यायालय के िवचाराधीन होने से रंज का कारण बन गया, यद्यपि इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय अन्तिम होता है तथा दोनों पक्षों को इसे स्वीकारना होगा, तथापि इसे स्वीकार करके भी परस्पर में एकत्व की भावना विकसित नहीं हो सकती है, जहाँ देश की सर्वोच्च वैधानिक संस्था दो पक्षों को एक बिन्दु पर सम्मिलित कर सकती है किन्तु उनमें आत्मीयता की भावना नहीं उत्पन्न करा सकती, वहीं स्याद्वाद का सिद्धान्त को जानने एवं मानने वाले के बाह्य मेल के साथ-साथ अंतरंग सौहार्द को भी जीवीत रखता है।स्वतंत्रता आन्दोलन में देश की स्वतंत्रता के लिए दो दल उभरकर सामने आये, जिनमें से एक गरम दल एवं दूसरा नरम दल था। यद्यपि दोनों दलों का उद्देश्य देश को स्वतंत्र कराना था तथापि एक-दूसरे की नीति को उचित न मानने के कारण दोनों दल पृथक् थे। गरम दल क्रांति के माध्यम से देश को स्वतंत्र कराना चाहता था जबकि नरम दल शान्ति, सौहार्द की रणनीति से अपना अधिकार प्राप्त करना चाहता था। स्याद्वाद की दृष्टि से चिन्तन करें तो दोनों ही पक्ष किसी एक की अपेक्षा से उचित विचार रख रहे हैं। जैन धर्म का तीसरा प्रभावशाली सिद्धान्त अहिंसा है। मन से, वचन से या शारीरिक क्रिया से किसी के भी द्वारा स्वयं एवं अन्य का अहित न करना अहिंसा है। शांति, सौहार्द, मध्यस्थता इत्यादी इसके सहकारी कारण हैं। अहिंसा की भावना के कारण ही भारत की अखण्डता आज भी अस्तित्व में है जबकि भारत की तुलना में शक्तिशाली या समकक्ष देशों का वातावरण इतना सौहार्दपूर्ण नहीं है। उदाहरण स्वरूप अमेरिका के सम्बन्ध अन्य शक्तिशाली देशों से कटु हैं। भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान भी प्रतिदिन प्रतिशोध, आतंक की ज्वाला में जल रहा है, यही समस्या बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल आदि देशों में भी है जो कि अहिंसा के सिद्धान्त को समझ न पाने का दुष्परिणाम है, यद्यपि कोई भी ऐसा देश नहीं है जो इन समस्याओं से त्रस्त न हो, भारत भी इनमें से एक है तथापि अन्य की अपेक्षा से भारत की स्थिति ज्यादा सुदृढ़ है। पड़ोसी देशों द्वारा विविध रीतियों से त्रस्त किये जाने पर भी भारत अहिंसा के मार्ग पर अग्रसर है, इसी अहिंसा के सिद्धान्त के बल पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराया था, इस सिद्धान्त में गाँधीजी का विश्वास तथा गाँधीजी में देश का विश्वास था अत: प्रकारान्तर से राष्ट्रीय स्वतंत्रता या विकास में अहिंसा का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, इतना निश्चित है कि कई लोग इस सिद्धान्त से अपरिचित रहे होंगे किन्तु परोक्ष रूप में अहिंसा के अनुयायी रहे थे, अन्यथा गाँधीजी का स्वप्न साकार नहीं हो सकता था, इसी प्रसंग में विश्व बंधुत्व की सोच ने भी राष्ट्रीय एकता के विकास में कार्य किया, क्योंकि जैन धर्म में एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्य तक के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं माना गया है, इसी कारण जैन धर्म में मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी को भी समान माना है, यही विश्व बंधुत्व की भावना अपरिग्रह के सूत्र को भी स्वयं में समेटे हुए है, इसका सटीक उदाहरण भामाशाह का दृष्टान्त है, जिसमें भामाशाह महाराणा प्रताप के लिए स्वेच्छा से अपना सर्वस्व तिरोहार कर देते हैं।