Category: August 2024

आचार्यश्री आनंद ऋषिजी: राष्ट्रसंत 0

आचार्यश्री आनंद ऋषिजी: राष्ट्रसंत

संसारी नाम – नेमीचंदजीपिता का नाम – श्री. देवीचंदजीसंसारी उपनाम – गुगलिया/गुगलेजन्म तिथि – श्रावण शुक्ल एकम्माता का नाम – श्रीमती हुलसाबाईजन्म स्थान – चिचोंडी, जिला. अहमदनगरआनंद ऋषिजी महाराज एक जैन धार्मिक आचार्य थे। भारत सरकार ने ९ अगस्त २००२ को उनके सम्मान में एक स्मारक डाक टिकट जारी किया, उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री द्वारा राष्ट्र संत की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया, वे वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के दूसरे आचार्य थे।प्रारंभिक जीवनउनका जन्म (श्रावण शुक्ल १ विक्रम संवत १९५७) को चिंचोड़ी, महाराष्ट्र में हुआ था और उन्होंने तेरह वर्ष की आयु में आचार्य रत्न ऋषिजी महाराज से दीक्षा प्राप्त की थी, जिनका स्वर्गवास १९२७ में महाराष्ट्र के अलीपुर में हुआ।आध्यात्मिक जीवन१३ साल की उम्र में नेमीचंद ने अपना शेष जीवन जैन संत के रूप में बिताने का फैसला किया। उनकी दीक्षा (अभिषेक) ७ दिसंबर १९१३ (मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी) को अहमदनगर जिले के मिरी में हुई थी, तब उन्हें आनंद ऋषि जी महाराज नाम दिया गया, उन्होंने पंडित राजधारी त्रिपाठी के मार्गदर्शन में संस्कृत और प्राकृत स्तोत्र सीखना शुरू किया, उन्होंने जनता को अपना पहला प्रवचन १९२० में अहमदनगर में दिया।रत्न ऋषि जी महाराज के साथ मिलकर आनंद ऋषि जी ने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार शुरू किया था। १९२७ में अलीपुर में गुरु रत्न ऋषि जी महाराज की संथारा मृत्यु के बाद, आनंद ऋषि जी टूट गए थे। हालाँकि, वह अपने गुरु के आदेशों ‘कभी दुखी मत हो, और हमेशा मानव जाति की भलाई के लिए काम करते रहो’ को कभी नहीं भूले। अपने गुरु के बिना उनका पहला चातुर्मास १९२७ में हिंगनघाट में हुआ। १९३१ में वे जैन धर्म दिवाकर चोथमलजी महाराज के साथ धार्मिक चर्चा करते थे, जिन्हें आनंद ऋषि जी की आचार्य बनने की क्षमता का एहसास हुआ उन्होंने अपने अनुयायियों को इसकी इच्छा बताई।आनन्द ऋषि जी ने श्रावकों के कल्याण हेतु अनेक कार्यक्रम प्रारम्भ किये। चातुर्मास के लिए घोडनदी में रहते हुए उन्होंने श्री नामक एक धार्मिक केंद्र स्थापित करने का निर्णय लिया। तिलोक रत्न स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड स्थापना २५ नवंबर १९३६ को अहमदनगर में हुई थी।१९५२ में राजस्थान के सादड़ी साधु सम्मेलन में आनंद ऋषि जी को जैन श्रमण संघ का प्रधान मंत्री घोषित किया गया। १९५३ में कई प्रसिद्ध जैन साधु राजस्थान के जोधपुर में एक सामान्य चातुर्मास के लिए एक साथ आये। १३ मई १९६४ (फाल्गुन शुक्ल एकादशी) को आनंद ऋषि जी श्रमण संघ के दूसरे आचार्य बने। यह समारोह राजस्थान के अजमेर में हुआ।१९७४ में मुंबई में अपने चातुर्मास के बाद आनंद ऋषि जी पुणे पहुंचे। शनिवार वाडा में एक विशाल स्वागत समारोह हुआ। १३ फरवरी १९७५ (माघ शुक्ल द्वितीया) को उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक द्वारा राष्ट्र संत की उपाधि से सम्मानित किया गया, यह उनके ७५वें जन्मदिन का वर्ष भी था, उसी वर्ष ‘आनंद फाउंडेशन’ की स्थापना हुई, १९८७ को साधु के रूप में उनके अभिषेक का हीरक जयंती वर्ष था। यह नौ अभिषेकों के साथ और पूज्य शंकराचार्य और मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण की उपस्थिति में मनाया गया।श्रद्धेय आचार्य के बारे में एक और दिव्य बात यह है कि उनके पैर के बीच में पदम चिन्ह था, वह इसे केवल उन्हीं भक्तों को प्रदर्शित करते थे, जो उनकी किसी आदत से इनकार करते थे या जीवन भर के लिए कुछ ना करने की कसम खाते थे।वह कई शैक्षणिक संस्थानों के संस्थापक थे। अहमदनगर में आनंदधाम, आनंदऋषिजी अस्पताल, आनंदऋषिजी नेत्रालय और आनंदऋषिजी ब्लड बैंक उनकी याद में बनाए गए, और उनके नाम पर रखे गए।मोक्षधाम :८ मार्च १९९२ को अहमदनगर, महाराष्ट्र में मोक्षगामी के समय से पहले उन्होंने संथारा (उपवास द्वारा) स्वीकार किया।

७६वां स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त १९४७ 0

७६वां स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त १९४७

स्वतंत्रता दिवस भारतीयों के लिये एक बहुत ही खास दिन है क्योंकि, इसी दिन वर्षों की गुलामी के बाद ब्रिटिश शासन से भारत को आजादी मिली थी। भारतीय स्वतंत्रता दिवस के इस ऐतिहासिक और महत्वपर्ू्ण दिन के बारे में अपनी वर्तमान और आने वाली पीढियों को निबंध लेखन, भाषण व्याख्यान और चर्चा के द्वारा प्रस्तुत करते हैं।१५ अगस्त १९४७, भारतीय इतिहास का सर्वाधिक भाग्यशाली और महत्वपर्ू्णं दिन था, जब हमारे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना सब कुछ न्योछावर कर भारत देश के लिये आजादी हासिल की। भारत की आजादी के साथ ही भारतीयों ने अपने पहले प्रधानमंत्री का चुनाव पंडित जवाहर लाल नेहरु के रुप में किया था, जिन्होंने राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के लाल किले पर तिरंगे झंडे को पहली बार फहराया, आज भी हर भारतीय इस खास दिन को एक उत्सव की तरह मनाता हैं।१५ अगस्त १९४७, भारत की आजादी का दिन और इस खास दिन को एक उत्सव की तरह हर साल भारत में स्वतंत्रता दिवस के रुप में मनाया जाता है, इस कार्यक्रम को नई दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किया जाता है जिसमें भारत के प्रधानमंत्री द्वारा लाल किले पर झंडा फहराया जाता है तथा लाखों लोग स्वतंत्रता दिवस समारोह में शामिल होता हैं।लाल किले पर उत्सव के दौरान, झंडारोहण और राष्ट्रगान के बाद प्रधानमंत्री द्वारा भाषण दिया जाता है, जिसके बाद तीनों भारतीय सेनाओं द्वारा अपनी ताकत का प्रदर्शन किया जाता है साथ ही कई सारे रंगारंग कार्यक्रम प्रदर्शित किये जाते हैं, जैसे-भारत के राज्यों द्वारा झाकियों के माध्यम से अपनी कला और संस्कृति की प्रस्तुति, स्कूली बच्चों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रदर्शन करना आदि, इस खास अवसर पर हम भारत के उन महान हस्तियों को याद करते हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्णं योगदान दिया, साथ ही यह उत्सव देश के विभिन्न स्कूलों, कॉलेजों तथा अन्य स्थलों पर भी पूरे हर्षाल्लास के साथ मनाया जाता है।भारत में स्वतंत्रता दिवस, सभी धर्म, परंपरा और संस्कृति के लोग पूरी खुशी से एक साथ मनाते हैं। १५ अगस्त १९४७ को हर साल यह दिन इसलिए पर्व स्वरूप मनाया जाता है क्योंकि इसी दिन लगभग २०० साल बाद भारत को ब्रिटिश हुकुमत से आजादी मिली थी, इस दिन को राष्ट्रीय अवकाश के रुप में घोषित किया गया साथ ही सभी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय तथा कार्यालय आदि भी बंद रहते हैं, इसे सभी स्कूल, कॉलेज और शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थीयों द्वारा पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। विद्यार्थी खेल, कला तथा साहित्य के माध्यम से भाग लेते हैं, इन कार्यक्रमों के आरंभ से पहले मुख्य अतिथि अथवा प्रधानाचार्य द्वारा झंडारोहण किया जाता है जिसमें सभी मिलकर एक साथ बाँसुरी और ड्रम की धुन पर राष्ट्रगान करते हैं और उसके बाद परेड और विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा इस दिन को खास बना दिया जाता है।स्वतंत्रता दिवस के इस खास मौके पर भारत की राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के राजपथ पर भारत सरकार द्वारा इस दिन को एक उत्सव का रुप दिया जाता है जहाँ सभी धर्म, संस्कृति और परंपरा के लोग भारत के प्रधानमंत्री को भाषण सुनते हैं, इस अवसर पर हमलोग उन सभी महान व्यक्तित्व को याद करते हैं, जिनके बलिदान की वजह से हम सभी आजाद भारत में सांसें ले रहे हैं।भारत में स्वतंत्रता दिवस हर साल १५ अगस्त को राष्ट्रीय अवकाश के रुप में मनाया जाता है जब भारतीय ब्रिटिश शासन से अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता की लंबी गाथा को याद करते हैं, ये आजादी मिली ढेरों आंदोलनों और सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों की आहुतियों से, आजादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरु भारत के पहले प्रधानमंत्री बनें, जिन्होंने दिल्ली के लाल किले पर झंडा फहराया, इस दिन को शिक्षक, विद्यार्थी, अभिभावक और सभी लोग झंडारोहण के साथ ‘राष्ट्रगान’ गीत गाते हैं। हमारा तिरंगा भारत के प्रधानमंत्री द्वारा दिल्ली के लाल किले पर फहराया जाता है, इसके बाद राष्ट्रीय ध्वज को २१ बंदूकों की सलामी के साथ उस पर हेलिकॉप्टर से पुष्प वर्षा कर सम्मान दिया जाता है, हमारे तिरंगे झंडे में केसरिया रंग हिम्मत और बलिदान को, सफेद रंग शांति और सच्चाई को, हरा रंग विश्वास और शौर्य को प्रदर्शित करता है।तिरंगे के मध्य एक अशोक चक्र होता है जिसमें २४ तिलियाँ होती हैं, इस खास दिन पर हम भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, गांधीजी जैसे उन साहसी पुरुषों के महान बलिदानों को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके अविस्मरणीय योगदानों के लिये याद करते है। इस दौरान स्कूलों में विद्यार्थी स्वतंत्रता सेनानियों पर व्याख्यान देते हैं तथा परेड में भाग लेते हैं, इस खास मौके को सभी अपनी-अपनी तरह मनाते हैं,कोई देशभक्ति की फिल्में देखता है तो कोई अपने परिवार और मित्रों के साथ घर के बाहर घूमने जाता है साथ ही कुछ लोग स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं।स्वतंत्रता का महत्वभारत का स्वतंत्रता दिवस ऐतिहासिक महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन हम राजनीतिक तौर पर आजाद हुए और हमने लोगों के दिल और दिमाग में राष्ट्रीयता का विचार पैदा करना शुरू किया, अगर ऐसा न होता तो लोग अपनी जाति, समुदाय व धर्म आदि के आधार पर ही सोचते रह जाते, हालांकि भारतीय होने का यह गौरव केवल एक भौगोलिक सीमा के ऊपर खड़ा था।भारत का असली व पूरा गौरव, इसकी सीमाओं में नहीं, बल्कि इसकी संस्कृति, आध्यात्मिक मूल्यों तथा सार्वभौमिकता में है।तीन ओर से सागर तथा एक ओर से हिमालय पर्वत शृंखला से घिरा भारत स्थिर जीवन का केंद्र बन कर सामने आया है, यहां के निवासी सालों से बिना किसी बड़े संघर्ष के रहते आ रहे हैं, जबकि बाकी संसार में ऐसा नहीं रहा, जब आप संघर्ष की स्थिति में जीते हैं, तो आपके लिए प्राणों की रक्षा ही जीवन का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य बना रहता है, जब लोग स्थिर समाज में जीते हैं, तो जीवन-रक्षा से परे जाने की इच्छा पैदा होती है।भारत में लंबे अरसे से, स्थिर समाजों का उदय हुआ और नतीजन आध्यात्मिक प्रक्रियाएं विकसित हुईं।आज आप अमेरिका में लोगों के बीच आध्यात्मिकता को जानने की तड़प को देख रहे हैं, उसका कारण यह है कि उनकी आर्थिक दशा पिछली तीन-चार पीढ़ियों से काफी स्थिर रही है, उसके बाद उनके भीतर कुछ और अधिक जानने की इच्छा बलवती हो रही है।भारत में आज से कुछ हजार साल पहले ऐसा ही घट चुका है, यह अविश्वसनीय जान पड़ता है कि हमने कितने रूपों में आध्यात्मिकता को अपनाया है, इन्सान बुनियादी रूपें में क्या है, इस मुद्दे पर इस धरती की किसी ने भी दूसरी संस्कृति ने उतनी गहराई से विचार नहीं किया, जैसा हमारे देश में किया गया, यही इस देश का मुख्य आकर्षण है।

