चातुर्मास संदेश
प्रति वर्ष की भांति वर्षावास जारी है। भगवान महावीर से लेकर वर्तमान तक सभी साधु-साध्वी वृन्द चातुर्मास में चार माह एक स्थान पर रहकर आराधना में रत रहते हैं। विहरमान अरिहंत परमात्मा भी चार माह के चातुर्मास करते हैं, इस काल में एक स्थान पर रहकर त्रिगुप्ति की विशेष आराधना की जाती है। आवश्यक प्रवृति समितिपूर्वक करें क्योंकि इस काल में वातावरण के अन्तर्गत अत्याधिक त्रास व स्थावर जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, उनकी रक्षा व आत्म-साधना का अवसर है चातुर्मास, देश भर में सभी साधु-साध्वियों के आध्यात्मिक चातुर्मास पर हार्दिक मंगलभावना यह है कि आप सभी का यह चातुर्मास वीतराग-धर्म को फैलाने में सार्थक हो, हर तरफ आनंद, शांति, सुख, समृद्धि का वातावरण बनें, पूरे विश्व में भगवान महावीर की वीतरागता का प्रचार हो।
चतुवर्ध संघ इस वर्ष को अपरिग्रह वर्ष के रूप में मना रहा है, श्रावक वर्ग व्यक्ति, वस्तु एवं स्थान से ममत्व छोड़ने हेतु पुराना जो भी परिग्रह है, उसमें से यथाशक्ति सहधर्मी बन्धुओं के सहयोग, शिक्षा, सेवा हेतु अपने धन का उपयोग करें, आवश्यकता से ज्यादा संग्रह न करें, जो है उसके प्रति तथा शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करते हुए भेद-ज्ञान की साधना में आत्मा को महत्व दें। चतुवर्ध संघ के लिए निर्देश है कि सभी अधिकांश समय साधना को दें। भगवान ने स्वयं साढ़े बारह वर्ष मौन-ध्यान साधना में व्यतीत किये तथा भगवान महावीर के दस श्रावकों ने भी साधना को प्रमुखता दी। आत्मा के ऊपर अनन्त कर्म का परिग्रह लगा है, उसकी सफाई करनी है। प्रत्येक साधक कत्र्ताभाव का त्याग करे, इस चातुर्मास में हम आत्मदृष्टि को प्राप्त करते हुए अपना मोक्ष मार्ग प्रशस्त करें। आप सबका चातुर्मास आध्यात्मिक हो, मंगलमय हो, सभी कर्म-निर्जरा करते हुए सिद्धालय की ओर बढ़ें, यही हार्दिक मंगल कामना है!
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चातुर्मास एक सामाजिक रूप लेता जा रहा है, इस काल में साधु-साध्वियों के दर्शनार्थ पूरे देश में हजारों की संख्या में धार्मिक बंधु यात्रा करने लग गये हैं, हर चातुर्मास स्थल एक तीर्थ क्षेत्र बन जाता है। स्थानीय समाज सहधर्मी बंधुओं की सेवा में उत्कृष्ट भावनाओं से सेवारत रहता है और आतिथ्य सेवा कर प्रमोद भावना से भावित होता है, यह समाज में सेवा, भावना का उत्कृष्ट उदाहरण है किन्तु इसमें कई जगहों पर विकृतियां भी आती जा रही हैं, एक संघ दूसरे संघ से अपना नाम बड़ा करने में अपने क्षेत्र में कुछ विशेष करना चाहता है, इस प्रतिस्पर्धा में समाज में फिजूलखर्ची बढ़ती जा रही है, सात्विक भोजन, राजसी भोजन का रूप लेता जा रहा है, शिकायत भाव भी बढ़ता जा रहा है, तीर्थयात्री विशेष अतिथि की तरह विशेष सुविधाओं की मांग करने लगे हैं, भोजन करने एवं संघ की अतिथि सेवा के बदले दान की वृत्ति लुप्त होती जा रही है, ऐसे समय में समाज अपनी प्रवृत्ति पर ध्यान दे।
चातुर्मास के लिए विशेष संदेश –
प्रत्येक साधक आत्मार्थ को मुख्यता दे, आत्र्त व रौद्र ध्यान को त्यागें अर्थात् अहंकार वाले ‘मैं’ को अज्ञानवश मानते हुए ‘मेरे’ का ध्यान छोड़कर, ‘स्व’ स्वरूप का ध्यान कर आनंद, शान्ति, ज्ञान की आराधना करें, अन्तत: सभी नकारात्मक व सकारात्मक भावों का निपटारा कर शुक्ल ध्यान की ओर बढ़ें, आने वाले आश्रवों को रोकने के लिए संवर अर्थात् जिनशासन की मर्यादाओं का उत्कृष्ट भावना से पालन कर बाह्य व आभ्यांतर तप की साधना के द्वारा मुक्ति की ओर अग्रसर हों। ज्ञाता-दृष्टा भाव में रहकर होषपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए भगवान महावीर की वीतरागता को जीवन में लाकर, अपने जीवन को आनन्दित करें।