उपर्युक्त उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि राष्ट्रीय एकता के विकास में जैन धर्म का महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए चाहता है कि दिला दो ‘हिंदी’ को राष्ट्रभाषा का खिताब हमारे देश भारत की एक राष्ट्रभाषा ‘हिंदी’ को संवैधानिक द़र्जा प्राप्त हो। जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक

जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक

जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक

जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक  अरहंता असरीरा आईरिया तह उवज्झाया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेष्ठी।। जैनागम में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं मुनि रूप पांच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं, इनके आद्यअक्षरों को परस्पर मिलाने पर ‘ओम’/‘ओं’ बन जाता है, यथा, इनमें पहले परमेष्ठी ‘अरिहंत’ या ‘अरहंत’‘अशरीरी’ कहलाते हैं, अत: ‘अशरीरी’ के प्रथम अक्षर ‘अ’ को ‘अरिहन्त’ के ‘अ’ से मिलाने पर अ±अ·‘आ’ ही बनताहै, उसमें चतुर्थ परमेष्ठी ‘उपाध्याय’ का पहले अक्षर ‘उ’ को मिलाने पर आ±उ मिलकर ‘ओ’ हो जाता है, अंतिमपाँचवें परमेष्ठी ‘साधु’ को जैनागम में ‘मुनि’ भी कहा जाता है, अत: मुनि के प्रारम्भिक अक्षर ‘म’ को ‘ओ’ सेमिलाने पर ओ±म्· ‘ओम्’ या ‘ओं’ बन जाता है, इसे ही प्राचीन लिपि में न के रूप में बनाया जाता रहा है। ‘जैन’शब्द में ‘ज’, ‘न’ है इसमें ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ सम्बन्धी दो मात्राएँ बनी होती है, इनके माध्यम से जैन परम्परागत‘ओ’ का चिन्ह बनाया जा सकता है, इस ‘ओम्’ के प्रतीक चिन्ह को बनाने की सरल विधि चार चरणों में निम्नप्रकार हो सकती है। १. ‘जैन’ शब्द के पहले अक्षर ‘ज’ को अँग्रेजी में जे-लिखा जाता है, अत: सबसे पहले ‘जे’-को बनाए- २. तदुपरान्त ‘जैन’ शब्द में द्वितीय अक्षर ‘न’ है, अत: उसे ‘जे’-के भीतर/साथ में हिन्दी का ‘न’ बनाएँ-न३.चूंकि ‘जैन’ शब्द ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ सम्बन्धी दो मात्राएं होती हैं, अत: प्रथम मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपरपहले चन्द्रबिन्दु बनाएं-४. तदुपरान्त द्वितीय मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर चन्द्र बिन्दु के दाएँ बाजू में ‘रेफ’ जैसी आकृति बनाएँ- नँइस प्रकार जैन परम्परा सम्मत परमेष्ठी प्रतीक ‘ओम्’/‘ओं’ की आकृति निर्मित हो जाती है। जैन परम्परा में परमेष्ठी का प्रतीक 

‘हम’ की शक्ति पहचानें, जिनशासन को महकाएँ

‘हम’ की शक्ति पहचानें, जिनशासन को महकाएँ

