Category: अक्टूबर-२०१८

आत्मविकास का अपूर्व अवसर : चातुर्मास 0

आत्मविकास का अपूर्व अवसर : चातुर्मास

प्रत्येक क्रिया काल के अनुसार करनी चाहिए-मनुष्य श्रम करता है किन्तु उसका फल पाने के लिए ‘काल’ की उपयुक्तता /अनुकूलता जरुरी है, जैसे स्वास्थ्य सुधारने के लिए सर्दी का मौसम अनुकूल माना जाता है, वैसे धर्माराधना और तप: साधना के लिए वर्षावास,चातुर्मास का समय सबसे अधिक अनुकूल माना जाता है। संपूर्ण सृष्टि के लिए वर्षाकाल सबसे महत्वपूर्ण है, इन महीनों में आकाश द्वारा जलधारा बरसाकर धरती की प्यास बुझाती है, धरती की तपन मिटाती है और भूमि की माटी को नम्र, कोमल, मुलायम बनाकर बीजों को अंकुरित करने के लिए अनुकूल बनाती है इसलिए २७ नक्षत्रों से वर्षाकाल के १० नक्षत्र और १२ महीने में चातुर्मास के ४ मास ऋतुचक्र की धुरी हैं, सृष्टि के लिए जीवनदायी हैं, प्राणिजगत् के लिए प्राणसंवर्धक और जीवन रक्षक माने जाते हैं। वर्षावास का यही काल धर्माराधना के लिए सर्वोत्तम काल माना गया है। चातुर्मास की विश्रुत परंपरा – आपके सामने दो शब्द आ रहे हैं- वर्षावास और चातुर्मास, पहले इसी पर विचार कर लें। वर्षावास का मतलब है- वर्षा ऋतु। श्रावण-भाद्रपद का महीना वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहना, एक ही स्थान पर निवास करना, जैन आगमों में इसे वर्षावास कहा गया है। वर्षा ऋतु केवल दो मास होते हैं, इसके बाद आती है शरद् ऋतु-आसोज और कार्तिक मास और ये चारों मास मिलकर चातुर्मास काल कहलाता है। वैदिक व बौद्ध परंपरा में भी इस चार मास काल को चातुर्मास कहा गया है, चातुर्मास के लिए परिव्राजक, ऋषि, श्रमण, निग्र्रन्थ एक स्थान पर निवास करते हैं, आज भी यह चातुर्मास परंपरा चल रही है। वैदिक संत महात्मा आज भी वर्षाकाल में चातुर्मास करते हैं, भले ही वे चार महीने के बजाय दो महीने ही एक स्थान पर ठहरते हैं, श्रावण-भाद्रपद तक एक स्थान पर रुकते हैं। जनता को धर्माराधना, भागवत श्रवण, रामायण पाठ, व्रत-उपवास आदि की प्रेरणा देते हैं। बौद्ध भिक्षुओं में भी किसी समय चातुर्मास के चार माह एक स्थान पर ठहरने की परंपरा थी किन्तु अब वे भी दो मास में ही (कभी-कभी) चातुर्मास समाप्त कर देते हैं। जैन परंपरा में आज भी चातुर्मास की यह परंपरा अक्षुण्ण चल रही है। आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीने तक पदविहारी जैन श्रमण एक ही स्थान पर निवास करते हैं। जैन श्रमणों के लिए नवकल्पी विहार बताया है- मृगसर मास से आषाढ़ मास तक ८ महीने एक-एक मासकल्प तथा श्रावण मास से कार्तिक मास तक चार महीने चातुर्मास का एक कल्प नवकल्पी विहार का विधान जैन आगमों में है। चातुर्मास : अंतर जागरण का संदेश-वैदिक ग्रंथों के वशिष्ठ ऋषि का कथन है कि चातुर्मास में चार महीने विष्णु भगवान समुद्र में जाकर शयन करते हैं इसलिए यह चार मास का काल धर्माराधना, योग, ध्यान, धर्मश्रवण, भागवत पाठ व जप-तप में बिताना चाहिए। इन चार महीने में विवाह-शादी, गृह-निर्माण आदि कार्य नहीं करने चाहिए, यात्रा नहीं करनी चाहिए, एक समय भोजन करना और रात्रि भोजन नहीं करना, यहाँ तक भी कहा जाता है कि चार महीने सभी देवता शयन करते रहते हैं, अस्तु चार मास तक देवता शयन का मतलब है ये चार मास धर्माराधना और योगसाधना में ही बिताना चाहिए। वैदिक ग्रंथों के इस प्रतीकात्मक कथन पर विचार करें कि चार महीने तक देवता क्यों सो जाते हैं? या वास्तव में ही देवता या भगवान सोते हैं? इस कथन के गंभीर भाव को समझें तो स्पष्ट होगा कि देवता सोने का मतलब हैं- हमारी प्रवृत्तियाँ, हमारी क्रियाएँ सीमित हो जायें। सोना निवृत्ति का सूचक हैं, जागना प्रवृत्ति का सूचक है। हमारा पुरुषार्थ, हमारा पराक्रम जो बाह्यमुखी था वह चार महीने के लिए अंतर्मुखी बन जाये, बाहर से हम सोये रहें, भीतर से जागते रहें। बाहरी चेतना, संसार भावना कम हो, सुस्त हो और अंतरचेतना, धर्म भावना प्रबल हो यही मतलब है देवताओं के सोने का… -सज्जनराज मेहता जैन कमला सज्जनराज मेहता जैन, चेन्नई