मानव जाति के प्रज्ञापुरुष थे आचार्य महाप्रज्ञ 0

मानव जाति के प्रज्ञापुरुष थे आचार्य महाप्रज्ञ

प्रज्ञापुरूष आचार्य महाप्रज्ञ जी युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के सक्षम उतराधिकारी हैं। बुद्धि, प्रज्ञा, विनय और समर्पण का उनके जीवन में अद्भुत संयोग है। वे महान्‌ा दार्शनिक, कवि, वक्ता एवं साहित्यकार होने के साथ-साथ प्रेक्षाध्यान पद्धति के महान अनुसंधाता एवं प्रयोक्ता रहे।आचार्य महाप्रज्ञ जी का जन्म वि.स. १९७७ आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी को टमकोर (राजस्थान) के चोरड़िया परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री तोलारामजी एवं माता का नाम बालूजी था। युवाचार्यश्री का जन्म नाम नथमल था। जब वे बहुत छोटे थे, तभी पिता का साया उनके सिर से उठ गया था। माता बालूजी धार्मिक प्रकृति की महिला थीं। उनकी धार्मिक वृतियों से बालक की धार्मिक चेतना उदृद्ध हुई। माता और पुत्र दोनों ही संयम-पथ पर बढ़ने के लिए उत्सुक थे।वि.स. १९८७ माघ शुक्ला दसमी को सरदारशहर में बालक नथमल ने अपनी माता के साथ पूज्य कालूगणी से दीक्षा ग्रहण की। उस समय उनकी आयु मात्र दस वर्ष की थी। संयमी जीवन में उनकी पहचान मुनि नथमल के रूप में होने लगी। मुनि नथमल अपनी सौम्य आकृति एवं सरल स्वभाव के कारण सबके प्रिय बन गए। पूज्य कालूगणी का उन पर असीम वात्सल्य था। कालूगणी के निर्देश से उन्हें विद्या-गुरू के रूप में मुनि तुलसी (आचार्य तुलसी) की सन्निधी मिली। मुनि नथमल की आशुग्राही मेधा, विविध विषयों का ज्ञान करने में सक्षम हुई। दर्शन, न्याय, व्याकरण, कोष, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जो उनकी प्रज्ञा की पकड़ से अछुता रहा हो। जैनागमों के गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने भारतीय एवं भारतीयेत्तर सभी दर्शनों का तलस्पर्शी एवं तुलनात्मक अध्ययन किया। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार रहा। वे संस्कृत भाषा के सफल आशुकवि है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में वे दूसरे विवेकानन्द थे।वि.स. २०२२ माद्य शुक्ला सप्तमी को हिसार (हरियाणा) में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें निकाय-सचिव के गरिमामय पद पर विभुषित किया। वि.स. २०३४ कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी, गंगाशहर में आचार्यश्री तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया। महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत करते समय आचार्यश्री तुलसी ने कहा-मुनि नथमल की अपूर्व सेवाओं के प्रति समूचा तेरापंथ संघ कृतज्ञता ज्ञापित करता है। यह महाप्रज्ञ अलंकार उस कृतज्ञता की स्मृति मात्र है।वि.स. २०३५ राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने अपने उतराधिकारी के रूप में उनकी घोषणा की। वि.स. २०५० सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के ऐतिहासिक समारोह के मध्य आचार्यश्री तुलसी ने अपनी सक्षम उपस्थिति में अपने आचार्यपद का विर्सजन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया।यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आचार्य महाप्रज्ञ जी को आचार्यश्री तुलसी जैसे समर्थ गुरु मिले तो आचार्यश्री तुलसी को आचार्य महाप्रज्ञ जैसे समर्पित शिष्य एवं योग्य उतराधिकारी मिले। विश्व क्षितिज पर आचार्यश्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसी आध्यात्मिक विभूतियाँ गुरु शिष्य के रूप में शताब्दियों के बाद प्रकट होती हैं।आचार्य महाप्रज्ञ आचार्यश्री तुलसी के हर आयाम में और हर कदम पर अनन्य सहयोगी रहे। गुरु के प्रत्येक निर्देश को क्रियान्वित करने एवं उनके द्वारा प्रारंभ किए हुए कार्य को उत्कर्ष के बिन्दु तक पहूंचाने में वे सदा प्रस्तुत रहते थे।आचार्यश्री तुलसी की वाणी महाप्रज्ञ के कण-कण में क्षण-क्षण प्रतिध्वनित होती है। तेरांपथ की प्रगति-यात्रा के हर आरोह-अवरोह में आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने गुरु श्री तुलसी के सधे हुए द्रुतगामी कदमों का सदा साथ निभाया, यह कहना असंगत नहीं होगा कि तेरापंथ और आचार्य तुलसी को विश्व प्रतिष्ठित करने में आचार्य महाप्रज्ञ की भूमिका अनान्य रही है।आचार्य महाप्रज्ञ कुशल प्रवचनकार होने के साथ-साथ एक महान्‌ा लेखक, महान श्रुतधार और महान साहित्कार बने। उनकी सारस्वत वाणी से निकला हर शब्द साहित्य बन जाता था, उन्होंने विविध विषयों पर शताधिक ग्रन्थ लिखे हैं।प्रत्येक ग्रन्थ में उनका मौलिक चिन्तन प्रस्फुटित होता था, उनके ग्रन्थ जहाँ साहित्य जगत की अमूल्य धरोहर हैं, वहाँ मानवता कि विशिष्ट सेवा भी। आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में जैनागमों के वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ आधुनिक सम्प्रदाय उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है, अर्हत्‌ा वाणी के प्रति महान समर्पण का सूचक है।शोध विद्वानों के लिए आचार्य महाप्रज्ञ एक विश्वकोष थे। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो आचार्य महाप्रज्ञ के ज्ञानकोष्ठ में अवतरित ना हुआ हो।आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान एवं जीवन विज्ञान के रूप में एक विशिष्ठ वैज्ञानिक साधना-पद्धति का अधिकार प्राप्त किया। इस साधना-पद्धति के द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति से दूर हटकर आध्यत्मिक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। थोड़े शब्दों में कहा जाए तो आचार्य महाप्रज्ञ की सृजन चेतना से तेरापंथ धर्म-संघ लाभान्वित हुआ है और सम्पूर्ण मानव जाति लाभान्वित होती रहेगी।

श्वेताम्बर तेरापंथ: आचार्य भीखण की भूमिका 0

श्वेताम्बर तेरापंथ: आचार्य भीखण की भूमिका

जैन धर्म में श्वेताम्बर संघ की एक शाखा का नाम श््वेताम्बर तेरापंथ है, इसका उद्भव विक्रम संवत् १८१७ (सन् १७६०) में हुआ, इसका प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये, वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे।आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी, परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था, उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम ‘तेरापंथ’ हो ही गया, इसका कारण निम्नोक्त घटना है:जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले १३ श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे, उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंघी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं, उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमान् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है, वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है, हम भी उनके विचारों से सहमत हैं इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था, उसने तत्काल १३ की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डालाआप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत।सुणज्यो रे शहर रा लाका, ऐ तेरापंथी तंतबस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी, जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम ‘तेरापंथी’ पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर तीर्थंकरों को प्रणाम कर इस शब्द का अर्थ किया:हे भगवान यह ‘तेरापंथ’ है, हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है, अत: हम तेरापंथी हैं।संगठनआचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मर्यादा पत्र लिखा:(१) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।(२) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।(३) कोई भी साधु अनुशासन को भंग न करे।(४) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।(५) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।(६) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।(७) आचार्य जहाँ कहें, वहाँ मुनि विहार कर चातुर्मास करे, अपनी इच्छानुसार ना करे।(८) आचार्य श्री के प्रति निष्ठाभाव रखे, आदि।इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २६३ वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है।संघव्यवस्थातेरापंथ संघ में इस समय करीबन ७०० साधु साध्वियाँ हैं, इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण पर है, वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: ३-३ व ५-५ के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं, प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है, प्रत्येक वर्ग को ‘सिंघाड़ा’ कहा जाता है।ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और आगामी वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य श्री वहीं पर निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी ‘सिंघाड़े’ अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।

