अहिंसा ही मानव धर्म है : तीर्थंकर महावीर
‘‘मधुरिमा कंठ में न होती तो शब्द विषपान बन गया होता।
आस्था दिल में न होती तो हृदय पाषाण बन गया होता।
प्रभू वीर से लेकर अब तक अगर ऐसा जिन धर्म न मिलता
तो यह संसार वीरान बन गया होता’’
अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। तीर्थंकर महावीर अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने हमें अहिंसा का पालन करते हुए, सत्य के पक्ष में रहते हुए, किसी के हक को मारे बिना, किसी को सताए बिना, अपनी मर्यादा में रहते हुए पवित्र मन से, लोभलालच किए बिना, नियम में बंधकर सुख-दुख में संयमभाव में रहते हुए, आकुल-व्याकुल हुए बिना, धर्म संगत कार्य करते हुए ‘मोक्ष पद’ पाने की ओर कदम बढाते हुए दुर्लभ जीवन को सार्थक बनाने का संदेश दिया, वे सभी के साथ समान भाव रखते थे और किसी को भी कोई दुःख नहीं देना चाहते थे, पंचशील सिध्दान्त के प्रवर्तक एवं जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी मूर्तिमान प्रतिक थे, जिस युग में हिंसा, पशुबलि, जात-पात के भेदभाव का बोलबाला था, उसी युग में महावीर ने जन्म लिया, उन्होंने दुनिया सत्य एव अहिंसा जैसे खास उपदेशों के माध्यम से सही राह दिखाने की कोशिश की, उन्होंने जो बोला सहज रूप से बोला, सरल एवं सुबोध शैली में बोला, सापेक्ष दृष्टि से स्पष्टिकरण करते हुए बोला, आपकी वाणी ने लोक हृदय को अपूर्व दिव्यता प्रदान की, आपका समवशरण जहाँ भी गया वह कल्याणधाम हो गया। तीर्थंकर महावीर ने प्राणीमात्र की हितैषिता एवं उनके कल्याण की दृष्टि से धर्म की व्याख्या की, आपने कहा
‘‘धम्मो मंगल मुक्किटठं, अहिंसा संजमा तवो’’
(धर्म उत्कृष्ट मंगल है, वह अहिंसा संयम तथा तप रूप है)
एक धर्म ही रक्षा करने वाला है, धर्म के सिवाय संसार में कोई भी मनुष्यका रक्षक नहीं है।
धर्म भावना से चेतना शुध्दिकरण होता है। धर्म से वृत्तियों का उन्नयन होता है। धर्म व्यक्ति के आचरण को पवित्र एवं शुध्द बनाता है। धर्म से सृष्टि के प्रति करूणा एवं अपनत्व की भावना उत्पन्न होती है, इसलिए तीर्थंकर महावीर ने कहा,
“एगा धम्म पडिमा, जं से आयो पवज्जवजाए’’
अर्थात धर्म ऐसा पवित्र अनुष्ठान है जिससे आत्मा का शुध्दिकरण होता है। तीर्थंकर महावीर ने मानव भव दुर्लभता का वर्णन करते हुए गणधर गौतम से कहा था कि हे गौतम! सब प्राणियों के लिए चिरकाल में मनुष्य जन्म दुर्लभ है क्योंकि कर्मो का आवरण उतीव गहन है, अंततः इस भाव को पाकर एक क्षण के लिए भी प्रमाद तथा आलस नहीं करना चाहिए, अनेक गतियों और योनियों में भटकते जब जीव शुध्दि को प्राप्त करता है तब कहीं जाकर मनुष्य योनि प्राप्त होती है।
तीर्थंकर महावीर का कहना था कि किसी आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने असली रूप को नहीं पहचानना है तथा यह केवल आत्मज्ञान प्राप्त कर ही ठीक की जा सकती है।
मनुष्य को अपने जीवन में जो धारण करना चाहिए वही धर्म है, धारण करने योग्य क्या है? क्या हिंसा, क्रूरता, कठोरता, अपवित्रता, अहंकार, क्रोध, असत्य, असंयम, व्यभिचार, परिग्रह आदि विकार धारण करने योग्य है? यदि संसार का प्रत्येक व्यक्ति हिंसक हो जाए तो समाज का अस्तित्व ही समाप्त हा े जाएगा तथा सर्व त्र भय, अशा ां fत एव ं पाशविकता का साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। संपूर्ण विश्व में एकमात्र ‘जैन धर्म’ ही इस बात में आस्था रखता है कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है अर्थात्म हावीर की तरह ही प्रत्येक व्यक्ति ‘जैन धर्म’ ज्ञान प्राप्त कर, उसमें सच्ची आस्था रख, उसके अनुसार आचरण कर बड़े पुण्योदय से उसे प्राप्त कर दुर्लभ मानव योनी का एकमात्र सच्चा व अंतिम सुख, संपूर्ण जीवन जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होने वाले कर्म करते हुए मोक्ष महाफल पाने हेतु कदम बढ़ाना तथा उसे प्राप्त कर वी महावीर बन, दुर्लभ जीवन को सार्थक कर सकता है।
महावीर ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा उन्होंने जो उपदेश दिए, गणधरों ने उनका संकलन किया, वे संकलन ही शास्त्र बन गए, इनमें काल, लोक, जीव आदि के भेद–प्रभेदों का इतना विशुध्द एवं सूक्ष्म विवेचन है कि यह एक विश्व कोष का विषय नहीं अपितु ज्ञान विज्ञान की शाखाओं के अलग-अलग विश्व कोषों का समाहार है। आज के भौतिक युग में अशांत जन मानस को तीर्थंकर महावीर की पवित्र वाणी ही परम सुख और शांति प्रदान कर सकती है यदि आज संसार के लोग तीर्थंकर महावीर के अहिंसा परमो धर्म, अपरिग्रह और अनेकांतवाद को अपना लें तो प्रत्येक प्रकार की समस्याएं मिट सकती है, शांति स्थापित को सकती है और मानव सुखी रह सकता है।