संसार का आठवाँ आश्चर्य जैन साधु 0

संसार का आठवाँ आश्चर्य जैन साधु

हमारे पूर्व जन्म की पुण्यायी के कारण हम इस जन्म में जैन कुल में पैदा हुए, जैन कहलाये तथा हमें जैन-सन्तों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। हमारे साधु-साध्वियों को संसार का आठवां आश्चर्य कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गर्मी हो या सर्दी, सड़क हो या कच्चा रास्ता, कंकर हो या कांटे, रात्रि भोजन व कच्चे पानी का त्याग, बरसात में छाता नहीं, ओढ़ने के लिए चादर या कम्बल नहीं, रात्रि में मच्छर काटते हैं, बिजली का उपयोग नहीं, दो-तीन जोड़ी पतले कपड़ों से सम्पूर्ण जीवन व्यतित करना तो आश्चर्य ही है। हम एक दिन भी इस तरह का जीवन जी नहीं सकते, इतनी कठिन जीवन शैली तो शायद ही किसी अन्य धर्माचार्यों में मिलेगी इसलिए जैन साधु-संतों का जीवन विश्व के लिए अविश्वसनीय लगता है। इस भौतिक युग में हमारे साधु-संतों के प्रवचन व शिक्षा का ही परिणाम है कि आज हम सिर ऊँचा करके चल सकते हैं अन्यथा अभी तक गहरी खाई में गिर गये होते, हम इन्हें कोटिश: वन्दन करते हैं, इन्होंने ही संसार लांगकर हमें सही मार्ग दिखाने, हमारी जीवन नैय्या पार उतारने तथा हमें इन्सान बनाने का कार्य किया है। जैन धर्म में अनेक ऐसे-ऐसे संत मुनिराज हुए हैं जिनके त्याग, तपस्या व बलिदान की बातें सुनें तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। महावीर के अनुसार उपदेश वही देना चाहिए जिसका स्वयं के जीवन के साथ सीधा तालमेल हो और जिन्होंने भगवान के बहुमूल्य उपदेशों की कभी अवहेलना नहीं की। आचरण शुद्धि का ध्यान रखते हुए क्रियावान संत कहलायें। गाँव हो या शहर, धर्म स्थान पुराना हो या आधुनिक, बस अपना डेरा डाला और आडम्बर रहित चातुर्मास में मानवता का पाठ पढ़ाते हुए धर्म गंगा बहाते थे, एक यूरोपीयन लेखक ने लिखा है कि मैंने सब धर्मों के नियमों को देखा है पर जैन धर्म में महावीर स्वामी के बनाए संघ धर्म के मुकाबले का और कोई सिद्धान्त नहीं जचता। आज परिस्थितियां बदल गई हैं, एक अलग ही भूगोल देखने को मिलता है। समाज में धन की बढ़ोत्तरी के साथ ही आडम्बर का प्रवेश भयानक मोड़ ले रहा है। चातुर्मास में खर्चे लाखों-करोड़ों तक पहुँच गये हैं। जैन धर्म में अनेक सम्प्रदाय होने के कारण इस क्षेत्र में भी प्रतिस्पर्धा ने अपनी नींव जमा ली है। धन कमाने में प्रतिस्पर्धा तो समझ में आती है लेकिन व्यर्थ में धन गवाने की प्रतिस्पर्धा आश्चर्यजनक लगती है, ऐसा लगता है धर्म व समाज पर धनपतियों का एकाधिकार हो गया है तथा सारी सत्ता उनके कदमों में सिमट गई है, अपनी जबरन प्रतिभा को उभारने के लिए धर्म संस्थानों का गलत उपयोग हो रहा है। आपके पास पैसा है तो आप भगवान के चरण छू सकते हैं, धार्मिक कार्यक्रमों में आगे की कतार में बैठ सकते हैं या फिर बड़े साधु-संतों के नजदीक जा सकते हैंं, शायद मेरी यह बात गलत लगेगी, लेकिन मैंने जो प्रत्यक्ष देखा व सुना है उसी का वर्णन कर रहा हूँ। भारत में होनेवाले चातुर्मास में सालाना खर्चों का अनुपात अगर २०० करोड़ भी आंके और उसमें से ५० प्रतिशत जनहित कार्यों में लगाया जाये तो प्रतिवर्ष एक भव्य अस्पताल या २०-२५ पाठशालाएँ या कोई रिसर्च सेंटर या फिर हजारों स्वधर्मी भाई-बहनों को मदद मिल सकती है। मानवता के मसीहा महावीर के उपदेशों में कहीं भी आडम्बर की चर्चा नहीं मिलती है। वे एक योगी थे लेकिन हम भोगी बन गये हैं, हमारी सारी धार्मिक प्रवृत्तियाँ विद्रोह को निमंत्रण दे रही है। आज हमें जरुरत है अपनी करनी, कथनी में समानता लाने की, महावीर को श्रद्धा से मन में बसाकर, आडम्बरों की होली जलाकर, दीपावली के दीप मन में प्रज्ज्वलित करने की। अन्यथा भविष्य में ऐसे दुष्परिणाम सामने