‘हम’ की शक्ति पहचानें, जिनशासन को महकाएँ आध्यात्मिक जगत में ‘मैं’ का विराट स्वरूप है ‘हम’ ‘हम’ अर्थात अपनापन, ‘हम’ अर्थात एकता। ‘हम’ अर्थात ‘वासुधैव कुटुंबकम’। ‘हम’ अर्थात समस्त आत्माएं। जहाँ ‘हम’ हैं, वहाँ ‘मैं’ का समर्पण हो जाता है। जहां ‘हम’ है वहां संगठन है। जहां ‘हम’ हैं वहाँ संघ है। ‘संघे शक्ति कलीयुगे’। नन्दी सूत्र में संघ को नगर, चक्र, रथ, सूर्य, चंद्र, पद्म सरोवर, समुद्र, सुमेरू आदि विशेषणों से अलंकृत किया है। संघ की महिमा अपार है। आगमों में ‘णमो तित्थस्स’ के द्वारा साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इन चार तीर्थ रूपी संघ की महिमा को उजागर किया है। जिनशासन में ‘हम’ भावना का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि मोक्ष मार्ग का साधक अपने स्व-कल्याण के साथ ही सभी के कल्याण की भावना रखे, इस हेतु स्वयं प्रभु महावीर ने अपनी अंतिम देशना में उत्तराध्ययन सूत्र के ग्यारहवें अध्य्यन ‘अहुस्सूयपुज्जं’ में साधु के आचार का वर्णन करते हुए इसकी अंतिम गाथा में कहा है- ‘तम्हा सुय महिट्ठिज्जा, उत्तमट्ठ गवेसये। जेण अप्पाणं परं चेव, सिद्धिं सम्पाउणिज्जासि।।’ उपरोक्त गाथा द्वारा ‘हम’ भावना का महान आदर्श समग्र विश्व को अनुकरण हेतु उद्घोषित किया गया है। ‘हम’ की शक्ति सर्वोपरि – ‘व्यक्ति अकेला निर्बल होता है, संघ सबल होता मानें’ संघ समर्पणा गीत की सुंदर पंक्तियाँ हमारा मार्ग प्रशस्त कर रही है, जिस प्रकार एक लकड़ी आसानी से तोड़ी जा सकती है लेकिन वही जब समूह रूप में हो तो उसे तोड़ना दुस्सम्भव है, जिस प्रकार साधारण समझे जाने वाले सूत (धागे) जब साथ मिल जाते हैं तो वह मजबूत रस्सी का रूप ले लेते हैं और बलशाली हस्ती को भी बांधकर रख सकते हैं, इसी प्रकार जब हम संगठित हो जाते हैं तो दुस्सम्भव कार्य को भी संभव बना सकते हैं। जंगल में बलवान पशु भी समूह में रहे हुए प्राणियों पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं करता, वह उसी को अपना शिकार बनाता है जो समूह से अलग हो जाते हैं। निर्बल से निर्बल भी संगठित होने पर सशक्त एवं सुरक्षित हो जाते हैं और कई बार ऐसा भी देखने में आता है की निर्बलों की संगठित शक्ति के सामने अकेला बलवान भी हार जाता है। सैकड़ों मक्खियां मिलकर बलशाली शेर को भी परेशान कर देती है, एकता का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत है ‘जाल में पँâसे कबूतरों और बहेलिये की कहानी’ बहेलिये द्वारा बिछाये गए जाल में पँâसे कबूतर जब सिर्फ स्वयं की मुक्ति के लिए अलग-अलग प्रयास कर रहे थे तो जाल में और अधिक उलझते जा रहे थे लेकिन जब अपने मुखिया की बात मानकर उन्होंने एकतापूर्वक एक साथ अपने पंख फड़फड़ाये तो पूरा जाल लेकर आसमान में उड़ गए और बहेलिये के चंगुल से बच गए, यह है एकता की शक्ति।