धार्मिक-सामाजिक-राष्ट्रीय कार्य के प्रहरी

श्री बाबुलालजी धनराजरजी डोडिया गांधा

श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में भगवान महावीर के मोक्ष कल्याणक तथा लब्धी प्रदाता श्री गौतमस्वामी के केवलज्ञान दिवस के अवसर पर आयोजित होने वाले पंचान्हिका महोत्सव का १० वर्ष से लाभ ले रहे परमगुरुभक्त श्री बाबुलाल धनराज जी डोडिया गांधी का परिचय ‘जिनागम’ के इस अंक में हम आपसे करवाते हैं।यशस्वी राजस्थान के ऐतिहासिक जालोर जिले के धुम्बड़िया में आपका जन्म १६ फरवरी १९५५ को हुआ था। आपके पूज्य पिता श्री धनराजजी व माताजी श्रीमती कमलाबहन दादागुरुदेव के प्रति आस्थावान धर्मनिष्ठ थे और उन्होंने यही संस्कार अपने तीनों पुत्र सर्वश्री बाबुलालजी, मीठालालजी व सुमेरलालजी व पुत्री श्री विमला बहन को भी दिये। सन् १९७२ में आपका विवाह भीनमाल निवासी श्री दाड़मचंद जी फूलचंद जी का सुशीलाबहन से हुआ, जिन्होंने आपको सुकृत के लिए सदैव प्रेरित किया, आपके दो पुत्र श्री जयंत व श्री शैलेश जी एवं तीन पुत्रियां अंजना, मनीषा व नीशा हैं, पुत्रवधु ममता व मंदाकिनी है, आपके परिवार में कुशी, कियास, झील व क्रिश की किलकारियां गूंजती हैं। श्री बाबुलाल जी धुम्बड़िया ने अपनी धार्मिक निष्ठा व सामाजिक सरोकार के चलते अनेक सुकृत कार्य किये हैं, आप विभिन्न प्रसंगों पर लाभ लेने में सदैव अग्रणी रहे। आपने सं. २०४५ में अहमदाबाद के अमराईवाड़ी जैन श्रीसंघ के नूतन मंदिर की प्रतिष्ठा के समय शाश्वत ध्वजा का लाभ तथा अमराईवाड़ी के ही एक जिनालय व श्री राजेन्द्रसूरि गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा के समय भगवान के कलश व गुरुमंदिर की ध्वजा का लाभ लिया। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में श्री धनचन्द्रसूरिजी व श्री भूपेन्द्रसूरिजी के मंदिर की ध्वजा के लाभार्थी आप बने। अहमदाबाद के पालडी क्षेत्र में वासना रोड पर नवनिर्मित दो माला वाले मंदिर में मूलनायक श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ भगवान प्रतिष्ठा आपने की। गुरु शताब्दी तीर्थ पालीताना में आप श्री हेमेन्द्रसूरिजी की देहरी के लाभार्थी बने। गुरु शताब्दी धाम पालीताना की प्रतिष्ठा के समय साधर्मी वात्सल्य, फलेचुंदडी आदि का लाभ आपने लिया। पालीताना के ही राजेन्द्र भवन में मुनिराज श्री न्यायविजयजी म.सा. की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कर नौकारसी आयोजित की। आपने मुनिराज श्री लेखेन्द्रविजय जी म.सा. की निश्रा में निकले विभिन्न छ:रिपालित संघों में सह संघपति बनने का लाभ लिया। संवत २००३ में शंखेश्वर से पालीताना संघ, संवत २००४ में शंखेश्वर से गिरनार संघ व संवत २००५ में शंखेश्वर से जैसलमेर संघ में साथ ही २००६ में मुनिश्री के पालिताना चातुर्मास में भी सह संघवी बने। बाकरा रोड से पालीताना श्रीपाल संघ में पालीताना में नौकारसी का लाभ, आचार्य श्री अभयदेवसूरि जी की निश्रा में वैसाख एकम दूज के दिन पालीताना में महामांगलिक व लगभग १५००० लोगों को साधर्मीवात्सल्य, अहमदाबाद में भी आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी की निश्रा में वर्षीतप के १००० तपस्वियों को बियासने करने का लाभ आदि कई सुकृत कार्य इस सूची में शामिल है। आपने अहमदाबाद, राजेन्द्र भवन पालीताना, शंखेश्वर तीर्थ बदनावर, काया तीर्थ उदयपुर आदि अनेक स्थानों पर अपनी स्वअर्जित लक्ष्मी का सदुपयोग किया। श्री बाबुलालजी धनराजजी अ.भा. जैन त्रिस्तुतिक संघ गुजरात के अध्यक्ष, श्री राजेन्द्र विद्याधाम ट्रस्ट सरोड एवं राजेन्द्र शांति विहार काया (उदयपुर) के कोषाध्यक्ष एवं राजेन्द्र भवन पालीताना तथा शंखेश्वरपुरम् तीर्थ बदनावर (म.प्र.) के ट्रस्टी एवं श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के अध्यक्षीय मंत्रणा बोर्ड के सदस्य हैं। ‘जिनागम’ परिवार समस्त तीर्थंकर देव से विनंति करता है कि श्री बाबुलालजी धनराजजी डोडिया गांधी दिर्घायु हों और सामाजिक-धार्मिक कार्यों के साथ भारत की बनें राष्ट्रभाषा अभियान में सहयोग प्रदान कर राष्ट्र की पूर्ण आजादी के सिपाही बनें।