आयेगें जिससे समाज का ढांचा चरमरा जायेगा। हमारे वरिष्ठ संतों ने समाज के लिए महत्वपूर्ण योगदान देकर आदर्श परम्पराओं की सुदृढ़ नींव रखी, उनको बरकरार रखना हमारे वर्तमान संत मुनिराजों का कत्र्तव्य बन जाता है जिससे जैन धर्म और नयी ऊँचाईयां छू सके, मैं उनसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि धर्म के नाम पर तथा समाज में हो रहे आडम्बर को अति शीघ्र रोकने का प्रयास करें, आपके उपदेश संजीवनी का काम करते हैं, आज भी साधु-साध्वियों के प्रति समाज में श्रद्धा का भाव है, अपने स्वार्थ की होली जलाकर जैन समाज को एक नई दिशा व प्रेरणा प्रदान करने का कष्ट करें, जैन धर्म को एक राष्ट्र धर्म बनाने के सपने को साकार करें। सादर जय जिनेन्द्र! चातुर्मास क्यों चातुर्मास स्व पर कल्याण के लिए एक सुनहरा समय है। चातुर्मास साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका हेतु धर्म आराधना, साधना व धर्म प्रेरणा संदेश के लिए विशिष्ट महत्व रखता है। वर्ष भर में तीन चातुर्मासिक पर्व आते हैं। आषाढ पूर्णिमा या (चतुर्दशी) कार्तिक पूर्णिमा व फाल्गुन पूर्णिमा इन तीनों में आषाढ़ी पुर्णिमा वर्षाकालीन का विशेष महत्व है। ८ माह पदयात्रा विचरण करने वाले संत-साध्वी वर्षावास हेतु एक ही स्थान पर चार माह के लिए स्थिर हो जाते हैं, इस समय में साधु-साध्वी आत्मकल्याण, ज्ञान, दर्शन. चारित्र, तप की आराधना व जीवों की रक्षा तथा धर्म अनुष्ठानों की विशेष प्रेरणा देते हैं, वैसे तो मानव को हर पल, हर क्षण धर्म साधना करनी चाहिए लेकिन विभिन्न दायित्वों के कारण बारह माह धर्म आराधना न कर सके उनके लिए चातुर्मास वरदान स्वरुप है, जैसे आषाढ़ के बादलों को देखते ही मयूर गर्जन सुनने के लिए उत्कंठित हो जाता है, वैसे ही चातुर्मास के निकट आते ही श्रद्धालुजन, भक्तजन भगवान की वाणी को श्रवण व साधना हेतु उत्सुक हो जाते हैं। व्यवहार में भी चातुर्मास का अपना विशेष महत्व है, इन दिनों हुई बरसात मानव को पूरे साल भर सरसता प्रदान करती है, जैसे कि एक राजा ने अपने सभासदों में प्रश्न किया कि बारह में से चार गए तो पीछे क्या बचेगा? कईयों ने उत्तर दिया-आठ, किन्तु राजा संतुष्ठ नहीं हुए, राजा ने महामंत्री से पूछा तो हाथ जोड़कर कहा कि- अन्नदाता बारह में से यदि चार चले गये तो पीछे कुछ भी नहीं बचेगा। राजा ने पूछा-यह कैसे? मंत्री ने समाधान दिया कि महाराज एक वर्ष में बारह महिनों में वर्षा ऋतु के चातुर्मास के चार महीने निकाल दिये जायें तो शेष शून्य ही रहेगा। यदि चातुर्मास के चार माह पानी नहीं बरसा तो शेष आठ माह में हाहाकार, त्राहि-त्राहि मच जाएगी क्योंकि एकेन्द्रिय से पांचेन्द्रिय तक के सभी जीवों के लिए जल आवश्यक है। मंत्री के उत्तर से राजा व सभी सभासद संतुष्ट हुए, जैसे जल के कारण ही चातुर्मास का महत्व बढ़ता है उसी प्रकार भगवान की वाणी रुपी वर्षा धर्म साधना, आराधना से ही चातुर्मास का महत्व बढ़ता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष की ज्वाला से तपते हुए मन की धरती को शीतल और शांत बनाएंगे। हिंसा, स्वार्थ, वासना की गंदगी को दूर करने का प्रयास करेंगे। धर्म में अडिग रहते हुए सुख-दु:खों में समभाव रखेंगे। प्रभु वचनों को सद्गुरु मुख से श्रवण कर, अपने जीवन की दिशा बदलेगें। आत्म शोधन कर अपने प्रकृति स्वभाव में परिवर्तन लायेंगे और दुर्गुणों का नाश कर सद्गुणों का बीजारोपण करेंगे। व्यसन मुक्त संस्कार युक्त जीवन के साथ हर वर्ग को जोड़ते हुए धर्म के सही मर्म को समझाते हुए स्वाध्याय, ध्यान, तपस्या की ज्योति जलायेगें, तभी चातुर्मास का यह सुनहरा समय सार्थक होगा, तभी परम पद प्राप्ति की मंजिल की ओर अग्रसर हम हो पायेंगे। -महेश नाहटा जैन नगरी (छ.ग.) मो. ०९४०६२०१३१५१