लोकतंत्र में भी उन्हीं की बात मानी जाती है जो संगठित होते हैं, आज विश्व में वो ही शक्तिशाली एवं सुरक्षित हैं जो एकजुट हैं, संगठित हैं। जहाँ ‘मैं’ में सिर्फ स्वार्थ भाव होता है वहीं ‘हम’ में परमार्थ का विराटतम भाव समाहित है। ‘हम’ भावना आते ही सारे द्वेष के बंधन खुल जाते हैं। सारे वैर-विरोध के कारण नष्ट हो जाते हैं। ‘हम’ भाव वाला किसी को कष्ट नहीं दे सकता, उसके मन में दूसरों के दु:ख को अपने दु:ख जैसा समझने की भावना होती है, वह अपने ऊपर हर प्राणी का उपकार मानता है इसलिए वह जैसा अपने लिए शाश्वत सुख चाहता है, उसका चिंतन होता है कि विश्व के सभी प्राणी अपने है, कोई पराया नहीं, कोई शत्रु नहीं, उसके मन में ‘सत्वेषु मैत्रीम्’ का अनवरत प्रवाह गतिमान रहता है, यही विश्व शांति का मूल मंत्र है। हर वस्तु या विषय को जानने व समझने के लिए भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण होते हैं जिसे ‘अनेकांतवाद’ कहा जाता है। ‘मैं’ और ‘हम’ को भी अनेकांत दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। आत्मचिंतन के दृष्टिकोण से ‘मैं’ का चिंतन करना अर्थात ‘स्व’ का चिंतन, अपने आत्मा का चिंतन, अपने वास्तविक स्वरूप का चिंतन और अपने आत्म कल्याण का चिंतन कर उस हेतु पुरूषार्थ करना होता है। स्व की अनुभूति के बिना सब कुछ व्यर्थ है, जिसने स्व को नहीं जाना उसने कुछ नहीं जाना। ‘स्वयं’ को जानने वाला ही स्वयं के अनंत गुणमय शुद्ध स्वरूप की सिद्धि कर अनंत आनंद को प्राप्त कर सकता है। ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, वीर्य एवं उपयोग अर्थात आत्मा के शुद्ध गुण हैं, जहां ‘मैं’ अर्थात् आत्मा के शुद्ध गुणों की अनुभूति हो वहाँ ‘मैं’ का चिंतन पूर्ण रूप से सार्थक है। ‘मैं’ अर्थात् अपने स्वरूप का अनुभव करते हुए उसकी वर्तमान अवस्था में परतत्त्व के संयोग से उत्पन्न दोषों का समीक्षण करके उन दोषों को दूर कर पूर्ण शुद्ध गुणों से युक्त वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति हेतु पुरूषार्थ, जिसे आत्म साधना कहा जाता है, वह सर्वश्रेष्ठ है, यही स्वचेतना की अनुभूति है, यही ज्ञेय है और यही उपादेय है, यही आत्म धर्म है, यही समस्त धर्म का सार है। लेकिन जब ‘मैं’ का चिंतन विकारयुक्त हो, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों से कलुषित हो, राग-द्वेष की गंदगी से दूषित हो, तो अनुचित है, वह हेय है, त्यागने योग्य है, दूसरों को हानि पहुंचाकर स्वयं की भौतिक वासनाओं की पूर्ति करना लोक व्यवहार में भी सबसे बड़ा पाप है, अपने भौतिक स्वार्थ के लिए दूसरों का अधिकार छीन लेना निंदनीय है, कोई भी व्यक्ति दूसरों को तभी हानि पहुंचाता है जब उसके मन में सांसारिक विकारी ‘मैं’ के विचारों का अधिकार हो जाता है, वह क्रोध के वश, अहंकार के वश, माया के वश, लोभ के वश, प्रतिष्ठा की कामना के वश या प्रतिशोध के वश में आकर दूसरों को कष्ट देने में भी पीछे नहीं रहता और जगत के जीवों को आघात पहुंचाते हुए अपनी आत्मा के सद्गुणों का घात करके स्वयं भी अशांति एवं घोर दु:खों का भागी बनता है।