आचार्यश्री महाश्रमणजी का संक्षिप्त जीवन परिचय 0

आचार्यश्री महाश्रमणजी का संक्षिप्त जीवन परिचय

जन्म : वि.सं.२०१९, वैशाख शुक्ला नवमी(१३ मई १९६२) सरदारशहरजन्म नाम : मोहनलाल दुगड़पिता : स्व श्री झूमरमलजी दुगड़माता : स्व.श्रीमती नेमादेवी दुगड़दीक्षा : वि.सं.२०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी(५ मई १९७४) सरदारशहर(आचार्य तुलसी की अनुज्ञा सेमुनि सुमेरमलजी‘लाडनूं’ द्वारा)अन्तरंग सहयोगी : वि.सं.२०४२, माघ शुक्ला सप्तमी(१६ फरवरी १९८६) उदयपुरसाझपति : वि.सं.२०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी(१३ मई १९८६) ब्यावरमहाश्रमण पद : वि.सं.२०४६, भाद्रव शुक्ला नवमी(९ सितम्बर १९८९) लाडनूंयुवाचार्य पर : वि.सं.२०५४, भाद्रव शुक्ला द्वादशी(१४ सितम्बर १९९७) गंगाशहरआचार्य पदाभिषेक : वि.सं.२०६७, द्वितीय वैशाख शुक्ला दशमी(२३ मई २०१०) सरदारशहरमहातपस्वी : वि.सं.२०६४, भाद्रपद शुक्ला पंचमी(१७ सितम्बर २००७) उदयपुरशान्तिदूत : वि.सं.२०६८, ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी(२९ मई २०११) उदयपुरश्रमण संस्कृति उद्गाता : वि.सं.२०६९, आश्विन कृष्णा चतुदर्शी(१४ अक्टूबर २०१२) जसोलअिंहसा यात्रा शुभारम्भ : २०७१, मार्गशीर्ष बदी तृतीया(९ नवम्बर २०१४) दिल्ली सेप्रथम विदेश यात्रा : वि.सं.२०७२, चैत्र शुक्ला एकादशी(३१ मार्च २०१५) वीरगंज (नेपाल)प्रकाशित पुस्तकें : आओ हम जीना सीखें, दु:ख मुक्ति का मार्ग,क्या कहता है जैन वाड्.मय,संवाद भगवान से (भाग-१, २), शिक्षा सुधा,शेमुषी, मेरे गीत,धम्मो मंगलमुक्किंट्ठं,महात्मा महाप्रज्ञ, सुखी बनो, संपन्न बनो,विजयी बनो, रोज की एक सलाह,शिलान्यास धर्म का, अदृश्य हो गया महासूर्य…. जिसमें आसमान को छूने का जज्बा होता है, जमीन भी उसकी हो जाती है, वस्तुत: जो व्यक्ति कुछ होने की तमन्ना रखता है, कुछ कर गुजरने का हौसला रखता है, वह एक दिन अवश्य ही अपने भाग्य, बुद्धि और परिश्रम के बलबुते पर जनमानस के मानचित्र पर सफल व्यक्तित्व के रूप में उभर जाता है। विलक्षण कर्त्तृत्व और विशिष्ट व्यक्तित्व के धनी आचार्य महाश्रमण का जन्म वि.सं. २०१९ वैशाख शुक्ला ९ (१३ मई १९६२) रविवार को ‘सरदाशहर’ में हुआ।‘सरदारशहर’ राजस्थान का एक प्रमुख क्षेत्र है। गांधी विद्या मंदिर की स्थापना के बाद यह नगर राजस्थान के शैक्षणिक मानचित्र पर उभरकर आ गया, यहां अनेक आकर्षक दर्शनीय स्थल हैं। सरदारशहर तेरापंथ धर्मसंघ के अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों का केन्द्र-बिन्दु रहा है, यहां की आबादी एक लाख से भी ज्यादा है।पारिवारिक पृष्ठभूमि : ‘सरदारशहर’ में दूगड़ जाति के परिवार सबसे अधिक हैं, अनेक गांवों से आकर यहां बसने वाले दूगड़ परिवारों में एक परिवार है श्रीमान झूूमरमलजी दूगड़ का, उनके पूर्वज ‘मेहरी’ गांव से आकर बसे थे इसलिए वे मेहरी वाले ‘दूगड़’ कहलाने लगे। श्री झूमरमलजी दूगड़ के दस सन्तानें हुई-सात पुत्र और तीन पुत्रियां। उस समय ‘माता’ (चेचक) एक असाध्य बीमारी थी, उस लाइलाज बीमारी से ग्रस्त एक पुत्र और एक पुत्री का अल्पवय में ही स्वर्गवास हो गया। श्री झूमरमलजी जोरहाट (असम) में रहते थे, उनका हार्डवेयर का व्यवसाय था, वे सहज, सरल, शांत स्वभावी और ईमानदार व्यक्ति थे। पन्द्रह-बीस मिनट तक नवकार महामंत्र का जाप करना उनका नित्यक्रम था।मानव जीवन की मूल्यवत्ता को समझने वाली और उसे निपुणता से जीने वाली श्रीमती नेमादेवी दूगड़ विवेक-सम्पन्न, व्यवहार-कुशल और समझदार महिला थी, वे अपने दायित्व के प्रति पूर्ण जागरूक थी। संघ और संघपति के प्रति उनमें गहरी श्रद्धा थी। उनका भाषा-विवेक गजब का था। जीवन के सन्ध्याकाल में उनको पक्षाघात हो गया, उस समय अनेक लोग उनसे मिलने आते। एक दिन एक भाई ने पूछा-‘माजी! आपको तो बहुत गर्व होता होगा कि मेरा बेटा युवाचार्य है।’ उन्होंने तत्काल कहा- ‘मैं इस बात का गर्व नहीं करती कि बेटा युवाचार्य है पर मुझे इस बात का गौरव अवश्य है कि बेटा संघ की सेवा कर रहा है।’बातें बचपन की : मोहन बचपन से ही प्रतिभा सम्पन्न था, उसमें गहरी सूझबूझ ग्रहणशीलता और प्रशासनिक योग्यता प्रारंभ से ही थी, उसने जैसे ही अपनी उम्र के पांच वर्ष संपन्न किए, राजेन्द्र विद्यालय में प्रवेश किया। लगभग साढ़े पांच वर्ष तक इसी स्कूल में अध्ययन किया, उस समय स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री रेवतमलजी भाटी थे। मोहन ने स्कूल जाने से पहले ही वर्णमाला और कुछ पहाड़े सीख लिए थे। तीसरी, चौथी और पाचवीं कक्षा में वह कक्षा-प्रतिनिधि (मोनिटर) के रूप में निर्वाचित हुआ, तीनों कक्षाओं में गणित और सामान्य विज्ञान में विशेष योग्यता प्राप्त की और कक्षा तीसरी और पाचवांr में प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। तीसरी कक्षा में खेलकूद/सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अंतर्गत उपस्थिति में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। अनेक धार्मिक व अन्य प्रतियोगिताओं में भी वह प्राय: प्रथम रहता। मोहन अपनी कक्षा के दो-तीन मेधावी छात्रों में से एक था, वह अध्ययन में होशियार था तो लड़ाई-झगड़े में भी कम नहीं था। मोहन बचपन से बहुत ही चंचल था। घर में अनेक बच्चे थे। भाई-भतीजों के साथ लड़ाई-झगड़ा चलता रहता। छुट्टियों के दिनों में तो उसका अधिकांश समय खेलकूद में ही व्यतीत होता। कभी-कभी जब माँ परेशान होकर बच्चों को पकड़ने के लिए उठती तक मोहन का छोटा भाई तो घर से बाहर दौड़ जाता और मोहन पकड़ा जाता। मां जैसे ही चपत लगाने लगती, मोहन कहता- ‘माँ! आपके ही हाथों में लगेगी।’ यह सुनते ही माँ का हाथ वहीं रूक जाता और वह मार खाने से बच जाता।मोहन की खेलने में भी अच्छी रूचि थी। कबड्डी, कांच के गोले, सतोलिया, छुपाछुपी आदि उसके प्रिय खेल थे। खेलकुद प्रतियोगिताओं में वह प्राय: भाग लेता था।प्रहर रात्रि के बाद : एक बार प्रवास में मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ मुनिश्री सोहनलालजी (चाड़वास), मुनिश्री पूनमचंदजी (श्रीडूंगरगढ़), मुनिश्री रोशनलालजी (सरदारशहर) थे। मोहन मुनिश्री सोहनलालजी के निर्देशन में अध्ययनरत रहा। विद्यार्थियों को सिखाने-पढ़ाने में मुनिश्री सोहनलालजी की कला बेजोड़ थी, वे केवल सिखाते ही नहीं थे, वैराग्य के संस्कार भी देते थे, आप धर्मसंघ के एक श्रेष्ठ कलाकार, स्वाध्यायशील और आचारनिष्ठ सन्त थे, आपने मोहन को तत्त्वज्ञान के अनेक थोकड़े कंठस्थ करा दिए, जैसे-पचीस बोल, तेरहद्वार, बासठिया, बावन-बोल, गतागत, पाना की चर्चा, लघुदण्डक तथा थोकड़ों में अन्तिम थोकड़ा माना जाने वाला ‘गमा’ भी कंठस्थ करा दिया, आचार्य भिक्षु के ‘दान-दया’ के सिद्धांत से भी मोहन को अवगत कराया। मोहन घंटों-घंटों तक मुनिश्री सोहनलालजी के पास अध्ययन करता, कंठस्थ ज्ञान का पुनरावर्तन करता और तात्त्विक चर्चा करता। मोहन का उनके प्रति लगाव जैसा हो गया, जब कभी वे अस्वस्थ हो जाते तो मोहन का किसी भी कार्य में मन नहीं लगता और तो क्या, भोजन करने में भी मन नहीं लगता, जब वह खाना खाने घर आता तब मां से कहता- ‘मां! आज जल्दी खाना डाल दो, मुझे अभी वापस जाना है, आज हमारे ‘बापजी’ ठीक नहीं है।’मुनिश्री रोशनलालजी वैरागियों के परिवार वालों से संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष थे, मोहन उनके संपर्क करने तथा वैरागियों की देखभाल रखने में बड़े दक्ष हो गए। मोहन उनके संपर्क में भी बहुत रहा, वे गोचरी के लिए पधारते तब मोहन प्राय: उनके साथ रहता, रास्ते में सेवा करता।मुनिजन मोहन को यदा-कदा दीक्षा लेने के लिए प्रेरित करते रहते। मुनिश्री सुमेरमलजी ने भी मोहन को कई बार दीक्षा लेने के लिए कहा पर मोहन हमेशा एक अच्छा श्रावक की बात कहता रहा।जल उठा दीप : वि.सं. २०३० भाद्रव शुक्ला षष्ठी। अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी का महाप्रयाण दिवस। मुनिश्री सुमेरमलजी ने कहा – ‘मोहन! आज तुम्हें एक निर्णय कर लेना चाहिए कि गृहस्थ जीवन में रहना है या साधु बनना है।’मुनिश्री के निर्देशानुसार मोहन गधैयाजी के नोहरे में एकान्त स्थान में जाकर बैठ गया। सर्वप्रथम पूज्य कालूगणी की माला फेरी, फिर चिन्तन करने लगा –‘मेरे सामने दो मार्ग हैं – एक साधुत्व का और दूसरा गृहस्थ का। साधु मार्ग में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, केशलुंचन, पदविहार आदि स्थिति-जनित कष्ट हो सकते हैं। दूसरी ओर गृहस्थ जीवन में भी अनेक प्रकार की चिन्ताएं आदमी को सताती रहती हैं, जैसे- व्यापार में घाटा लग जाना, सन्तान का अनुकूल न होना, पति-पत्नी में से किसी एक का छोटी अवस्था में चले जाना, अन्य अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाना आदि, जब दोनों ओर कष्ट हैं तो मुझे कौन सा मार्ग स्वीकार करना चाहिए’?तभी दिमाग में एक बात बिजली-सी कौंध गई कि कष्ट तो दोनों तरफ हैं, जहां साधु जीवन के कष्ट मुझे मोक्ष की ओर ले जाने वाले होंगे, वहीं गृहस्थ-जीवन के कष्ट मुझे अधोगति की ओर ले जा सकते हैं, यदि मैं जागरूकतापूर्वक संयम का पालन करâंगा तो मुझे पन्द्रह भवों में मुक्ति मिल जाएगी।’ बस, भीतर में जल उठे इस चिन्तन के दीप ने मोहन को साधु बनने के लिए कृतसंकल्प बना दिया, उसने वहीं बैठे-बैठे जीवन-पर्यन्त शादी करने तक का त्याग कर लिया।आज्ञा प्राप्ति के प्रयत्न : मनुष्य के जीवन में ज्वारभाटा जैसा उतार-चढ़ाव आता रहता है जो व्यक्ति ज्वर को पकड़ लेता है, वह सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच जाता है और जो चूक जाता है, वह भाटे के दलदल में फंस जाता है। मोहन ने अपने भीतर उठते ज्वार को पकड़ा और सौभाग्य की ड्योढी पर पहुंच गया। मोहन ने जीवन में भावुकता में बहकर कोई निर्णय नहीं लिया। बहुत चिन्तन-मनन के बाद उसने अपने जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया कि मुझे साधु बनना है।तेरापंथ की दीक्षा मात्र स्वयं की इच्छा से ही नहीं हो सकती, परिवार की स्वीकृति भी अनिवार्य होती है। मोहन ने स्वीकृति-प्राप्ति के लिए प्रयास प्रारंभ किया। पिताश्री झूमरमलजी दूगड़ का तो स्वर्गवास हो चुका था। मोहन ने मां से कहा- ‘माँ! मुझे दीक्षा लेनी है इसलिए आपकी आज्ञा चाहिए।’माँ ने कहा- ‘मोहन! मैं इस बारे में कुछ नहीं कहूंगी, सुजानमल जो कहेगा, वही होगा।’उस समय श्री सुजानमलजी दूगड़ परिवार के मुखिया एवं संरक्षक थे, वे एक समझदार, निर्णयक्षम और प्रामाणिकतानिष्ठ व्यक्ति थे। परिवार में उनका अच्छा अनुशासन था, उस समय सुजानमलजी जोरहाट गए हुए थे, मोहन ने उनके नाम एक लम्बा-चौड़ा पत्र लिखा, जिसमें दीक्षा के लिए अनुमति मांगी गई। सुजानमलजी ने प्रत्युत्तर में लिखा – ‘दिक्षा के बारे में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, सरदारशहर आने पर ही बात हो सकेगी।’ मार्गशीर्ष महीने में वे सरदारशहर आए। घर में दीक्षा के संदर्भ में बात हुई, तब सुजानमलजी ने साफ इनकार कर दिया, जब मोहन को स्वीकृति नहीं मिली तो उसने अनुमति नहीं मिलने तक तीव्र द्रव्य से अधिक खाने का त्याग कर दिया, यह क्रम कई दिनों तक चला किन्तु आज्ञा नहीं मिली, तब एक दिन मोहन ने साहस बटोरकर कहा – ‘भाईजी! यदि आप मुझे दीक्षा के लिए स्वीकृति नहीं देंगे तो मैं आपके घर में नहीं रहूंगा।’सुजानमलजी – ‘घर से बाहर जाने पर भी तुम्हें दीक्षा तो मिलेगी नहीं।’मोहन – ‘कोई बात नहीं।’सुजानमलजी – ‘फिर तू खाना कहां खाएगा?’मोहन – ‘मैं घरों से मांग-मांगकर भोजन कर लूंगा किन्तु आपके घर में नहीं रहूंगा।’यह कहकर मोहन घर से चला गया, उसके जाने के बाद माँ ने कहा- ‘सुजान! कहीं भावावेश में आकर मोहन कोई गलत काम कर लेगा तो हमेशा के लिए हमारी आंखों से ओझल हो जाएगा, इससे तो अच्छा है कि तुम उसे दीक्षा की आज्ञा दे दो ताकि वह हमारी आंखों के सामने तो रहेगा।’