दिल्ली में तपस्वियों का सम्मान​ 0

दिल्ली में तपस्वियों का सम्मान​

दिल्ली: दिनांक ३० सितम्बर को बड़ी श्रद्धा एवं हर्षोल्लास से उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी म.सा. का ३७ वाँ दीक्षा समारोह सम्पन्न हुआ, इस अवसर पर क्षमावाणी महापर्व का भी आयोजन किया गया, जिसमें दिल्ली में १० उपवास व इससे अधिक उपवास करने वालों को विशेष रूप से सम्मानित किया गया, कार्यक्रम में ३१०८ यात्रियों को श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा के टिकट वितरित किए गए, इस अवसर कई गणमान्यों के साथ ही केंद्रीय विज्ञान प्रोद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन व दिल्ली के स्वास्थ मंत्री सत्येन्द्र जैन भी उपस्थित थे, जिन्होंने सभा को सम्बोधित भी किया। एकता में शक्ति मुझे जिनागम पत्रिका मिली, बराबर तीन दिनों तक इस पत्रिका पर चिन्तन किया, बहुत ही शिक्षाप्रद है, थोड़ा सा समय हमसभी आत्म चिन्तन में लगायें, जैन समाज जो बिखरा हुआ है, हम आपस में झगड़ते हैं, जिसका लाभ दूसरों को मिल जाता है। दिगम्बर-श्वेताम्बर हम सब ‘एक’ बन जायें, भारत में शासन करने लगें, एकता में ही शक्ति निहित है। उदाहरण के तौर पर एक छोटा सा लेख लिख रहा हूँ, ध्यान से पढिये और आत्म चिन्तन करिये। एक व्यक्ति के पास रेशम का धागा था, रेशम के धागे आपस में लड़ने लगे, अलग-अलग रहने की सबने ठानी। धागे दर्जी के पास गये और कहा हमारे टुकड़े कर दो। दर्जी ने रेशम के धागे के टुकड़े कर दिये। धागे हवा से इधर-उधर हो गये, एक व्यक्ति आया उसने देखा, रेशम के धागे हैं जिसको एक कर बड़ा से गट्टा बना दिया, फिर जंगल में गया खजूर की पत्तियों को इकट्ठा किया, फिर उसकी सिलाई करके चटाई बनाई, उसने चटाई को बाजार में बेच दिया। धागे अलग अलग रहे तो कोई नहीं पूछा, जब एक हो गये तो उसका आदर हो गया, इसी तरह जैन समाज अलग-अलग रहेगें तो हमारे ऊपर हमले होते रहेगें, चारों सम्प्रदाय एक हो जायें तो हमारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। धर्म एक है, मान्यता अलग रहे हमारे धर्म पर, हमारे मुनियों पर हमले हों तो उस समय ‘एकता’ का परिचय जरूर दें। ‘हिन्दी’ हमारी राष्ट्रीय भाषा है फिर भी हम हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं मानते, जब ‘हिन्दी’ को सभी भारतीय बोलने लग जायेगें, तो भारत का नाम दुनिया में रोशन हो जायेगा, ‘हिन्दी’ भाषा राष्ट्र की है जिसके हम अनुयायी हैं। – महावीर प्रसाद अजमेरा जोधपुर