जैन दर्शन के अनुसार हमारी आत्मा शाश्वत है, अनादि काल से इसने अनंत जन्म-मरण किए हैं और इन अनंत भवों में हमारी आत्मा ने लोक के सभी जीवों के साथ हर तरह के संबंध किये हैं, हर जन्म में हमारे ऊपर अनगिनत जीवों का असीम उपकार रहा है और अनंत भवों के हमारे जन्म-मरण हिसाब से हमारे ऊपर हर जीव का असीम उपकार रहा हुआ है, हम अगर सामान्य दृष्टि से भी सोचें तो हम हमारा छोटा सा जीवन भी अनगिनत जीवों के उपकार एवं सहयोग से ही जी पा रहे हैं, अगर संसार के दूसरे जीव हमारे शत्रु बन जाएं तो कुछ पल भी जी नहीं पाएंगे, इस प्रकार संसार के हर जीव का हमारे ऊपर ऋण है और उन सभी के हित की भावना और हित का कार्य करके ही हम उस ऋण से मुक्त हो सकते हैं, इसीलिए जैन धर्म सम्यक् रूप से समझने वाला व्यक्ति जीव हिंसा से दूर रहना अपना सर्वोपरि कर्तव्य एवं सर्वोपरि धर्म समझता है, आइए ‘हम’ भावना के व्यापक स्वरूप को जीवन में अपनाकर समग्र विश्व में शांति के निर्माण में सहभागी बनें। ‘हम’ की भावना से प्रगति का जीता-जागता उदाहरण है जापान- अपने चारों तरफ पैâले हुए समुद्र की भयानक आपदाओं को जापान प्रति वर्ष झेलता है और जिसने पिछली एक शताब्दी में अनेक भयानक भूकंप एवं सुनामियों की विनाशलीला भी झेली है लेकिन वहाँ के निवासियों ने आपसी एकता एवं अपनत्व की भावना के बलबूते जापान को दुनिया के अति विकसित राष्ट्र की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। जापान में किसी भी व्यक्ति को हानि होने पर जापानी लोग उसे अपना मानकर उसकी सहायता करके सक्षम बना देते हैं, इसीलिए आज जापान किसी भी बात पर दूसरों पर निर्भर नहीं है। विश्व के इतिहास पर करें दृष्टिपात – आज हम भारत सहित विश्व के देशों का इतिहास देखें तो पता चलेगा कि जब-जब ‘मैं’ और ‘मेरा’ का संकुचित भाव हावी हुआ तब-तब विनाश दृष्टिगोचर हुआ। रामायण, महाभारत आदि में वर्णित महाविनाश में स्वार्थपूर्ण ‘मैं’ ही कारण रहा। स्वार्थपूर्ण ‘मैं’ की क्षुद्र भावना में बिखर कर भारत आदि अनेक देश मुगलों और अंग्रेजों के गुलाम बने और सदियों तक घोर कष्ट सहा, आज जो भी विकसित देश नजर आ रहे हैं वे सभी ‘हम’ भावना की शक्ति से ही सशक्त और समृद्ध बने हैं। पूर्ववर्ती मध्यकाल में देश के विभिन्न राज्यों के नरेश आपस में छोटे-छोटे स्वार्थ या प्रतिशोध की भावना से एक दूसरे राज्य पर आक्रमण किया करते थे, आपस में एकता नहीं होने का लाभ विदेशी लुटेरों एवं आक्रमणकारियों ने उठाया जिसके कारण सभी को महाविनाश झेलने पड़े और देश को सदियों तक पराधीन रहना पड़ा, लेकिन जैसे ही ‘हम’ की भावना जगी और संगठित हुए तो गुलामी की सारी जंजीरें टूट गईं। बीती हुई करीब १० सदियों की तुलना में आज भारत देश काफी सुरक्षित और सशक्त है तो उसका कारण है देश की ५६५ रियासतों का एकजुट होकर स्वतंत्र भारत में विलय। अनेक भाषाओं एवं विभिन्न भौगोलिक स्थितियों के होते हुए भी हम एकजुट भारत के होने से ही प्रगति कर रहे हैं और करते रहेंगे, आज देश को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उसका बहुत बड़ा कारण राजनेताओं के स्वार्थरूपी ‘मैं’ की वजह से १९४७ में देश का विभाजित होना है, हमसे विभाजित हुए राष्ट्र हमारे देश को निरंतर बहुत बड़ी हानि पहुंचा रहे है। विकास में लगने वाली हमारी क्षमता का बहुत बड़ा हिस्सा उनसे अपनी रक्षा में लगाना पड़ रहा है जिसके कारण यथेष्ट विकास नहीं हो पा रहा है, हमसे विलग हुए राष्ट्र यदि हमसे शत्रुता छोड़ कर परस्पर एकता और सहयोग का वातावरण निर्माण करें तो हमारी एवं उनकी सभी की विशेष प्रगति हो सकती है, सुखी एवं समृद्ध बन सकते हैं।