विनीत पुत्र ने मां की आज्ञा को शिरोधार्य किया, जब सायंकाल सूर्यास्त से कुछ समय पहले मोहन अपनी पुस्तकें, आसन आदि लेने के लिए घर आया तब मां ने कहा – ‘मोहन! ऐसा करने से दीक्षा की आज्ञा नहीं मिलेगी। पहले खाना खा लो फिर भाईजी से अच्छी तरह बात कर लेना।’ मोहन ने भी माँ की आज्ञा को शिरोधार्य किया। खाना खाने के बाद भाईजी से बातचीत की। भाईजी ने कहा -‘आषाढ़ महीने के बाद जब तुम्हारी इच्छा हो, मैं दीक्षा दिलवाने के लिए तैयार हूं।’ मोहन को आज्ञा मिल गई। मां की आज्ञा तो भाईजी की अनुमति में ही निहित थी। उस दिन मोहन की प्रसन्नता का कोई पार नहीं था। वह तत्काल मुनिश्री के पास गया और सारी बात निवेदित की, उन दिनों मोहन ने पूज्य गुरूदेव तुलसी को एक पत्र लिखा, वह अविकल रूप में इस प्रकार है-परमपूज्य परमपिता मेरे ह्य्दयदेव युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के चरणों में कोटि-कोटि वन्दना।गुरूदेव!पहली म्हारा भाईजी दीक्षा लेणै वास्तै मनै स्वीकृति कोनी दी, अब आपकी कृपा तथा सन्तां की प्रेरणा स्यूं मां और भाईजी कुछ महीना ठहरकर दीक्षा लेणै की स्वीकृति दे दी।गुरूदेव! मैं आपकी कृपा स्यूं तथा मुनिश्री सोहनलालजी की कृपा तथा मेहनत स्यूं इण चौमासै में कई थोकड़ा सीख्या हूं, जिकामें-पाना कर चरचा, तेरहद्वार, लघुदण्डक, गतागत, बावनबोल, बासठियो, अल्पाबोहत, विचारबोध, जैन तत्त्व प्रदेश (प्रथम भाग), कर्म प्रकृति पहली सीखी हूँ।गुरूदेव! आपवैâ श्री चरणां में म्हारी आ ही प्रार्थना है कि बीच का चार-पांच महीना ८की म्हारै अन्तराय है, आ पूरी हुंता ही गुरूदेव मनै जल्दी स्यूं जल्दी दीक्षा दिरासी।आपका सुविनीतशिष्य मोहनप्रसंगोपात्त एक दिन : मुनिश्री सुमेरमलजी ने दीक्षा का मुहूर्त्त देखा और वैशाख महीना श्रेष्ठ बताया, किन्तु भाईजी की स्वीकृति तो आषाढ़ महीने के बाद के लिए प्राप्त थी। मुनिश्री ने उनसे कहा- आपको दीक्षा तो देनी ही है फिर आषाढ़ के बाद दें या वैशाख में दें, क्या फर्क पड़ेगा? मात्र दो-तीन महीनों के लिए अच्छे मुहूर्त्त को क्यों टाला जाए? तब सुजानमलजी ने कहा – ‘गुरूदेव और आप जब उचित समझें, इसको दीक्षा दे सकते हैं, मेरी ओर से स्वीकृति है।’मोहन के साथ हीरालाल बैद, बजरंग बरडिया और तेजकरण दूगड़ भी वैरागी थे। मोहनलाल और हीरालाल को तो परिवार की ओर से अनुमति मिल गई किन्तु बजरंग और तेजकरण को पारिवारिक स्वीकृति नहीं मिली, वे साधु तो नहीं बने किन्तु आज वे अच्छे श्रावक अवश्य हैं।इस दौरान मोहन का परीक्षण भी किया गया परन्तु वह हर परीक्षा में स्वर्ण की भांति खरा उतरा। उस समय गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत-भवन, दिल्ली में था। मर्यादा-महोत्सव का अवसर था, मोहन अपने परिवार के साथ गुरूदर्शन के लिए दिल्ली पहुंचा।वि.सं. २०३० माघ शुक्ला अष्टमी को प्रवचन के समय उसने एक वक्तव्य दिया, वह इस प्रकार है-अपनी बात : ‘परमाराध्य प्रात: स्मरणीय ह्य्दयसम्राट युगप्रधान आचार्यश्री के श्रीचरणों में कोटी-कोटी वन्दना!उपस्थित साधु-साध्वीवृंद! बुजुर्गों! माताओं!आप लोग सोच रहे होंगे यह बच्चा क्यों खड़ा हुआ है? क्या कहने जा रहा है और क्या चाहता है? मेरी चाह भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। मेरा कथन उपदेश नहीं, निवेदन है। प्रार्थना है वह भी किसी भौतिक वस्तु के लिए नहीं, चारित्र के लिए है। साधु बनने की आकांक्षा मन में लेकर ही मैं आज यहां खड़ा हुआ हूं। आप लोग सोच रहे होंगे कि यह बच्चा है, यह साधुत्व को क्या समझेगा? जब मैं ऐसी बात किसी से सुनता हूं तो मुझे उसकी बुद्धि पर तरस आता है, ह्य्दय करूणा से भर जाता है। सोचता हूं इन लोगों ने धर्म को समझा या नहीं, आत्मा को जाना या नहीं। अगर जाना है तो केवल मेरे शरीर से ही मेरा अंकन क्यों करते हैं? साधुत्व आत्मा की वस्तु है या शरीर की? याद रखें, धर्म आत्मा की वस्तु है, क्या मेरी आत्मा आपसे छोटी है? क्या कोई आत्मवादी ऐसा कह सकता है? शरीर से ही जो व्यक्ति छोटे-बड़े का अंकन करते हैं वे केवल हाड़-मांस और चमड़ी देखने वाले हैं।एक कहानी मुझे याद आती है, जो मैंने सन्तों से ही सुनी है।अष्टावक्रजी को आत्मचर्या के लिए राज्यसभा से निमंत्रण मिला। निश्चित समय पर अष्टावक्रजी राज्यसभा में पहुंचे, सभाभवन पण्डितों से भरा हुआ था, ज्योंही अष्टावक्रजी ने सभाभव्ान में प्रवेश किया, पण्डित लोग उनके शरीर को देखकर खिलखिलाकर हंस पड़े। आठ जगह से उनका शरीर टेढ़ा-मेढ़ा था। सारा भवन हंसी से गूंज उठा। अष्टावक्रजी ने राजा से कहा- ‘राजन्! यहां पण्डित कौन है? ये सब तो चमार ही चमार हैं, किससे चर्चा करूं?’विस्मितमना राजा ने कहा -‘अष्टावक्र! ऐसे वैâसे बोल रहे हो? देखो, सब सामने पण्डित ही पण्डित बैठे हैं।’ अष्टावक्र- ‘पण्डित कहां है राजन्! पण्डित लोग आत्म चर्चा में लीन रहते हैं और चमार लोग चमड़ी तथा हड्डियों की परिक्षा में लीन रहते हैं, ये सब मेरे शरीर को देखकर हंस रहे हैं इसलिए पंडित कहां हैं? हंसने वाले पण्डितों पर चपत-सी लग गई।अब आपसे ही पूछूं -‘जो मेरे को छोटा बतलाते हैं, उन्हें क्या कहूं? आप सोचते होंगे, यह साधुत्व के नियम वैâसे निभाएगा? अतिमुक्तक मुनि ने वैâसे निभाया था? गजसुकुमाल मुनि ने वैâसे कष्ट सहे? परीषह आत्मबल से ही सहा जाता है।’अस्तु, पूज्य गुरूदेव! मेरी ओर ध्यान दें, इस बच्चे का भविष्य आपकी दृष्टि पर निर्भर है, कृपा करके प्रतिक्रमण सीखने का आदेश तो अभी फरमाएं।प्रवचन के दौरान पूज्य गुरूदेव ने मोहन से ऐसे प्रश्न पूछे-‘बोलो वैरागीजी! आश्रव किसे कहते हैं?’ प्रवचन-संपन्नता के बाद गुरूदेव अणुव्रत-भवन में ऊपर पधार रहे थे, प्रथम मंजिल की सीढ़ियों के बीच पूज्यप्रवर कुछ क्षण रूके और वहीं मोहन को प्रतिक्रमण सीखने का आदेश फरमा दिया। मोहन का रोम-रोम खिल उठा, वह अपने परिवार के साथ पुन: सरदारशहर आ गया।दीक्षा दिल्ली में या सरदारशहर में : प्रतिक्रमण आदेश के बाद पूज्यप्रवर ने चिन्तन किया कि दीक्षा कहां हो, दिल्ली में या सरदारशहर में? उन दिनों ट्रेनों की हड़ताल चल रही थी और मोहन की अवस्था भी छोटी थी। मात्र बारह वर्ष के बालक की दीक्षा दिल्ली शहर में होना आलोचना का विषय बन सकता था। मोहन के परिवार की भी यही इच्छा थी कि दीक्षा सरदारशहर में ही हो, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आचार्यवर ने फरमाया – ‘मोहनलाल और हीरालाल की दीक्षा वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सरदारशहर में ही शिष्य मुनि सुमेर (लाडनूं) के सानिध्य में हो सकेगी।दीक्षा-तिथि की घोषणा के बाद घर में मोहन का विशेष ध्यान रखा जाता, उसकी इच्छापूर्ति का प्रयास किया जाता। मोहन की मौसी श्रीमती झूमादेवी नखत कोलकाता में रहती थी, वह मोहन के लिए घड़ी लेकर आई। मोहन को घड़ी का बहुत शौक था, वह अपने हाथ पर घड़ी बांधकर सबको बार-बार दिखाता, उस समय तक बच्चों के हाथ पर घड़ी बंधी हुई बहुत कम देखने को मिलती थी। दीक्षा के बाद भी कई दिनों तक घड़ी देखने के लिए मोहन अपने हाथ को देखता, फिर याद आता कि अब मैं साधु बन गया हूँ।सौभाग्य की सौगात : वि.सं. २०३१ वैशाख शुक्ला चतुवर्दशी (५ मई १९७४) का सुप्रभात मोहन के लिए सौभाग्य की सौगात लेकर आया, वह प्रात: लगभग चार बजे ही मुनिश्री के पास पहुंच गया। मुनिश्री ने फरमाया- ‘मोहन! आज इतनी जल्दी आ गया?’ मोहन ने कहा – ‘मुनिप्रवर! आज तो मेरे लिए सोने का सूरज उगा है, मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि आज मुझे आपके करकमलों से दीक्षित होने का सुअवसर मिलेगा।’गधैयाजी का नोहरा! हजारों लोगों की उपस्थिति। लम्बे व भव्य जुलूस के साथ दोनों वैरागी श्री समवसरण में पहुंचे, अनेक लोगों ने उनके भावी जीवन के प्रति मंगल भावनाएं व्यक्त कीं। मोहन के ज्येष्ठ भ्राता अमरचन्दजी दूगड़ ने आज्ञा पत्र का वाचन किया। मोहन ने भी छोटा-सा वक्तव्य दिया। कार्यक्रम के दौरान गुरूदेव तुलसी द्वारा प्रदत्त संदेश का वाचन किया गया, उसका कुछ अंश इस प्रकार है-‘जैन मुनि की चर्या कठिन है, यह बात सही है। तेरापंथी जैन मुनियों की चर्या और अधिक कठिन है, इस चर्या में पांच महाव्रतों की स्वीकृति के साथ जीवनभर गुरू के चरणों में समर्पित रहना, प्रत्येक काम उनके निर्देश से करना, संघीय व्यवस्थाओं का ह्य्दय से पालन करना आदि ऐसे विधान हैं जो व्यक्ति को चारों ओर से थाम लेते हैं, फिर भी उसमें रम जाने के बाद वे कठिनाइयां सहज बन जाती हैं, आनन्दप्रद लगने लगती हैं।भविष्यवाणी रेखाशास्त्री की:दीक्षा से कुछ दिन पूर्व सरदारशहर के कार्यकर्ता रेखाशास्त्री अध्यापक छगनजी मिश्रा को मुनिश्री सुमेरमलजी के पास लेकर आए, उन्होंने मुनिश्री के हाथ और पैर की रेखाएं देखीं और कहा- आप दो बालकों को छह महीने के भीतर-भीतर दीक्षा देंगे, उसी समय उन्होंने मोहन के भी हाथ व पैर की रेखाएं देखीं और कहा- यह बालक आपकी (मुनिश्री की) विद्यमानता में ही धर्मसंघ में सर्वोपरि स्थान प्राप्त करेगा, दोनों ही भविष्यवाणी शत प्रतिशत सच हो गई।विलक्षण मेधा:जिस दिन दीक्षा स्वीकार की उसी दिन उन्होंने ‘दसवेआलियं सूत्र’ कंठस्थ करना प्रारंभ कर दिया, ‘सात सौ अनुष्टुप श्लोक प्रमाण दसवेआलियं’ सूत्र को मात्र चालीस दिनों में अर्थसहित कंठस्थ कर लिया।मुनि मुदितकुमारजी का प्रथम चतुर्मास सरदारशहर में हुआ, उस चातुर्मास में उन्होंने कुछ दिनों तक उपदेश प्राक वक्तव्य दिया, उनका प्रथम उपदेश दसवें आलियं सूत्र के प्रथम अध्ययन ‘दुमपुप्फिया’ पर आधारित था।दीक्षा के कुछ दिनों बाद ही सरदारशहर के प्रबुद्ध प्रशिक्षक श्रावक श्री भंवरलालजी बैद से मुनि हेमंतकुमारजी और मुनि मुदितकुमारजी ने अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया। मात्र ६ महीनों में ही मुनिद्वय की प्रबुद्धता से बहुत प्रभावित हुए, उन्होंने अनेक बार मुनिश्री सुमेरमलजी से कहा- इतने ग्रहणशील विद्यार्थी मुझे पहली बार मिले हैं, श्री भंवरलालजी तेरापंथ धर्मसंघ के श्रद्धानिष्ठ और समर्पित श्रावक थे, वे अंग्रेजी और संस्कृत भाषा के अधिकृत विद्वान, कुशल अध्यापक, आयुर्वेद के ज्ञाता एवं चिकित्सक भी थे।ज्ञान और साधना:दीक्षा के बाद तीसरा चातुर्मास गुरूदेव तुलसी के साथ सरदारशहर में किया, उस समय वे संघ परामर्शक मुनिश्री मधुकरजी के साथ ग्रुप में रहे फिर चौथा एवं पांचवां चातुर्मास मुनिश्री रूपचंदजी सरदारशहर के साथ जयपुर और दिल्ली में किया, इन २ चातुर्मासों में मुनिश्री रूपचंदजी की प्रेरणा व मुनिश्री मानककुमारजी के श्रम से मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा का अच्छा अध्ययन किया, इससे पूर्व मुनिश्री सुमेरमलजी उन्हें संस्कृत साहित्य पढ़ाते। पण्डित रामकुमारजी संस्कृत व्याकरण कालुकौमुदी की साधनिका कराते, कुछ ही वर्षों में उन्होंने संस्कृत भाषा का गंभीर अध्ययन कर लिया, वे संस्कृत में धाराप्रवाह बोलने लगे और लिखने भी लगे। अध्ययनकाल के दौरान मुनि मुदितकुमारजी ने संस्कृत भाषा में कुछ कहानियां लिखीं, जिन्हें आज हम ‘शेमुषी’ नामक ग्रंथ में पढ़ सकते हैं।एक महत्वपूर्ण साहसिक निर्णय मुनि मुदितकुमारजी पूज्यप्रवर के मार्गदर्शन में निरंतर गति-प्रगति करते रहे, उनकी प्रज्ञा की पारदर्शिता निखरती गई, वे हर क्षेत्र में आगे बढ़ते गए, साधना के पथ में आने वाली कठिनाइयों को साहस के साथ झेलते गए और सफलता के परचम फहराते गए। सचमुच,मुश्किल-भरे दिनों में जिसका साहस बरकरार रहता है, वही व्यक्ति कुछ कर गुजरने की काबिलियत रखता है। सन् १९७९ का प्रसंग है, मुनि मुदितकुमारजी, मुनिश्री रूपचंदजी के साथ अशोक विहार दिल्ली में प्रवास कर रहे थे, उस समय युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ का भी अणुव्रत भवन, दिल्ली में प्रवास हो रहा था। एक दिन अपराह्न में मुनिश्री रूपचंदजी ने मुनि मुदितकुमारजी से कहा -मैं इस संघ से अलग होने जा रहा हूँ, तुम अपना चिंतन कर लो कि तुम्हें कहां रहना है? हमारे साथ चलना है या यहीं (संघ में) रहना है।