श्वेताम्बर तेरापंथ

जैन धर्म में श्वेताम्बर संघ की एक शाखा का नाम श््वेताम्बर तेरापंथ है, इसका उद्भव विक्रम संवत् १८१७ (सन् १७६०) में हुआ, इसका प्रवर्तन मुनि भीखण (भिक्षु स्वामी) ने किया था जो कालान्तर में आचार्य भिक्षु कहलाये, वे मूलतः स्थानकवासी संघ के सदस्य और आचार्य रघुनाथ जी के शिष्य थे।
आचार्य संत भीखण जी ने जब आत्मकल्याण की भावना से प्रेरित होकर शिथिलता का बहिष्कार किया था, तब उनके सामने नया संघ स्थापित करने की बात नहीं थी, परंतु जैनधर्म के मूल तत्वों का प्रचार एवं साधुसंघ में आई हुई शिथिलता को दूर करना था, उस ध्येय मे वे कष्टों की परवाह न करते हुए अपने मार्ग पर अडिग रहे। संस्था के नामकरण के बारे में भी उन्होंने कभी नहीं सोचा था, फिर भी संस्था का नाम ‘तेरापंथ’ हो ही गया, इसका कारण निम्नोक्त घटना है:
जोधपुर में एक बार आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को माननेवाले १३ श्रावक एक दूकान में बैठकर सामायिक कर रहे थे, उधर से वहाँ के तत्कालीन दीवान फतेहसिंह जी सिंघी गुजरे तो देखा, श्रावक यहाँ सामायिक क्यों कर रहे हैं, उन्होंने इसका कारण पूछा। उत्तर में श्रावकों ने बताया श्रीमान् हमारे संत भीखण जी ने स्थानकों को छोड़ दिया है, वे कहते हैं, एक घर को छोड़कर गाँव-गाँव में स्थानक बनवाना साधुओं के लिये उचित नहीं है, हम भी उनके विचारों से सहमत हैं इसलिये यहाँ सामायिक कर रहे हैं। दीवान जी के आग्रह पर उन्होंने सारा विवरण सुनाया, उस समय वहाँ एक सेवक जाति का कवि खड़ा सारी घटना सुन रहा था, उसने तत्काल १३ की संख्या को ध्यान में लेकर एक दोहा कह डाला
आप आपरौ गिलो करै, ते आप आपरो मंत।
सुणज्यो रे शहर रा लाका, ऐ तेरापंथी तंत
बस यही घटना तेरापंथ के नाम का कारण बनी, जब स्वामी जी को इस बात का पता चला कि हमारा नाम ‘तेरापंथी’ पड़ गया है तो उन्होंने तत्काल आसन छोड़कर तीर्थंकरों को प्रणाम कर इस शब्द का अर्थ किया:
हे भगवान यह ‘तेरापंथ’ है, हमने तेरा अर्थात् तुम्हारा पंथ स्वीकार किया है, अत: हम तेरापंथी हैं।
संगठन
आचार्य संत भीखण जी ने सर्वप्रथम साधु संस्था को संगठित करने के लिये एक मर्यादा पत्र लिखा:
(१) सभी साधु-साध्वियाँ एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें।
(२) वर्तमान आचार्य ही भावी आचार्य का निर्वाचन करें।
(३) कोई भी साधु अनुशासन को भंग न करे।
(४) अनुशासन भंग करने पर संघ से तत्काल बहिष्कृत कर दिया जाए।
(५) कोई भी साधु अलग शिष्य न बनाए।
(६) दीक्षा देने का अधिकार केवल आचार्य को ही है।
(७) आचार्य जहाँ कहें, वहाँ मुनि विहार कर चातुर्मास करे, अपनी इच्छानुसार ना करे।
(८) आचार्य श्री के प्रति निष्ठाभाव रखे, आदि।
इन्हीं मर्यादाओं के आधार पर आज २६३ वर्षों से तेरापंथ श्रमणसंघ अपने संगठन को कायम रखते हुए अपने ग्यारहवें आचार्य श्री महाश्रमणजी के नेतृत्व में लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण भाग अदा कर रहा है।
संघव्यवस्था
तेरापंथ संघ में इस समय करीबन ७०० साधु साध्वियाँ हैं, इनके संचालन का भार वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण पर है, वे ही इनके विहार, चातुर्मास आदि के स्थानों का निर्धारण करते हैं। प्राय: साधु और साध्वियाँ क्रमश: ३-३ व ५-५ के वर्ग रूप में विभक्त किए होते हैं, प्रत्येक वर्ग में आचार्य द्वारा निर्धारित एक अग्रणी होता है, प्रत्येक वर्ग को ‘सिंघाड़ा’ कहा जाता है।
ये सिंघाड़े पदयात्रा करते हुए भारत के विभिन्न भागों, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यभारत, बिहार, बंगाल आदि में अहिंसा आदि का प्रचार करते रहते हैं। वर्ष भर में एक बार माघ शुक्ला सप्तमी को सारा संघ जहाँ आचार्य होते हैं वहाँ एकत्रित होता है और आगामी वर्ष भर का कार्यक्रम आचार्य श्री वहीं पर निर्धारित कर देते हैं और चातुर्मास तक सभी ‘सिंघाड़े’ अपने-अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं।

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