आपस में एकता नहीं होने से जिनशासन को पहुंची बड़ी क्षति – शासनेश प्रभु महावीर के निर्वाण के कुछ वर्षों पश्चात जैन धर्मानुयायी विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित हो जाने के कारण जैन समाज को भारी क्षति उठानी पड़ी। जैन धर्म का मौलिक इतिहास देखने पर पता लगेगा कि हम में आपस में एकता के अभाव के कारण, हमारे सम्पूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी श्रेष्ठतम सिद्धांतों को नहीं समझ पाने से अन्य धर्मावलम्बियों ने द्वेषवश जैन समाज पर अनेक प्रकार के घोर अत्याचार एवं सामूहिक नरसंहार तक किये, जिसके कारण बहुसंख्यक जैन समाज आज अल्पसंख्यक स्थिति में आ गया है। अपने स्वार्थ एवं अहंकार में अंधा होने पर व्यक्ति घनिष्ठ प्रेम, आत्मीय सम्बन्ध, सिद्धांत, नैतिकता आदि सब कुछ भुला देता है और अपने परम उपकारी तक का भी अनिष्ट कर डालता है, हमें इतिहास से सबक लेकर उन कारणों से दूर रहकर उज्जवल भविष्य के लिए कार्य करना है। आपसी एकता से महक सकता है जिनशासन: जिन शासन को महकाने के लिए जगायें ‘हम’ का भाव-जैन धर्म इस विश्व का सबसे महान धर्म है, एक ऐसा धर्म जो विश्व के हर जीव को अपना मानता है, अप्ाने समान मानता है जो हर प्राणी के दु:ख को अपने दु:ख के जैसा ही समझता है, जो हर जीव की रक्षा में धर्म मानता है। ऐसा धर्म जिसको अपनाने से सारे जीवों में वैर-विरोध समाप्त हो सकता है, एक ऐसा धर्म है जिसका संदेश है किसी को मत सताओ। ऐसा महान धर्म जिसका पालन निर्धन से निर्धन व्यक्ति से लेकर संपन्न से सम्पन्नतम व्यक्ति भी कर सकता है। निर्बल से लेकर सफलतम व्यक्ति भी कर सकता है, ऐसा धर्म जो एक छोटे से त्याग से भी व्यक्ति को शाश्वत सुख के मार्ग पर आगे बढ़ा देता है, जिसका पालन दुनिया का ही संज्ञाशील प्राणी कर सकता है, जो सकल विश्व का धर्म है, ऐसा महान विश्व शांतिकारी जैन धर्म अल्पसंख्यक स्थिति में पहुंच गया है। ६४ इंद्र एवं असंख्य देव-देवी, जिन तीर्थंकर भगवान के उपदेश सुनने के लिए लालायित रहते हैं, ऐसे महान जैन धर्म का अनुसरण करने वाले व्यक्ति सिर्फ कुछ प्रतिशत ही हैं, यह अत्यंत ही चिंतनीय विषय है। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद, समता, सदाचार, ‘जियो और जीने दो’, ‘परस्परोपग्रहो’ आदि अमर सिद्धांतों के होते हुए भी विश्व पटल में शामिल होते दिखाई दे रहे हैं। हिंसा, द्वेष, अशांति, स्वार्थ, कुव्यसन, दुराचार, भ्रष्टाचार आदि का प्रभाव बढ़ रहा है, क्या इसमें हमारा बिखराव भी बहुत बड़ा कारण नहीं रहा है? आपस में एक नहीं होने की वजह से हम जीवदया, अहिंसा, करूणा, समता, सदाचार, नैतिकता के महान सिद्धांतों को जन-जन तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं, इसके कारण विश्व में पैâले हुए जीव हिंसा, मांसाहार, दुराचार, दुर्व्यसन आदि को मिटाने में हम सक्षम नहीं बन पा रहे हैं, जिन शासन में एक से बढ़कर