बालमुनि मुदितकुमारजी ने तत्काल कहा- ‘मैं तो संघ में ही रहूँगा’ मुनिश्री रूपचंदजी ने बड़ी शालीनता के साथ कहा- ‘तुम चिंता मत करना’ हम तुम्हें युवाचार्यश्री के पास पहुंचा देंगे, दूसरे दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत अशोक विहार से विहार कर सी.सी. कॉलोनी आए, उधर युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ सुजानगढ़ और मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी (मुंबई) को मुनि मुदितकुमारजी के पास भेजा, अगले दिन मुनिश्री रूपचंदजी आदि संत सदर बाजार में सुराणा धर्मशाला में प्रवास कर रहे थे, उस दिन दैनिक पत्र में खबर आई कि मुनि रूपचंदजी ने तेरापंथ संघ से त्यागपत्र दे दिया। मुनि रूपचंदजी और मुनि मानककुमारजी संघ से अलग हो गए। मुनि अशोककुमारजी (बैंगलोर) कुछ दिन पहले ही अलग हो चुके थे, तब मुनिश्री सुमेरमलजी ‘सुदर्शन’ मुनि मुदितकुमारजी आए और पूछा- ‘मूनि रूपचंदजी आदि दोनों संत संघ से अलग हो गए हैं अब तुम्हारी क्या इच्छा है? बालमुनि ने कहा- ‘‘मैं तो संघ में ही रहूंगा’’।कृतज्ञता ज्ञापन और खमतखामणा के बाद मुनि मुदितकुमारजी ने मुनिश्री सुमेरमलजी के साथ वहां से प्रस्थान कर दिया। मध्याह्न में वे अणुव्रत भवन पहुंच गए, जहां युवाचार्यवर विराजमान थे। मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी ने निवेदन किया- ‘युवाचार्यश्री!’ मुदित मुनि ने अच्छा परिचय दिया है। युवाचार्यप्रवर ने फरमाया- ‘यह तो मुझे विश्वास ही था’ उन दिनों गुरूदेव तुलसी पंजाब में प्रवास कर रहे थे।वहां से भी एक संदेश आया, उसमें लिखा था- ‘मुनि मुदितकुमार ने जो शासनभक्ति का परिचय दिया है, उससे मैं गदगद हूँ।’ उसके अध्ययन और साधना की समुचित व्यवस्था की जाए, सचमुच जिस समूह में चार सदस्य हों और चारों में परस्पर अच्छा सामंजस्य और सौहार्द हो, उस समूह के मुखिया सहित तीन सदस्यों का निर्णय एक हो और सबसे छोटे ‘चौथे’ सदस्य का निर्णय भिन्न हो तो बहुत कठिनाई हो सकती है किन्तु मुनि मुदितकुमारजी ने साहस, धैर्य और विजन के साथ अपने भविष्य का निर्णय लिया।सच है, प्रवाह के विपरीत बहना संघर्ष और खतरों से खाली नहीं होता किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि कोई साहसिक कदम ही प्रतिस्त्रोतगामी बन सकता है। मुनि मुदितकुमारजी की संघनिष्ठा ने आचार्यश्री तुलसी और युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के मन में एक नया विश्वास जगा दिया। बालमुनि के इस निर्णय ने पूज्यवरों के दिल में एक अमिट छाप छोड़ दी, उस समय आपकी उम्र मात्र सत्रह वर्ष थी किंतु पूज्यप्रवरों की पारखी आंखें आप में तेरापंथ का शुभ भविष्य देखने लगी।३० अगस्त २००१ को स्वयं आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा –‘सन १९७९ में मैं दिल्ली में था, उस समय हमारे संघ के कुछ साधु पृथक हो गए, ये (महाश्रमण) पृथक होने वाले साधुओं के साथ थे पर इन्होंने अपना स्पष्ट निर्णय दिया कि मुझे तो संघ में ही रहना है, उस घटना ने मुझे पहली बार आकृष्ट किया, मैंने बाद में गुरूदेव से निवेदन किया कि इतनी छोटी अवस्था में भी इनमें जो संघनिष्ठा, आचारनिष्ठा है, वह उल्लेखनीय है। हमें इनकी ओर ध्यान देना चाहिए, उसके बाद तो मेरे और गुरूदेव के बीच इनको लेकर बातचीत होती रहती, धीरे-धीरे हर संघीय कार्य से भी जोड़ लिया गया।सेवा का सुअवसर वि. सं. २०४१ ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी (१३ मई १९८४) को लाडनूं में गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी से पूछा- तुम क्या काम कर सकते हो?’ मुनि मुदितकुमारजी- जो गुरूदेव फरमाएंगे।गुरूदेव तुलसी- आज तक हारी पंचमी समिति की पात्री मुनि मधुकरजी रखते थे, अब से तुम रखा करो।इस निर्देश के साथ ही मुनि मुदितकुमारजी गुरूदेव तुलसी की व्यक्तिगत सेवा में निुयुक्त हो गए, तेरापंथ धर्मसंघ में इस नियुक्ति का विशेष महत्व है, इससे अनायास ही निकटता से गुरूसेवा का अलभ्य अवसर प्राप्त हो जाता है।लगभग बारह वर्षों तक मुनि मुदितकुमारजी को पूज्यवर की पात्र-वहन सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इस दायित्व का उन्होंने बड़े अहोभाव व जागरूकता के साथ निर्वाह किया, उस दिन से वे स्थायी रूप से गुरूकुलवासी बन गए।अंतरंग सहयोगी:वि.सं. २०४२ माघ शुक्ला सप्तमी (१६ फरवरी १९८६) मर्यादा-महोत्सव का अवसर, उदयपुर का विशाल प्रवचन पण्डाल, गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ के अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करते हुए कहा- ‘संघ’ में बहुआयामी प्रवृत्तियों को देखकर लगता है कि हमारे युवाचार्य महाप्रज्ञ को भी किसी सहयोगी की अपेक्षा है इसलिए आज मैं मुनि मुदित को अंतरंग सहयोगी के रूप में नियुक्त करता हूँ इस नियुक्ति के साथ ही वे संघ के व्यवस्था पक्ष से जुड़ गए, दायित्व बढ़ गया और कार्यक्षेत्र भी विस्तृत हो गया, इससे पूर्व मात्र आत्मकेंद्रित थे, अपने आपमें मस्त थे, व्यस्त थे, अंतरंग सहयोगी बनने के बाद आपकी सोच का दायरा बहुत विशाल हो गया, सबके विकास के बारे में सोचने लगे, व्यक्तित्व उभरकर सामने आने लगा।साझपति:वि. सं. २०४३, वैशाख शुक्ला चतुर्थी (२३ मई १९८६) की रात्रि ब्यावर का तेरापंथ भवन, गुरूदेव तुलसी ने साधु सभा के मध्य मुनि मुदितकुमारजी को साझपति (ग्रुप लीडर) बनाया। मुनि ऋषभकुमारजी को सहयोगी के रूप में तथा शैक्षमुनि धर्मेशकुमारजी को आपके संरक्षण में रखा गया।अनौत्सुक्य का दिग्दर्शन:सन् १९८७ का प्रसंग, पूज्य गुरूदेव तुलसी का प्रवास अणुव्रत भवन, दिल्ली में हो रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पूज्यप्रवर से मिलने आए, प्राय: सभी संत उन्हें देखने और सुनने के लिए एकत्रित हो गए किंतु मुनि मुदितकुमारजी अपने कक्ष में अनौत्सुक्य भाव से कार्य करते रहे।महाश्रमणवि.सं. २०४६ भाद्रपद शुक्ला नवमी (६ सितम्बर १९८९)।योगक्षेम वर्ष का आयोजन। लाडनूं, जैनविश्वभारती में सुधर्मा सभा का प्रांगण। गुरूदेव तुलसी का ५४वॉ पदारोहण दिवस। उल्लासमय वातावरण में चतुर्विध धर्मसंघ अपने आराध्य को वर्धापित कर रहा था, अचानक आचार्यवर ने अपने पट्टोत्सव को नया मोड़ देते हुए कहा-तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक विलक्षण कार्य हुए हैं, उनके विलक्षणताओं में मैं एक और नया कार्य करना चाहता हूँ। आज मैं मुनि मुदित को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ, यह पद धर्मसंघ में कार्यकारी, नए दायित्वों से परिपूर्ण और चिरंजीवी रहेगा, इस घोषणा के पश्चात आचार्यवर ने मुनि मुदितकुमारजी को नियुक्ति पत्र प्रदान किया।भाषा इस प्रकार रही:अध्यात्मनिष्ठा, साधना, शिक्षा, सेवा, विनम्रता, संघनिष्ठा, गंभीरता आदि विशेषताओं को ध्यान में रखकर मैं मुनि मुदितकुमार को ‘महाश्रमण’ के पद पर नियुक्त करता हूँ। धर्मसंघ में युवाचार्य के बाद इसका स्थान रहेगा। यह युवाचार्य के कार्य में सतत सहयोगी रहेगा। युवाचार्य की तरह साध्वियों, समणियों को पढ़ाना इसके कार्यक्षेत्र में रहेगा। आहार- पानी समुच्चय में होगा। सब प्रकार के विभागीय कार्यों तथा संघीय बोझ की पाती से मुक्त रहेगा।युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने नव मनोनीत महाश्रमण को शुभाशीष देते हुए कहा- महाश्रमण आचार्यवर का इतना विश्वास प्राप्त कर सका, मेरे मन को भी जीत सका और हमारी सन्निधि प्राप्त कर सका, उसके लिए मैं शुभाशंसा करता हूँ कि वह इस कार्य के लिए अपनी अर्हता और ओजस्विता को और अधिक प्रकट करे तथा धर्मसंघ की अधिकाधिक सेवा करे।महाश्रमण बनने के बाद युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ के हर कार्य में सहयोगी बन गए। चाहे चिन्तन गोष्ठियां हों या अन्य कोई कार्य, सबमें आपकी सहभागिता रहने लगी। प्राय: हर कार्यों में आपकी उपस्थिति अनिवार्य सी प्रतीत होने लगी।क्या हम ही करते रहेंगेसामान्यत: साध्वियों-समणियों का अध्यापनकार्य आचार्य/युवाचार्य ही करते हैं किंतु महाश्रमण की नियुक्ति के बाद यह कार्य भी आपके ही जिम्मे आ गया। एक दिन गुरूदेव तुलसी ने महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी को समणियों एवं मुमुक्षु बहनों को उच्चारण शुद्धि की दृष्टि से विशेष प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया। निवेदन किया। – गुरूदेव! यह कार्य आपश्री की सन्निधि में ही चले तो ठीक रहेगा, गुरूदेव ने कहा- क्या हमेशा हम ही करते रहेंगे। आगे तो तुम्हें ही करना है इसलिए तुम ही उन्हें अभ्यास कराओ।एक प्रयोग, एक परीक्षण:महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी प्रारंभ से ही आत्मकेन्द्रित थे किंतु जब आप महाश्रमण बन गए और शास्ता की निगाहें शुभ भविष्य देखने लगीं, उस स्थिति में यह आवश्यक हो गया कि आपका सम्पर्क क्षेत्र व्यापक बने। जनता महाश्रमणजी की क्षमता से परिचित हो और महाश्रमणजी को भी कुछ सीखने, समझने और जानने का अवसर प्राप्त हो, इन कई बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए गुरूदेव तुलसी ने आपको स्वतंत्र यात्रा कराने पर विचार किया।यात्रा मुनि जीवन का एक अभिन्न अंग होता है, एक जैन मुनि चातुर्मास के अतिरिक्त आठ महीनों तक प्राय: भ्रमणशील रहता है, यात्राएं करता है, इससे धर्म प्रभावना तथा संघ प्रभावना होती है और व्यक्तिगत अनुभव और जनसंपर्क भी बढ़ता है। महाश्रमण बनने के बाद गुरूदेव तुलसी ने आपको अपनी जन्मभूमि सरदारशहर की यात्रा करने का निर्देश दिया।महाश्रमण पर्याय की, वह उनकी प्रथम स्वतंत्र यात्रा थी। लगभग अड़तालीस दिनों की प्रभावशाली यात्रा संपन्न कर उन्होंने छोटी खाटू में गुरूदेव के दर्शन किए। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने उनकी अगवानी की और स्वयं आचार्यवर ने पट्ट से नीचे उतरकर उनको अपने हृदय से लगा लिया। अपने योग्य शिष्य की सार्थक और सफल यात्रा से पूज्यप्रवर बहुत प्रसन्न थे।कार्यक्रम के दौरान युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने कहा ‘आचार्यश्री’ महाज्योति हैं, उनकी एक रश्मि, एक किरण कुछ समय के लिए गई और आज पुन: मिल गई। आचार्यवर बहुत दूरदर्शी हैं, उनके हर कार्य के पीछे एक विशेष चिन्तन होता है, इस यात्रा के पीछे भी उनका एक उद्देश्य था।गुरूदेव तुलसी ने कहा-महाश्रमण मुनि मुदितकुमार थली संभाग में अपनी सात सप्ताह की यात्रा सम्पन्न कर खाटु पहुंच गया, उसे विशेष रूप से सरदारशहर के लिए भेजा गया था, आज वापिस आ गया। महाश्रमण का महत्व बढ़ा है, बढ़ाया गया है, किसी को अखरा नहीं, सबने हमारी परख को सराहा है, यात्रा एक दर्पण है, इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व का चित्र सामने आ जाता है। सरदारशहर के लोग तो इस यात्रा से महाश्रमण को स्वयं अपने आपको समझने-समझाने का मौका मिला और मुझे भी इसे निरखने-परखने का अवसर मिला।पुन: महाश्रमण पद परवि.स. २०५१ माघ शुक्ला षष्ठी, ५ फरवरी १९९५ का दिन, दिल्ली में समायोजित आचार्य महाप्रज्ञ का पदाभिषेक समारोह, आचार्यश्री तुलसी ने नौ वर्ष पहले मुनि मुदितकुमारजी को युवाचार्य महाप्रज्ञ का अंतरंग सहयोगी बनाया और लगभग साढ़े पांच वर्ष पहले महाश्रमण पद पर प्रतिष्ठित किया, चूंकि अब युवाचार्य महाप्रज्ञ आचार्य बन गए, इसलिए गणाधिपति गुरूदेव तुलसी ने मुनि मुदितकुमारजी को आचार्य महाप्रज्ञ...