-जिनागम

भारत का अतीत सशक्त है भविष्य उज्जवल है

संसार चक्र में होने वाली घटनाएँ भी मनुष्य के जीवन पर विशेष प्रभाव डालती हैं लेकिन विरले महापुरुष ही अपने जीवन प्रसंग में उन घटनाओं को बदलने में सक्षम होते हैं, जब हम किसी महापुरुष का मूल्यांकन करते हैं तो हमारे सम्मुख उसके जीवन की और उसकी समकालीन घटनायें होती हैं, उसने अपने युग के साथ क्या व्यवहार किया, उसे कितना मोड़ा,कितना सहा और कितना पहचाना, इसका लेखा-जोखा ही उसके व्यक्तित्व को प्रकट करता है, इस दृष्टि से जब हम राजेन्द्रसूरिजी के व्यक्तित्व की समीक्षा करते हैंं| तब हमें लगता है कि उनका व्यक्तित्व जागतिक था, वह किसी एक समाज या राष्ट्र तक सीमित नहीं थे वे खुले मन और मस्तिष्क के श्रमण थे, उनके कृतित्व में कोई ग्रन्थि नहीं थी, उनमें संकल्प की अद्वितीय अविचलता थी और वे जिस बात को भावी पीढ़ी के कल्याण में देखते थे, उसके करने-कराने में न तो कोई विलम्ब करते थे और ना ही कोई भय रखते थे, अभय उनके चरित्र का महत्वपूर्ण अंग था।

राजेन्द्रसूरिजी कहा करते थे कि यदि साधन स्वस्थ, पावन, सम्यक और संतुलित हैं और उनका योजित उपयोग हुआ है तो फिर सिद्धि की कोई चिन्ता करनी ही नहीं चाहिए, वह तो मिलेगी ही, इस जीवन-दर्शन के साथ सूरिजी ने एक हद में अनहद काम किया, बिन्दु रहकर सिन्धु जितना काम, उन्हें तो कोई कीर्ति-कामना तो थी नहीं, वे निष्काम और अप्रमत्त चित्त थे, एक सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए सम्पूर्णत: व्यक्तित्व के रुप में हम ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि जी’ को देख सकते हैं। सूरिजी को विश्वपुरुष के रुप में प्रतिष्ठित करने वाला एक तथ्य है उनकी क्रान्तिधर्मिता, एक आत्मार्थी साधु होने के बावजूद सूरिजी किसी पारम्परिक धातु से नहीं बने थे, वे जिस धातु से बने थे, वह खरी और कालसह्य थी। कथनी और करनी की एकता, जो उनके समकालीन भारतीय चारित्र में उन दिनोंं घट रहा था, सूरिजी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण अंश था। उन्होंने जब यति क्रान्ति के लिए अपनी ’नौ सूत्रीय’ योजना घोषित की तो पहले अपने जीवन में उसे ‘‘सम्पूर्ण क्रियोद्धार’’ के रुप में लागू किया, उनका जीवन एक खुला ग्रन्थ था, वहाँ कोई तथ्य प्रच्छन्न नहीं था, जब वे स्वयं पालखी से नीचे आ गये, तब उन्होंने यतियों को पालखी से उतर कर जीने की बात कही, उनकी क्रान्तिधर्मिता कोई बकवास नहीं थी, वह तो चारित्रिक थी।

