जैन-धर्म की वर्तमान दशा
आचार्य भिक्षु ने जैन-धर्म की
वर्तमान अवस्था का सजीव
चित्रण किया है-
भगवान् महावीर के निर्वाण होने
पर घोर अन्धकार छा गया है,
जिन-धर्म आज भी अस्तित्व में
है, पर जुगनू के चमत्कार जैसा
जैसे जुगनू का प्रकाश क्षण में
होता है, क्षण में मिट जाता है,
साधुओं की पूजा अल्प होती है,
असाधु पूजे जा रहे हैं।
यह सूर्य कभी उग रहा है,
कभी अस्त हो रहा हैं, भेख-धारी
बढ़ रहे हैं, वे परस्पर कलह
करते हैं।
उन्हें कोई उपदेश दे तो वे क्रोध
कर लड़ने को प्रस्तुत हो जाते हैं,
वे शिष्य-शिष्याओं के लालची
हैं।
सम्प्रदाय चलाने के अर्थी।
बुद्धि-विकल व्यक्तियों को मूंड
इकट्ठा करते हैं,
गृहस्थों के पास से रूपये दिलाते
हैं। शिष्यों को खरीदने के लिए,
वे पूज्य की पदवी को लेंगे,
शासन के नायक बन बैठेंगे;
पर आचार में होंगे शिथिल,
वे नहीं करेंगे आत्म-साधना का
कार्य।
गुणों के बिना आचार्य नाम
धराएंगे, उनका परिवार पेटू
होगा,
वे इन्द्रियों का पोषण करने में
रत रहेंगे, सरस आहार के लिए
भटकते रहेंगे।
वैराग्य घटा है, वेश बढ़ा है,
हाथी का भार गधों पर लदा है,
गधे थक गए, बोझ नीचे डाल
दिया,
इस काल में ऐसे भेखधारी हैं।
उनका भगवान् महावीर के प्रति
आत्म-निवेदन भी बड़ा मार्मिक
है- भगवान् आज यहां कोई
सर्वज्ञ नहीं है और श्रुतकेवली भी
विच्छिन्न हो चुके।
आज कुबुद्धि कदाग्रहियों ने
जैन-धर्म को बांट दिया है।
छोड़ चुके हैं जैन-धर्म को राजा,
महाराजा सब।
प्रभो! जैन-धर्म आज विपदा में
है, केवलज्ञान-शून्य, क्रोध बढ़
रहा है।
इन नामधारी साधुओं ने पेट पूर्ति
के लिए, दूसरे दर्शनों की शरण
ले ली है।
इन्हें कैसे फिर मार्ग पर लाया
जाए?
इनकी विचारधारा का कोई
सिर-पैर नहीं है, न्याय की बात
कहने पर ये कलह करने को
तैयार हो जाते हैं।
प्रभो! तुमने कहा हैसम्यग्दर्श
न, ज्ञान, चरित्र और
तप-मुक्ति-मार्ग नहीं मानना।
मैं अरिहंत को देव, और मानता
हूं गुरू निग्रन्थ को ही। धर्म वही
है सत्य सनातन,
जो कि अहिंसा कहा गया है।
शेष सब मेरे लिए भ्रम-जाल है।
मैं प्रभो! तुम्हारा शरणार्थी हूं,
मैं मानता हूं प्रमाण तुम्हारी आज्ञा
को। तुम्हीं हो आधार मेरे तो,
तुम्हारी आज्ञा में मुझे परम आनन्द
मिलता है।
‘मन का मानव’
– राष्ट्रसंत कवि श्री अमर मुनि जी महाराज सा.
कुछ भी नहीं असम्भव जग में,
सब सम्भव हो सकता है।
कार्य हेतु यदि कमर बाँध लो,
तो सब कुछ हो सकता है।।१।।
जीवन है नदिया की धारा, जब चाहो मुड़ सकती है।
नरक लोक से, स्वर्ग लोक से, जब चाहो जुड़ सकती है।।२।।
बन्धन-बन्धन क्या करते हो, बन्धन मन के बन्धन हैं।
साहस करो, उठो झटका दो, बन्धन क्षण के बन्धन हैं।।३।।
बीत गया कल, बीत गया वह, अब उसकी चर्चा छोड़ो।
आज कर्म करो निष्ठा से, कल के मधुर सपने जोड़ो।।४।।
तुम्हें स्वयं ही स्वर्णिम उज्जवल, निज इतिहास बनाना है।
करो सदा सत्कर्म विहँसते, कर्म-योग अपनाना है।।५।।
मन के हारे हार हुई है, मन के जीते जीत सदा।
सावधान मन हार न जाए, मन से मानव बना सदा।।६।।
तू सूरज है, पगले! फिर क्यों, अन्धकार से डरता है?
तू तो अपनी एक किरण से, जग प्रदीप्त कर सकता है।।७।।
अन्तर्मन में सद्भावां की, पावन गंगा जब बहती।
पाप पंक की कलुषित रेखा, नहीं एक क्षण को रहती।।८।।
धर्म हृदय की दिव्य ज्योति है, सावधान बुझने ना पाये।
काम-क्रोध-मन-लोभ-अहंके, अंधकार में डूब न जाये।।९।।
जाति, धर्म के क्षुद्र अहं पर, लड़ना केवल पशुता है।
जहाँ नहीं माधुर्य भाव हो, वहाँ कहाँ मानवता है? ।।१०।।
मंगल ही मंगल पाता है, जलते नित्य दीप से दीप।
जो जगती के दीप बनेंगे उनके नहीं बुझेंगे दीप।।११।।
धर्म न बाहर की सज्जा में, जयकारों में आडम्बर में।
वह तो अन्दर-अन्दर गहरे, भावों के अविनाशी स्वर में।।१२।।
‘मैं’ भी टूटे, ‘तू’ भी टूटे, एकमात्र सब हम ही हम हो।
‘एगे आया’ की ध्वनि गूँजे, एकमात्र सब सम-ही-सम हो।।१३।।
यह भी अच्छा, वह भी अच्छा, अच्छा-अच्छा सब मिल जाये।
हर मानव की यही तमन्ना, किन्तु प्राप्ति का मर्म न पाये।।१४।।
अच्छा पाना है, तो पहले खुद को, अच्छा क्यों न बना लें।
जो जैसा है, उसको वैसा, मिलता यह निज मन्त्र बना लें।।१५।।
परिवर्तन से क्या घबराना, परिवर्तन ही जीवन है।
धूप-छाँव के उलट-फेर में, हम सब का शक्ति-परीक्षण है।।१६।।
सत्य, सत्य है, एक मुखी है, उसके दो मुख कभी न होते।
दम्भ एक ही वह रावण है, उसके दस क्या, शतमुख होते।।१७।।
एक जाति हो एक राष्ट्र हो, एक धर्म हो धरती पर।
मानवता की ‘अमर’ ज्योति सब – ओर जगे जन-जन, घर-घर।।१८।।