एक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका हुए हैं और वर्तमान में भी चतुर्विध संघ में अनेक रत्न हैं, अगर यह सभी ‘संगठन’ की शक्ति ‘हम’ की शक्ति को समझ लें तो प्रभु महावीर के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार कर सारे विश्व में प्रेम, शांति और सहकार का वातावरण बनाया जा सकता है, पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी आपस में जुड़ जाते हैं, तो ‘खामेमि सव्वजीवे’ एवं क्षमा वीरस्य भूषणम् का सारे जग को संदेश देने वाले ‘जैन’ क्या संगठन के सूत्र में नहीं बंध सकते? संकल्प करें कि हमें एक महान लक्ष्य को प्राप्त करना है। ‘सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं’ का भाव सारी दुनिया में उद्घोष करने वाले हम छोटे से अहंकार एवं स्वार्थ के पीछे कभी नहीं पड़ेंगे। चंडकौशिक विषधर, क्रुर देव संगम, घोर हत्यारे अर्जुन माली एवं रौहिणेय चोर को भी क्षमा कर उनको सत्पथ पर लाकर उद्धार करने वाले करूणा निधान प्रभु महावीर के हम उपासक हैं, हमारे आदर्श हैं चींटियों की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर करने वाले धर्मरूचि अणगार और कबूतर की रक्षा के लिए शिकारी को अपने शरीर का मांस काट कर दे देने वाले राजा मेघरथ, हमारा चिंतन हो कि ऐसे महान जैन धर्म के अनुयायी जो आत्म सिद्धि के लिए संसार के सारे मनमोहक सुखों का त्याग करने में भी पीछे नहीं रहते हैं, सर्वोत्कृष्ट सिद्धांतों एवं विचारों के धनी हम अहंकार, क्रोध, प्रतिशोध या पद-प्रतिष्ठा आदि किसी भी लोभ एवं नश्वर स्वार्थ के वशीभूत होकर अपनी आत्मा को कलुषित नहीं करेंगे। विश्व कल्याणकारी जिनशासन की प्रभावना के लिए हम सारे वैर-विरोध को भूलाकर आपस में आत्मीयता एवं विश्व मैत्री का सारे विश्व के सामने उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित सिद्धांतों को पूर्ण रूप से जीवन में अपनाएंगे, जिससे हमारा जीवन दूसरों के लिए आदर्श बनें, हमारा चिंतन हो कि हमारे किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत स्वार्थ की वजह से जिनशासन को कहीं हानि तो नहीं पहुंच रही है, यदि हमारी किसी भी छोटी सी गलती से भी जिनशासन को कोई क्षति पहुँच रही है तो तुरंत उसका सुधार करें। सभी जैन धर्मानुयायी यदि एक दूसरे के सद्गुणों का सम्मान करते हुए उन अच्छाईयों को नि:संकोच अपनाने का सिलसिला प्रारम्भ करें और ‘मैं’ नहीं ‘हम’ की पवित्र भावना के साथ जैन धर्म के कल्याणकारी सिद्धांतों को जन- जन तक पहुंचाए तो पुन: जिनशासन को समग्र विश्व में पूर्ववत गौरवशाली प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है, हर अच्छे कार्य का दुनिया पर प्रभाव पड़ता ही है, कोशिश जरूर कामयाब होती है, अगर दुनिया में हमारे कार्यों का एक प्रतिशत लोगों पर भी प्रभाव पड़ गया तो करोड़ों नए लोग सच्चे धर्म से जुड़ जायेंगे। आइये हम दृढ़-संकल्प करें कि हम आपस के मतभेदों को दूर रखते हुए संगठन के महत्त्व को जानकर एकजुट होकर प्रयास करें, जैन धर्म के शुद्ध सिद्धांतों को अपने जीवन में पूर्ण रूप से अपनाते हुए समग्र विश्व में जिनशासन को महकायें। -अशोक नागोरी, बैंगलुरू ‘हम’ की शक्ति पहचानें, जिनशासन को महकाएँ (‘we’ Recognize the power of Jinshasana)

