प्राचीन जैन मंदिर थे शिक्षा के केंद्र

प्राचीन जैन मंदिर

विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो
धेनुः कामदुधा रतिर्श्र्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु

अर्थात विद्या अनुपम कीर्ति है, भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है,
तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है अतः सब विषयों को छोड़कर विद्या
का अधिकारी बनिए, वास्तव में जहाँ विद्या का निवास होता है वहाँ कभी क्षय की स्थिति उत्पन्न नहीं होती।मुझे हाल ही में तमिल भाषा का एक विडियो वाट्सएप में मिला, एक बहन बता रही थी कि दक्षिण भारत में
जैनत्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ से पहले से विद्यमान है। जैनियों द्वारा तमिल साहित्य की खूब सेवा सुश्रसा की गई
थी तमिल व्याकरण एवं तमिल में रचित बहुत से महाकाव्य जैन संतों की ही देन है। प्राचीन काल में तमिलनाडु
एवं दक्षिण प्रान्त केरल-कर्नाटक-आंध्रप्रदेश-उड़ीसा में जैन सन्त अपने श्रावकों को औषधी दान – अभय दान –
ज्ञान दान – अर्थ दान यानी चारों दानों की शिक्षा जैन मंदिरों में देते थे, इसी कारण यहाँ भव्य मंदिरों का निर्माण
हुआ, तत्कालीन समय में जैन धर्म अपने उत्कर्ष स्वरूप में विद्यमान रहा, जिसका प्रमुख कारण जैन धर्म का
समाज से जुड़ाव, अपने सिद्धांतों के अतिरिक्त शिक्षा के माध्यम से भी रहा है। जैन मंदिरों में जाति-पाति, ऊँच-
नीच के भेदभाव के बिना सबको शिक्षा प्रदान की गई, उस समय जाति जन्म आधारित न होकर कर्म आधारित
थी, जहाँ राजा व रंक दोनों का समान अधिकार दिए गए इसी कारण अधिकांश व्यक्ति जैन समाज के अनुयायी
रहे।कालांतर में इन जैन मंदिरों से शिक्षा व्यवस्था को हटा दिया गया, ऐसे गंभीर विषय पर शायद तत्कालीन समाज
ने विचार नहीं किया, इस कमी के कारणों पर अगर विचार किया जाता एवं जैन मंदिरों से शिक्षा व्यवस्था को नहीं
हटाया जाता तो शायद आज यह स्थिति उत्पन्न नहीं होती, जहाँ करोड़ों की संख्या में जैन थे वहां अब लाखों में हैं।
मंदिरों पर एवं मंदिरों में जमा पूंजी पर अन्य धर्मों का आधिपत्य नहीं हो पाता, परन्तु हमने विद्या रूपी अनुपम
निधि को जैन मंदिरों से पृथक कर दिया, जहाँ विद्या का निवास होता है, वहां कभी क्षय की स्थिति उत्पन्न नहीं
होती।- सुगाल चन्द जैन

प्राचीन जैन मंदिर थे शिक्षा के केंद्र

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