तप और दान के प्रवाह का पर्व- अक्षय तृतीया 0

तप और दान के प्रवाह का पर्व- अक्षय तृतीया

ॐराघशुक्लतृतीयाया, दानमासीत् तदक्षयम्पर्वाक्षय तृतीयेति, ततोऽघापि प्रवर्ततेश्रेयांसोपज्ञमवनौ, दान-धर्म प्रवृत्तवान्स्वाम्युपेतमिवाऽ शेषव्यवहार नयक्रम: ‘अक्षय तृतीया’ का दिन महामंगलकारी होता है, इस दिन की महिमा मात्र जैनों में ही नहीं, अजैनों में भी है, वर्ष में कुछ दिन ऐसे हैं जो बिना पूछे मुहूर्त’ कहलाते हैं, वैशाख सुदी तीज की भी यही महिमा है, इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम दान धर्म का प्रारंभ इसी दिन से शुरु हुआ था। अक्षय तृतीया – यह ऐसा त्यौहार है, जिसका महात्म्य बहुत बड़ा और व्यापक है। हिंदू, वैदिक और जैन परंपराओं में ‘अक्षय तृतीया’ का महत्व बहुत ज्यादा माना गया है, यह जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि इस पर्व का नाम ‘अक्षय तृतीया’ क्यों पड़ा? अ-क्षय, मतलब, जिसका क्षय नहीं, अर्थात हर हाल में यथावत। वैशाख मास की इस तृतीया का कभीक्षय’ नहीं होता, इसीलिए इसे ‘अक्षय तृतीया’ कहा गया है। भारतीय ज्योतिष शास्त्रानुसार तिथियाँ चंद्रमा और नक्षत्रों की गतिनुसार बनती है, जैसे चंद्रमा की कला घटती-बढ़ती है वैसे तिथियाँ भी घटती-बढ़ती है, एकम से लेकर अमावस्या, पुनम आदि सभी तिथियों में घटबढ़ी चलती रहती है, किंतु वैशाख सुदी ३ याने आखा तीज की तिथि हजारों वर्षों में क्षय तिथि नहीं बनी, यह कभी नहीं घट-बढ़ी, इसलिये इसे अक्षय तिथि कहा गया है, इसे आखा तीज भी कहा जाता है। वैदिक परम्परा में कहा जाता है कि ऋषि जमदग्नि के पुत्र, परम बलशाली परशुरामजी का जन्म आखा तीज के दिन हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि सतयुग का प्रारम्भ भी इसी दिन हुआ था, इसलिये यह युगादि तिथि भी है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से ‘आखा तीज’ पर्व की विशेषता पूछी तो उन्होंने बतलाया – वैशाख शुक्ल तृतीय के पूर्वाह्न में जो यज्ञ, दान, तप आदि पुण्य कार्य किये जाते हैं उनका फल अक्षय होता है, यह विश्वास है कि इस दिन का मुहुर्त सबसे श्रेष्ठ है, इसलिये विवाह,गृहप्रवेश, व्यापार आदि का शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन बहुत होता है। गाँवों में तो इस दिन सामुहिक विवाह होते हैं, कई जगह तो आज भी छोटे-छोटे बच्चों का विवाह कर दिया जाता है, इस दिन सोना खरीदना भी शुभ माना जाता है ताकि घर में लक्ष्मी माँ की कृपा बनी रहे, इस दिन वृंदावन में साल में एक बार बिहारीजी के चरणों के दर्शन होते हैं, इस दिन मंदिरों में बिहारीजी का चंदन श्रृंगार होता है। ‘अक्षय तृतीया’ को बद्रीनाथ धाम के द्वार भक्तों के लिये खुलते है, गंगा-स्नान का भी इस दिन बहुत महत्व है। जैन परम्परा में ‘अक्षय तृतीया’ के साथ अत्यंत महत्वपूर्ण घटना जुड़ी है, इसलिये जैनों में इस दिन का बहुत अधिक महत्व है। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का एक वर्ष के कठिन तप के बाद, इसी दिन श्रेयांसकुमार ने (जोकि प्रभु के पपौत्र थे) इक्षु (गन्ने) रस द्वारा पारणा करवाया था, इस तिथि को अक्षय पुण्य प्रदान करने वाली तिथि कहा जाता है। ‘अक्षय तृतीया’ को ‘दान और तप’ दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने के कारण ही यह ‘अक्षय’ बन गया। तीर्थंकर ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन बेला (दो उपवास) की तपस्या के साथ दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ अन्य ४००० व्यक्तियों ने भीदीक्षा अंगीकार की, इस तपस्या के साथ दो मुख्य बातें थी- अखण्ड मौन तथा पूर्ण निर्जल तप। अखण्ड मौन व्रत धारण कर भगवान ने चऊविहार बेला किया, उसके पश्चात विशेष अभिग्रह ग्रहण कर भिक्षा के लिए नगर में पधारे, परंतु कहीं भी शुध्द आहार नहीं मिलने के कारण ऋषभदेव नगर में भ्रमण करके वापस लौट गये और पुन: आगे का तप ग्रहण किया, इस तरह तप करते हुए १३ महीने और १० दिन व्यतीत हो गये, अंत में वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन प्रभु हस्तिनापुर पधारे, उस समय बाहुबलीके पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांसकुमार युवराज थे, उन्होंने उसी रात एक विचित्र स्वप्न देखा – `सोने के समान दीप्ति वाला सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का कांतिहीन सा हो रहा है, मैने अमृतकलश से उसे सींचकर पुन: दीप्तिमान बना दिया है’ उसी रात्रि में सुबुद्धि नाम के श्रेष्ठि ने सपना देखा सुरज से निकली हजारों किरणों को श्रेयांसकुमार ने पुन: सुर्य में स्थापित कर दिया, जिससे वह सुरज अत्याधिक चमकने लगा। उस रात सोमयश राजा ने भी स्वप्न देखाअनेक शत्रुओं के द्वारा घिरे हुए राजा ने श्रेयांस कुमार की सहायता से शत्रु राजा पर विजय प्राप्त कर ली’ स्वप्न के वास्तविक फल को तो कोई जान न सके परंतु सभी ने यही कयास लगाया कि इसके अनुसार आज श्रेयांसकुमार को विशेष लाभ प्राप्त होगा? राजकुमार श्रेयांस इस विचित्र सपने के अर्थ पर विचार करते हुए गवाक्ष में बैठे हुए थे, उसी समय में राजमार्ग पर प्रभु ऋषभदेव का आगमन हुआ, हजारों लोग उनके दर्शन हेतु विविध प्रकार की भेंट सामग्री लेकर आ रहे थे (लेकिन प्रभु के लिये उन भेटों का कोई महत्व नहीं था, वे तो त्यागी थे, शुध्द आहार की खोज में थे) जनता का कोलाहल, बढ़ती भीड़ और उन सबके आगे चलते प्रभु को देखकर श्रेयांसकुमार विचार में पड़ते हैं और सोचते आज क्या बात है, यह महामानव कौन आ रहा है, इस प्रकार का तपस्वी साधक मैंने पहले भी कहीं देखा है, उनकी स्मृतियाँ अतीत में उतरती हैं, चिन्तन की एकाग्रता बढ़ती है और उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है’ वह जान लेते हैं कि यह मेरे परदादा दीर्घ तपस्वी प्रभु आदेश्वर हैं और शुध्द भिक्षा के लिये इधर पधार रहे हैं, श्रेयांसकुमार महल से नीचे उतरते हैं और प्रभु को वंदन कर प्रार्थना करते हैपधारो प्रभु! पधारो’ उसी समय राजमहल में इक्षुरस से भरे १०८ घड़े आये थे, शुध्द और निर्दोष वस्तु और वैसी शुध्द भावना कुमार की, श्रेयांसकुमार इक्षुरस द्वारा प्रभु को पारणा करवाते हैं। उस समय देवों ने आकाश में देव दुंदभि बजाई, रत्नों की पंचवर्ण के पुष्पों की, गंधोदक की और दिव्य वस्त्रों की, सुगंधित जल की वृष्टी की। अहोदानं! अहोदानं की घोषणा हुयी। पांच दिव्यों की वर्षा हुई। जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका भी इस तरह एक साल का व्रत रखते हैं (१ दिन उपवास दूसरे दिन बियासणा) और आखा तीज के दिन गन्ने के रस द्वारा पारणा करते हैं, इस दिन रस पीना और मंदिर में गुड़ चढ़ाना शुभ माना जाता है। तप और दान की दिव्य महिमा से आज का दिन (याने आखा तीज) पवित्र हुआ। भगवान ऋषभदेव का प्रथम पारणाहोने से इस अवसर्पिणी काल में श्रमणों को भिक्षा देने की विधि का प्रथम ज्ञान देने वाले श्रेयांसकुमार हुए, सचमुच ऋषभदेव के समान उत्तम पात्र, इक्षु रस के समान उत्तम द्रव्य और श्रेयांसकुमार के भाव के समान उत्तम भाव का त्रिवेणी संगम होना अत्यंत ही दुर्लभ है। तप और दान की आराधना करने वाला अक्षय पद प्राप्त कर सकेगा, यही संदेश इस पर्व में छिपा है। जैनधर्म में मोक्ष प्राप्ति के चार मार्ग बताये गये हैं। दान, शील, तप और भाव।‘अक्षय तृतीया’ को दान और तप इन दोनों का अद्भुत संबंध जुड़ा होने केकारण यह अक्षय बन गया। विशेष: प्रभु ऋषभदेव के पहले भरत क्षेत्र में युगलिक काल था, इस वजह से लोगों में धर्म की प्रवृत्ति का अभाव था। युगलिक काल में सभी मनुष्य युगल (पुत्र-पुत्री) के रुप में पैदा होते थे, प्रभु के सौ पुत्र और दो पुत्रियां थी, जेष्ठ पुत्र को ७२ कलाएं सिखलायी थी, भरत ने भी अपने सभी भाईयों को ये कलाएं सिखलायी, दूसरे पुत्र बाहुबली को प्रभु ने हस्ति, अश्व, स्त्री और पुरुष के अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षणों का ज्ञान दिया। पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अट्ठारह लिपियां बतलायी और पुत्री सुंदरी को बायेंहाथ से गणित की शिक्षा दी, उनकी सारी मनोकामनाएँ कल्पवृक्ष के द्वारा पूर्ण हो जाती थी, सभी युगलिक भद्रिक परिणामी होने से देवगति प्राप्त करते थे, उस समय विवाह व्यवस्था नहीं थी। उस काल में सर्वप्रथम विवाह प्रभु ऋषभदेव का हुआ था। लग्न के विधि-विधान हेतु स्वयं इंद्र महाराजा उपस्थित थे। प्रभु ने न्याय नीति और व्यवहार धर्म की शिक्षा दी। अपना कल्प (आचार)समझकर प्रभु ने ही पुरुषों को ७२ कलाएं, स्त्रियों को ६४ कलाएं और सभी प्रकार के १०० शिल्प सिखाए थे, परंतु दान आदि धर्मों का बोध नहीं दिया था क्योंकि तारक तीर्थंकर को जब तक केवलज्ञान नहीं प्राप्त हो जाते, धर्म का बोध नहीं देते, असत्य भाषण की संभावना बनी रहती है, केवलज्ञान के पश्चात्प्र भु ने भरतक्षेत्र के जीवों को धर्म की शिक्षा दी। १८ कोडाकोडी सागरोपम से मोक्षमार्ग का जो द्वार बंद था, प्रभु ने उसे खोला, अत: उनका असीम उपकार हम सब पर है। अक्षय तृतीया जो इस वर्ष २२ अप्रैल २०२३ को है, उसका महत्व क्यों है?जानिए कुछ महत्वपुर्ण जानकारी.. आज ही के दिन मां गंगा का अवतरण धरती पर हुआ था। महर्षी परशुराम का जन्म आज ही के दिन हुआ था। मां अन्नपूर्णा का जन्म भी आज ही के दिन हुआ था। द्रोपदी को चीरहरण से कृष्ण ने आज ही के दिन बचाया था। कृष्ण और सुदामा का मिलन आज ही के दिन हुआ था। कुबेर को आज ही के दिन खजाना मिला था। सतयुग और त्रेता युग का प्रारम्भ आज ही के दिन हुआ था। ब्रह्मा जी के पुत्र अक्षय कुमार का अवतरण भी आज ही हुआ था। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल श्री बद्री नारायण जी का कपाट आज ही खोला जाता है। बृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में साल में केवल आज ही के दिन श्री विग्रहचरण के दर्शन होते हैं, अन्यथा साल भर वो वस्त्र से ढके रहते हैं। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था।‘अक्षय तृतीया’ अपने आप में स्वयं सिद्ध मुहूर्त है कोई भी शुभ कार्य का प्रारम्भकिया जा सकता है।

गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी 0

गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी

जन्मस्थान एवं माता-पिता-परिवार ‘श्रीराजेन्द्रसुरिरास’ एवं श्री राजेन्द्रगुणमंजरी के अनुसार, वर्तमान राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार के ओसवंशी श्रेष्ठि ऋषभदास रहते थे, आपकी धर्मपत्नी का नाम केशरबाई था, जिसे अपनी कुक्षि में श्री राजेन्द्र सुरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठि रुषभदास जी की तीन संतानें थीं, दो पुत्र : बड़े पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र का नाम रतनचन्द था एवं एक कन्या थी, जिसका नाम प्रेमा था, छोटा पुत्र रतनचन्द आगे चलकर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि नाम से प्रख्यात हुए। गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी वंश : पारेख परिवार की उत्पत्ति आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसुरि के अनुसार, वि.सं. ११९० में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसुरि महाराज के उपदेश से राठौड़ वंशीय राजा खरहत्थ ने जैन धर्म स्वीकार किया, उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह के पांच पुत्र थे, उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेड्नगर (वर्तमान आयड-उदयपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे, उन्होंने विदेशी व्यापारी के हीरे की परीक्षा करके बताया कि यह हीरा जिसके पास रहेगा, उसकी ध्Eाी मर जायेगी, ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासु जी के साथ ‘पारखी’ शब्द का अपभ्रंश ‘पारिख’ शब्द बना। पारिख पासुजी के वंशज वहाँ से मारवाड़, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार हेतु गये, उन्हीं में से दो भाइयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर आकर बस गया था, जन्म को लेकर ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य श्री के जन्म के पहले एक रात्रि में उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा कि एक तरुण व्यक्ति ने प्रोज्ज्वल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया – ‘गर्भाधानेड्थ साडद्क्षीत स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म’निकट के स्वप्नशाध्Eाी ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना बताया। गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरिश्वरजी जन्म समय – आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सुरी के अनुसार, वि.सं. १८८३ पौष सुदि सप्तमी, गुरुवार, तदनुसार ३ दिसम्बर सन् १८२७ को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवार ने मिलकर नवजात पुत्र का नाम ‘रत्नराज’ रखा। व्यावहारिक शिक्षा – आचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सुरी एवं मुनि गुलाबविजय के अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए, मेधावी रत्नराज ने केवल १० वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यावहारिक शिक्षा अर्जित की, साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन में प्रगति की। अल्प समय में ही प्रकरण और तात्विक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि बालक रत्नराज १३ वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं कला में प्रवीण हो गए, श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय विक्रम संवत् १८९३ में भरतपुर में अकाल पड़ने से कार्यवश माता-पिता के साथ आये रत्नराज का उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसुरि जी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ, उसी समय उन्होंने रत्नराज की योग्यता देखकर ऋषभदास जी ने रत्नराज की याचना की लेकिन ऋषभदास ने कहा कि अभी तो बालक है, आगे किसी अवसर पर, जब यह बड़ा होगा और उसकी भावना होगी, तब देखा जायेगा।’ यात्रा एवं विवाह विचार – जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ हेतु मांगलिक स्वरुप तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ – केशरियाजी तीर्थ की पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया, पहले भरतपुर से उदयपुर आये, वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की, तब रास्ते में पहाड़ियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया, उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की। साथ ही नवकार मंत्र के जाप के बल पर जयपुर के पास अंब ग्राम निवासी शेठ शोभागमलजी की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी, सभी के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पार्श्वनाथ एवं गोडवाड के पंचतीर्थों की यात्रा कर वापस भरतपुर आये। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि शेठ सोभागमलजा ने रत्नराज के द्वारा पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किये जाने के कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी, लेकिन वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया।

आचार्य श्री नानालालजी 0

आचार्य श्री नानालालजी

आचार्य श्री नानालालजी म. सा. की संक्षिप्त जीवनी अग्नि का छोटा-सा कण भी वृहत्काय घास के ढेर को क्षण भर में भस्मसात् कर देता है और अमृत का एक लघुकाय बिन्दु अथवा आज की भाषा में होम्योपैथिक की एक छोटी-सी पुड़िया भी अमूल्य जीवनदाता बन जाती है। हिरोशिमा ओर नागासाकी की वह दर्द भरी कहानी हम भूले नहीं हों तो सहज जान सकते हैं कि एक छोटा-सा अणु-परमाणु कितना भयंकर प्रलय ढा सकता है, ठीक वैसे ही जीवन के प्रवाह में संख्यातीत घटनाओं में से कभी-कभी एकाध साधारण-सी घटना सम्पूर्ण जीवन-क्रम को आन्दोलित कर सर्वतोभावेन परिवर्तन का निमित्त बन जाती है। श्रद्धेय चरितनायक के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, आपके सोये हुए देवत्व को अपेक्षा थी किसी ऐसे निमित्त की, जो उपादान का सहयोगी बन, उसे पूर्णता कह प्रदान करे, उस समय तक आप तथाकथित धार्मिक अनुष्ठानों से सर्वथा अपरिचित थे और जितनी मात्रा में परिचय प्राप्त हुआ, वह अत्यन्त अल्प था, अत: आपका गहन चिन्तन उचित सामाधान के अभाव में उन सब क्रियाओं में रूचि नहीं लेता था, इसके विपरीत आप धर्म क्रियाओं को ढकोसला समझते थे और साधु-सन्तों के प्रति भी आपके मन में कुछ विपरित ही धारणा थी, फिर भी आपकी सोच से निसर्ग भवभीरू एवं नैतिक प्रवृति सदैव आपको आरम्भ प्रवृत्तियों से बचाए रहती थी, एक उपदेश पर की बेर में कीट होते हैं, अत्यंत बाल्यकाल में तुरन्त बेर खाने का त्याग कर लेना, आपकी भवभीरूता का प्रबल प्रमाण है। एक समय की घटना है, आपके बड़े भाई साहब मिठूलालजी, जो कुछ व्यवसाय के साथ-साथ अपनी निजी भूमि पर कृषकों से कृषि का कार्य करवाया करते और कृषि की देख-भाल किया करते थे, उन्होंने आपसे कहा ‘‘कुंए का ऊपरी भाग अधिक पानी बरसने से कारण ढह गया है, अत: उसके पुन: निर्माण के लिये चूने की आवश्यकता होगी, अत: तुम चूना पड़वाने की व्यवस्था करो।” बौद्धिक प्रतिभा एवं कर्त्तव्य क्षमता में बड़े भाईसाहब से आप अधिक कुशल थे, फिर भी आप उनको पिता की तरह हृदय से सम्मान करते थे और यथासाध्य उनकी आज्ञाओं का पूर्णरूपेण पालन करने का प्रयास करते थे, अत: आपके लिये यह आवश्यक हो गया कि कृप के पुनः निर्माण के लिए सामग्री जुटाई जाए, उसके लिये आपने पत्थर फुड़वाए, कुछ हरे वृक्ष भी कटवाए और चूना तैयार करवाकर कूप- निर्माण का कार्य सम्पन्न करा दिया। आपका व्यावसायिक दौर क्रमशः विकासोन्मुख होता रहा और आप अपनी पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं के समुचित समाधान में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, पर नियति को आपके लिए कुछ अन्य ही इष्ट था, वह आपको इस परिवार के लघुतम घेरे से बहुत दूर विराटता की ओर ले जाना चाहती थी, जिसकी भूमिका तो नियति आप से पूर्व ही निर्मित कर दी थी जो आपको मिल गया आपको गांव से करीब आठ मील दूर ‘‘भादसोड़ा’’ ग्राम में। बात असल में यों बनी- होनहार बिरवान के होत चीकने पात’’’ के अनुसार एक प्रसंग आ गया, आपकी एक अग्रजा भगिनी थी श्रीमती मोतीबाई जिनका पाणिग्रहण भादसोड़ा निवासी सवाईलालजी साहब लोढ़ा से हुआ था। प्रसंग उस समय का है जब मेवाड़ी मुनि चौथमलजी म.सा. का चातुर्मासिक वर्षावास सम्वत् १६६४ में भादसोड़ा में था, आपकी (आचार्य देव की) बहिन श्रीमती मोतीबाई ने (पंचोले) पांच दिन तक निराहार रहने का तपश्चरण किया, तत्कालीन प्रचलित परिपाटी के अनुसार तपस्विनी बहिन के लिये ऐसे प्रसंगों पर उसके पितृगृह से वस्त्रादि (पोशाक) भेजे जाते थे, तदनुसार आपके लिए भी यह आवश्यक हो गया कि भादसोड़ा बहिन के लिये अपने परिवार से पोशाक आदि उचित सामग्री पहुँचाई जाये, चूँकि ऐसे पावन अनुष्ठान प्राय: गृह-प्रमुखों के करकमलों द्वारा ही सम्पन्न हुआ करते थे, साथ ही आप इस प्रकार की धार्मिक अनुष्ठानों की क्रियाओं से अपरिचित भी थे और आपकी इनमें रूचि भी नहीं थी, अत: अपने अग्रज श्रीमान मिठूलालजी उस समय किसी अन्य कार्य में व्यस्त थे, अत: वे नहीं जा सके, फलस्वरूप आपको ही उपर्युक्त प्रसंग पर जाने का आदेश मिला, आप उचित साधन-सामग्री लेकर इच्छा नहीं होते हुए भी अश्वारूढ़ हो चल पड़े अपने गन्तव्य की ओर… चिरस्थायी गन्तव्य वास्तव में यह आपका चिरस्थायी गन्तव्य की ओर ही गमन था, प्रकृति आपको किसी अलौकिक गन्तव्य की प्रेरणा के लिए ही यहां तक खींच लाई थी। भादसोड़ा अपनी बहिन के यहां पहुंच कर यथायोग्य व्यवहार के साथ रात्रि-विश्राम वहीं पर किया, साथ में लाई हुई सामग्री भेंट कर प्रात:काल पुन: लौटने की तैयारी करने लगे, किन्तु आपके बहनोईजी ने किसी तरह समझाया कि अभी पर्युषणों के दिन चल रहे हैं और कल तो संवत्सरी महापर्व है, कल का दिन पवित्र धार्मिक अनुष्ठानों में व्यतीत होना चाहिए, किसी भी प्रकार सवारी आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए और आप आज ही घोड़े को परेशान करना चाह रहे हैं, इस प्रकार कुछ मान-मनुहार के पश्चात् आपको अनिच्छापूर्वक वहां रूक जाना पड़ा। मेवाड़ी मुनि श्री चौथमलजी म. सा. का चातुर्मास था, अत: समस्त जैन समाज उनके पर्युषण प्रवचनों का लाभ लेने पहुंच रहा था, ‘जिनाग्ाम’ के चरित नायक को भी बहनोईजी आग्रहपूर्वक प्रवचन-स्थल से कुछ दूर बैठ कर प्रवचन श्रवण करने लगे, प्रवचन कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, फिर भी लोक-लज्जा से बैठे रहे। व्याख्यान समाप्ति के प्रसंग पर मुनिश्री ने कहा कि कल एक ऐसी बात सुनाऊंगा जिससे संसार की दशा का ज्ञान होगा, हमारे चरित नायक को कहानी रूपी बातें सुनने का अधिक शौक था, अत: सोचा कि कल की कहानी सुन लेनी चाहिए, तदनुसार दूसरे दिन भी प्रवचन में गये, जब कुछ रस आने लगा, तो उठकर कुछ आगे समीप जाकर बैठ गए। आचार्य श्री नानालालजी म. सा. की संक्षिप्त जीवनी (Brief Biography of Acharya Shri Nanalalji in hindi) सांवत्सरिक प्रवचन होने के कारण प्रवचन का विषय वैराग्योत्पादक एवं धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति पे्ररणाप्रद था, संसार की असारता एवं हिंसाकारी आरम्भिक प्रवृत्तियों के निषेध पर बल दिया जा रहा था, चूंकि तत्कालीन वातावरण के अनुसार ग्रामीण सभ्यता में पलने वाले अधिकांश जैन धर्मावलम्बी भी कृषि कार्य किया एवं करवाया करते थे, अत: उनको उद्वोधन देने हेतु मुनिश्री तत्कालीन भाषा-शैली के माध्यम से कह रहे थे, ‘‘बड़े-बड़े वृक्ष कटवाने से बहुत पाप लगता है क्योंकि इस क्रिया से असंख्य अथवा अनन्त वनस्पति कायिक जीवों की हिंसा तो होती ही है, साथ ही अनेक तदाश्रित पशु-पक्षी आदि (चलते-फिरते) प्राणियों की भी हिंसा होती है, हिंसा, असत्य, चोरी आदि पाप-वृत्तियों में रत रहने वाला व्यक्ति मर कर दुर्गति में जाता है, कभी कुछ पुण्य कर्मों से मानव तन भी प्राप्त कर लेता है तो कभी पूरी इन्द्रियाँ नहीं मिलती अर्थात् बहरा, गूंगा, लंगड़ा आदि विकलांग बन जाता है, तो कभी दर-दर का भिखारी बन जाता है और उचित धार्मिक वातावरण मिलना भी कठिन हो जाता है, इसी शृ्रंखला में महाराजश्री ने फरमाया- यह हृास काल है अत: पंचम एवं षष्ठम आरक (काल विशेष) में इन्द्रिय शक्ति, शारीरिक संगठन आदि क्षीण होते जाएंगे, यहां तक कि छठे आरे में उत्पन्न होने वाला मानव तो बहुत लघुकाय अर्थात् एक हस्त प्रमाण ऊँचाई वाला होगा, बहुत लघु वय में पितृ-पद भोक्ता बन जायेगा, २० वर्ष की उम्र तक को वृद्ध बन १०-१२ संतान का पिता बन जायेगा, इस प्रकार औरों का आद्योपान्त विस्तृत विवेचन किया, प्रवचन तत्कालिन भावप्रवाही, हृदयग्राही एवं वैराग्योत्पादक था, किन्तु यथा ‘‘आम्र वृक्ष पर आने वाली सभी मंजरियाँ फलवती नहीं होती’’ ठीक उसी प्रकार उपदेष्टा वाणी सभी श्रोताओं के सुप्त मानस को जागृत कर दें, यह आवश्यक नहीं, कोई विशिष्ट श्रोता ही उस वाणी को कर्ण-कुम्हारों तक ही सीमित न रखकर हृदय-तन्त्री तक पहुँच पाता है और उनमें भी कोई विरल ही उसे सर्वतोभावेन जीवन परिवर्तन का आधार बना लेता है, उन विरल चेतनाओं में ही श्रद्धेय चरितनायक भी रहे हैं, जिन्होंने प्रवचन के एक-एक शब्द को एकाग्रतापूर्वक सुना एवं उसे मन-मस्तिष्क पर नियोजित कर लिया, व्याख्यान श्रवण करते समय तक उसका नूतन परिवर्तनकारी कोई स्थायी प्रभाव आप पर नहीं पड़ा। प्रवचन समाप्ति पर अन्य श्रोताओं की तरह आप भी अन्यमनस्कवत् चलते बने, बहन के निवास स्थान पर पहुँचे और अपना अश्व सजाने लगे, बहन एवं बहनोईजी आदि ने बहुत निषेध किया एवम् समझाया कि आज संवत्सरी महापर्व है, आज सवारी आदि नहीं करनी चाहिए, कल प्रात: होते ही चले जाना, किन्तु अपनी धुन के पक्के चरितनायक पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ, आप अश्वारूढ़ हो चल पड़े एक अदभुत गन्तव्य की ओर, चूँकि उस समय आपकी मातुश्री अपने एक भाई, जो भदेसर में रहते थे, के यहाँ थी, आपने अपनी मातेश्वरी से मिलने हेतु भदेसर की ओर प्रयाण किया, जो भादसोड़ा से लगभग दस मील पड़ता है, उस समय तक आपकी धार्मिक आस्था सुदृढ़ नहीं हुई थी अत: आपने उस रोज संवत्सरी होने से लोक लज्जावश भोजन नहीं किया, किन्तु उपवास-व्रत का प्रत्याख्यान भी नहीं लिया।चिन्तन का मंथन श्रद्धेय आचार्य देव में अपने शैशव काल से ही चिन्तन की प्रवृत्ति रही है, आप जीवन की किसी भी सामान्य-असामान्य घटना की गहराई में पहुँचने का प्रयास करते और चिन्तन के मन्थन से निष्कर्ष का नवनीत निकाल लेते, वातावरण कुछ ऐसा ही मिला, एकान्त विजन, सुरम्य वनस्थली, वन की नीरवता को भंग करने वाला पक्षियों का कलरव, जो मानव को सतत् चिन्तन के लिए उत्प्रेरित करता है, के मध्य सजग-चेता चरित नायक अश्वारूढ़ हो चले जा रहे थे, वन की मन्द बयार चतुर्दिग् भाद्रपदिय हरियाली की रम्य छटा एवं शांत वातावरण (जो आचार्यश्री का सदा से ही चिन्तन-क्षेत्र रहा है) का समुचित सुयोग पाकर आचार्य देव के चिन्तन ने एक नूतन अंगड़ाई ली, प्रवचन में अनुश्रुत विषय पर गम्भीर चिन्तन के साथ मन्थन होने लगा, जो कुछ श्रवण किया, उसमें से जितना मानस- पटल पर अंकित रहा, उसी पर धारा प्रवाही चिन्तन चला, जिसने आपकी आपेक्षिक सुषुप्त चेतना को एक झटके के साथ उद्वेलित कर दिया, बिजली की चमक के सदृश आपको एक दिव्य प्रकाश की अनुभूति हुई, चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश पैâल गया। तात्पर्य यह है कि ज्ञान की एक दिव्य रश्मि का प्रकाश आपके अन्त:करण में प्रस्फुटित हुआ, जिसने आपकी समग्र चेतना को एकाएक आलोकित कर दिया, आनंद से भर दिया, तथाकथित धर्म विद्रोही मन, धर्माभिमुख बन धर्म की गहनता एवं सूक्ष्मता के परीक्षण में तत्पर बनने लगा।