सूरिजी की क्रान्ति का सबसे जीवन्त पक्ष चरित्र है, धर्म के क्षेत्र में जिस चरित्र रचना पर सूरिजी ने बल दिया, नयी समाज-रचना के सन्दर्भ में उतना ही बल उनके समकालीनों ने भी दिया, सूरिजी ने उन यतियों को, जो चारित्र, सम्यकत्व और औचित्य से स्खलित थे, स्थिरीकृत किया और आगामी क्रान्ति के लिए लोकमन और मस्तिष्क की रचना की, सूरिजी का चरित्र अचन्चल, गहन और अडिग था, वे प्रतिक्षण अप्रमत्त और सावधान संत थे, सूर्इं की नोंक तो बड़ा परिमाण है, वे कहीं भी चंचल नहीं थे। गाम्भीर्य और ‘जो कहना-वह करना’ उनके व्यक्तित्व के प्रधानअंश थे। धर्म और समाज के हर मोर्चे पर सूरिजी की सफलता का कारण उनका लौह व्यक्तित्व ही था, सूरिजी का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने भारतीय लोकजीवन में अतीत को,जो उखड़ने लगा था, पुन: प्रतिष्ठित किया और उनकी उज्ज्वलताओें को न केवल भारतीयों के समक्ष वरन् विदेशियों के समक्ष भी सप्रमाण प्रस्तुत किया, उन्होंने अपने समकालीन जीवन में यत्र-तत्र सेंध डालकर यह हुंँकार भरी कि अतीत को जो नकारा जा रहा है, वह व्यर्थ है, भ्रामक है, भारत का अतीत सशक्त है, उज्ज्वल है प्रेरक और सार्थक है, वह केवल देश के बुझते हुए दीयों में ही नहीं, वरन् विदेशों के निष्प्राण दीपों में भी जान डाल सकता है।

सूरिजी ने इस पर कि कौन-कहाँ-क्या कर रहा है? बिना ध्यान दिये अपना कत्र्तव्य किया और चारित्रिक प्रामाणिकता और शुचिता को लाने के अपने मिशन में वे पूरी ताकत से जुटे रहे। ‘‘तीनथुई-क्रान्ति,’’ जो है धार्मिक, किन्तु वह भी उनकी इसी व्यापक क्रान्ति का एक महत्वपूर्ण भाग है, इसके द्वारा उन्होंने लोगों को तर्वâसंगत बनाया और उन्हें अन्धविश्वासों से मुक्त करवाया, उनका कहना था कि भारतीय संस्कृति ने जितनी विविधताओेें को पचाया और आत्मसात किया है, संसार की ऐसी कोई संस्कृति नहीं है जो इस तरह विषपायी व अमृतवर्षी हो, उन्होंने जहर पिया, अमृत बाँटा,कांँटे सहे और फूल दिये, यही उनके मृत्युंजयी होने का एक बहुत बड़ा कारण रहा। श्रमण संस्कृति के उज्ज्वल ओर जीवंत प्रतीक के रूप में सूरिजी ने विश्व संस्कृति को जो दिया है, वह अविस्मरणीय है और रहेगा। सूरिजी के समग्र जीवन ने अपने तपोनिष्ठ आचरण से शास्त्रकारों को शास्त्रगारों में बदला हो, संचार और यातायात की असुविधाओें के होते हुए भी जिसने अपनी चारित्रिक निर्मलताओें से अन्धविश्वासों, अरक्षाओं,रूढ़ियों और अन्धी परम्पराओें घटती मानवता को पैदल घूम-घूमकर निर्मल और निष्कलंक बनाया हो,उसके प्रति यदि वन्दना में हमारी अंजलियाँ नहीं उठती हैं और उनके जीवन से यदि हम प्रेरणा नहीं लेते हैं तो हम से बड़ा कोई कृतघ्न होगा और न कोई होगा अभागा।

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