श्री मदनमुनि म.सा. को श्रद्धांजलि

श्री मदनमुनि म.सा. को श्रद्धांजलि

जिनागम परिवार की ओर से श्री मदनमुनि म.सा. के संथारा सहित देवलोकगमन पर भावभीनी श्रद्धांजलि गुरु अंबेश के सुशिश्य रत्न गुरु सौभाग्य के गुरु भ्राता मेवाड़ प्रवर्तक महाश्रमण मदन मुनि म.सा. का दिनांक ७ दिसंबर २०२१ मंगलवार को संथारा सहित देवलोकगमन हो गया। मंगलवार को उपप्रवर्तक कोमल मुनि म. सा. ने संथारे के प्रत्याख्यान ग्रहण करवाए जो कि लगभग ५.४५ घंटे का संथारा अहमदाबाद के निजी अस्पताल में किया गया। गुरुदेव के पार्थिव शरीर को घोड़ा घाटी नाथद्वारा लाया गया। अंतिम संस्कार ९ दिसम्बर को किया गया।हजारों श्रावक-श्राविकाओं की उपस्थिति में गुरुदेव मदन मुनि जी की अंतिम महाप्रयाण यात्रा नेशनल हाईवे ८ पर स्थित मदन पथिक विहार धाम घोड़ा घाटी नाथद्वारा में नम आंखों से अंतिम विदाई दी गई। अंतिम संस्कार से पूर्व संबंधित चढ़ावे की बोलियां लगाई गई। अंतिम विदाई में जो श्रावक संघ शामिल नहीं हो पाए उन्होंने भी अपने – अपने स्थान पर रहकर ही नवकार जाप, सामाजिक व स्वाध्याय कर गुरुदेव को मोक्ष गामी बनने की मंगल कामना कर श्रद्धांजलि अर्पित की।अरिहंत भवन में विराजित राजस्थान उप प्रवर्तिनी साध्वी मैना कंवर आदि ठाणा, साध्वी मधु कंवर, डॉ. चिंतन श्री आदि ठाणा, साध्वी मुक्ति प्रभा आदि ठाणा ने गुरुदेव के देवलोकगमन को संघ समाज के अपूरणीय क्षति बता कर गहरी संवेदना प्रकट की। संक्षिप्त जीवनी जन्म – वि. स १९८७, फाल्गुन शुक्ल ५, रविवार २२-२-१९३१ जन्म स्थान – लावा सरदारगढ़ (राज.) माता – नारीरत्न श्रीमती सुंदरबाई हिंगड़ पिता – श्रावकरत्न गंभीरमल हिंगड़ जन्म नाम- लक्ष्मीलाल व्यावहारिक शिक्षा – आठवीं कक्षा वैराग्य शिक्षा- राजस्थान सिंहनी महासती प्रेमवती मासा दीक्षा – वि.स २०१०, कार्तिक कृष्णा ९, शनिवार २४-१०-१९५३ दीक्षा स्थान – मोलेला (राज.) दीक्षा प्रदाता – मेवाड़ भूषण दादा गुरु मोतीलाल मासा दीक्षा गुरु – मेवाड़ संघ शिरोमणि प्रवर्तक गुरुदेव अंबालाल म.सा. दीक्षित नाम -मदन मुनि पथिक धार्मिक शिक्षा – जैनागम, जैनेतर दर्शन, जैन सिद्धांताचार्य (प्रथम खंड) भाषा ज्ञान – राजस्थानी (मेवाड़ी), हिंदी, प्राकृत, संस्कृत आदि उपप्रवर्तक पद – १२ जून १९९४, सेमा (राज) प्रवर्तक पद -२० मार्च २००५, नाथद्वारा (राज) महाश्रमण – २३ सितंबर २०१२ नाथद्वारा (राज) विचरण क्षेत्र- राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि साहित्य रचना- निबंध – उद्धबोधन, आत्मा के संग जीवन के रंग, चिंतन के कण, ज्योति कण, ज्ञान माधुरी, प्रकाश की पगडंडियां, कथा- कथा कुसुम भाग- १,२,३ उपन्यास- मुक्ति का राही, सपनो की सौगात काव्य- अर्जुन माली नाटक- पर्दा उठ गया, अमरप्रीत, निधूर्म ज्योति, अंजना सती, भागो वासना के भूत देवलोक गमन- ७ दिसम्बर २०२१ जिनागम परिवार की ओर से श्री मदनमुनि म.सा. के संथारा सहित देवलोकगमन पर भावभीनी श्रद्धांजलि