आचार्य ऋषभ चंद्र सूरी​ 0

आचार्य ऋषभ चंद्र सूरी​

जावरा: दादा गुरूदेव के पाट परम्परा के अष्टम पट्टधर वर्तमान गच्छाधिपति श्रीमोहनखेडा तीर्थ विकास प्रेरक मानव सेवा के मसीहा, आचार्यदेवेश श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा का ऐतिहासिक मंगलमय प्रवेश, आचार्य पाट गादी पर विराजित होने के लिए हुआ। आचार्यश्री का सामैया सहित विशाल चल समारोह पहाडिया रोड स्थित चार बंगला लुक्कड परिवार के निवास से प्रारंभ हुआ, जो नगर के प्रमुख मार्गों से होता हुआ पिपली बाजार स्थित आचार्य पाट परम्परा की गादी स्थल पर पहुंचा, इस चल समारोह में आगामी १५ जनवरी २०२० को श्री मोहनखेडा महातीर्थ में होने वाली दीक्षा के मुमुक्षु अजय नाहर का वर्षीदान का वरघोडा भी निकाला गया, जिसमें मुमुक्षु ने अपने दोनों हाथों से दिल खोलकर वर्षीदान किया, स्मरण रहे आज से तीन वर्ष पूर्व आचार्यश्री को जावरा श्रीसंघ के द्वारा आचार्य पद प्राप्त होने से पूर्व श्रीसंघ ने काम्बली ओढा कर आचार्य पद ग्रहण करने के लिए विनती की थी, विदित हो कि यहां पर दादा गुरूदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. की पाट परम्परा के सात आचार्य पूर्व में इस पाट पर विराजित होकर धर्मदेशणा जैन समाज को दे चुके हैं। आचार्यश्री ने पाट पर विराजित होकर अपने धर्म संदेश में कहा कि धर्म उत्कृष्ट मंगल है ऐसे धर्म को धारण करने वाले व्यक्ति को देवता भी नमन करते हैं। १५० वर्षों बाद १५१वें वर्ष में मुझे इस पाट पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, गुरूदेव की असीम कृपा है साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं की मेरे प्रति निष्टा बनी हुई है तभी मैं पाट गादी पर बैठने के लायक बना हॅू। आचार्य श्री ने कहा कि इस पाट गादी से मुझे उर्जा मिलेगी, मैं शरीर से पीड़ित जरूर हँू पर मन से पीड़ित नहीं हूँ, जीवन हमेशा परिवर्तनशील है समय सबके साथ न्याय करता हैं, व्यक्ति को कभी भी विपरित परिस्थिति में नहीं घबराना चाहिए, मेरे जीवन में भी कई विपरित परिस्थितियां आई थी पर दादा गुरूदेव की कृपा से मुझे समय-समय पर समाधान मिला है मेरे द्वारा शताब्दी महोत्सव में सभी आचार्य, भगवंत एवं साधु-साध्वी को एकमंच पर लाने का प्रयास किया गया, उसमें मुझे सफलता मिली, उसकी सभा भी जावरा दादावाडी में आचार्य हेमेन्द्रसूरीश्वरजी की निश्रा में हुई थी, हमारे श्रावकों का मन एक है, सभी श्रावक-श्राविका दादा गुरूदेव राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के प्रति निष्ठावान है, हमने सभी आचार्यों को विनती की थी सभी ने स्वीकार भी किया एवं हमने सामूहिक चातुर्मास भी श्री मोहनखेडा महातीर्थ में संवत्सरी प्रतिक्रमण के साथ किया, शताब्दी महोत्सव पूरे देश में विख्यात भी हुआ। जावरा की पाटगादी पर क्रियोद्धार दिवस का १५०वां वर्ष मनाने की मेरी बहुत भावना थी पर अनुकूल परिस्थितियां नहीं बन पाई, इस वजह से मैं नहीं आ पाया और हमने श्री मोहनखेडा महातीर्थ में १५०वें वर्ष पर दादा गुरूदेव को तपांजली अर्पित करने के उद्देश्य से ८०० से अधिक वर्षीतप की आराधना करवाकर दादा गुरूदेव को तपांजली अर्पित की, जिसमें हमारे मुनि भगवंत साध्वी वृन्द एवं समाज के श्रावक- श्राविकाओं ने वर्षीतप की आराधना की। मोक्ष प्राप्ति के लिए देव की जरूरत नहीं होती, मोक्ष प्राप्ति के लिए सामायिक प्रतिक्रमण ही अमृत क्रिया है। पाट गादी पर जावरा श्रीसंघ का बहुत योगदान है। आचार्य श्री ने घोषणा करते हुए कहा कि जावरा नगर में महिलाआें को पर्यूषण पर्व में प्रतिक्रमण करने में बहुत दिक्कत होती है इसके लिए जावरा श्रीसंघ बायो का उपाश्रय जब भी बनाएगा, उसमें श्री मोहनखेडा महातीर्थ की ओर से एक करोड़ आठ लाख रू. का सहयोग प्रदान किया जाएगा। वरिष्ठ साध्वी श्री संघवणश्रीजी म.सा. ने अपने संयम काल में खूब सेवा की है उन्हें उनको हमारे पूर्वाचार्यों ने सेवाभावी की पदवी से अलंकृत किया था, ने आज साध्वीश्री को शासन ज्योति पद से अलंकृत गया था, दादावाडी मंदिर को भी ५० वर्ष पूर्ण हो चुके हैं मेरी यह भावना है कि २०२३ तक इसका भी पूर्ण नवीनीकरण किया जाये। जावरा संघ एकता व भव्यता के लिए जाना जाता है, इस अवसर पर बांसवाडा, मंदसौर, इन्दौर, राजगढ, नागदा, नीमच, रतलाम, खाचरौद, झाबुआ, बदनावर, नागदा जं, बडनगर सहित ५० से अधिक श्रीसंघों की उपस्थिति रही। कार्यक्रम में आचार्य श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वर म.सा. को प्रथम बार पाट पर विराजित होने के पश्चात् प्रथम गुरूचरण पूजा का लाभ जावरा निवासी मेघराजजी चम्पालालजी लोढा पूर्व राज्यसभा सांसद को प्राप्त हुआ। आचार्य श्री को सकल जैन श्रीसंघ जावरा की ओर से काम्बली ओढाई गई, तत्पश्चात् बांसवाडा निवासी चन्दूलाल दलीचंद सेठिया परिवार द्वारा काम्बली ओढाई गई। श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढी ट्रस्ट श्री मोहनखेडा तीर्थ की ओर से ट्रस्टी बाबुलाल खेमसरा, मेघराज जैन, संजय सर्राफ, आनंदीलाल अम्बोर, तीर्थ के प्रबंधक प्रितेश जैन आदि ने ट्रस्ट की ओर से काम्बली ओढाई। राजगढ श्रीसंघ से दिलीप भंडारी, नरेन्द्र भंडारी पार्षद, दिलीप नाहर, सुनील बाफना आदि ने आचार्यश्री को काम्बली ओढाई, इस अवसर पर जावरा श्रींसंघ अध्यक्ष ज्ञानचंद चोपड़ा, कोषाध्यक्ष विनोद बरमेचा, राजमल लुंक्कड, कन्हैयालाल संघवी, धर्मचन्द्र चपलोद, पदम नाहटा, कमल नाहटा, देवेन्द्र मूणोत, प्रकाश चौरडिया, प्रकाश संघवी व्ाâाकू, माणक चपलोद, भंवर आंचलिया, राजेश वरमेचा, राकेश पोखरना, सुभाष डुंगरवाल, अनिल चोपडा, पारस ओस्तवाल, अभय सुराणा, पुखराज कोचेट्टा, सुनील कोठारी, अनिल कोठारी, पवन पाटनी, पवन कलशधर, प्रदीप चैधरी, संजय तलेसरा, अनीस ओरा, विभोर जैन, अर्पित तलेसरा, महावीर चैरडिया, अंकित लुक्कड आदि उपस्थित थे।

श्री महाश्रमणजी 0

श्री महाश्रमणजी

दक्षिण के काशी गिने जाने वाले श्रवणबेलगोला में श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य श्री महाश्रमणजी का अहिंसा यात्री के साथ भव्य स्वागत किया गया, इस अवसर पर श्रवणबेलगोला के प.पू. श्री चारूकिर्तीजी म.सा. ने भव्य स्वागत किया, पदयात्रा करते हुए आचार्य श्री जब अपने धवल सेना के साथ भव्य बाहुबली की प्रतिमा देखकर गदगद हो गये, इस अवसर पर दिगम्बर समाज के अनेक लोग उपस्थित थे, अपना लम्बा समय गुरूदेव ने यहां बिताया और खुले मन से सराहना की, गुरूदेव के पगलिया के कारण हजारों की संख्या में जो लोग उपस्थित थे, उनमें हर्षोल्लास दिखाई दे रहा था। विदित हो कि हजारों किलोमीटर दूर से पद्विहार करते हुए गुरूदेव महाश्रमण यहां पधारे थे।