तेरापंथ स्थापना दिवस पर कहा रहे 0

तेरापंथ स्थापना दिवस पर कहा रहे

तेरापंथ की फुलवारी सदा हरी-भरी – शासनश्री मुनि विजय कुमार यह जगत् द्वन्द्वात्मक है, अनेक प्रकार के विरोधी द्वन्द्व हमें यहां देखने को मिलते हैं, दिन-रात, सर्दी-गर्मी, मृदु-कठोर आदि द्वन्द्वों की तरह ही कभी पतझड़ तो कभी वसंत के दर्शन यहां होते रहते हैं, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे कोई रोक नहीं सकता, व्यक्ति और समूह दोनों में यह विविधता दिखाई देती है, अनुकूल परिस्थिति घटित होने पर व्यक्ति को लगता है ‘अच्छे दिन आ गये’ और प्रतिकूलता घटित होने पर लगता है ‘अच्छे दिन चले गये’। समय के बदलाव के साथ व्यक्ति की सोच में भी बदलाव परिलक्षित होता रहता है। तेरापंथ एक धर्मसमुदाय है, इसकी प्राण -प्रतिष्ठा महान् तपस्वी आचार्य भिक्षु के हाथों हुई। संघ चिरजीवी व स्वस्थ बना रहे इसके लिए उन्होंने इस धर्मसंघ की नींव में मर्यादा और अनुसाशन के दो ऐसे पीलर लगाये कि ये आने वाले हर खतरे से संघ को सुरक्षित रख लेते हैं, एक आचार्य के नेतृत्व में सारी सत्ता सौंपकर उन्होंने धर्मसंघ पर महान् उपकार किया। आचार्य की जागरूकता ही समूचे संघ को निश्चिन्तता व स्वस्थता प्रदान करती है, संघ के सदस्यों में निश्चिन्तता व आश्वासन ही संघ की जीवन्तता का सबल प्रमाण है। संघ षाट्त्रिशिका में आचार्य श्री तुलसी ने लिखा हैविश्वस्ता यत्र स्वस्था:स्यु: रुग्णा वृद् धास्तपस्विन:।सुश्रूषया समाश्चस्ता: स संघ:संघ उच्यते।। जिस संघ में रुग्ण, वृद्ध और तपस्वी संत-सती अपनी सेवा के लिए निश्चिन्त रहते हैं, उन्हें अपने सुखद भविष्य का भरोसा होता है, वे समाधिस्थ होते हैं, वास्तव में वही संघ विशिष्ट है। तेरापंथ में दीक्षित होने वाले व्यक्ति को निश्चिन्तता का वरदान सहज प्राप्त हो जाता है, यहां सबकी चिंता का भार गुरु अपने पर ले लेते हैं, शिष्य के सुख-दु:ख मानकर चलते हैं। रामायण का एक प्रसंग है, कहते हैं कि राम-लक्ष्मणसीता वनवास संपन्न कर अयोध्या आये तब कौशल्याजी ने लक्ष्मण से पूछा- ‘तेरे पर शक्ति का प्रहार कहां हुआ था’ लक्ष्मण बोले- ‘वेदना राघवेन्द्रस्य केवलं व्रणिनो वयम’ मेरे तो केवल घाव हुआ था, वेदना तो बड़े भाई राम को हुई थी, यही स्थिति ‘तेरापंथ’ में देखने को मिलती है। शारीरिक रुग्णता संत-सतियों को होती है किंतु उसकी वेदना का अनुभव संघ के नायक आचार्य को होता है, वे किसी की कठिनाई सुनते ही उसके निवारण के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं, मैं आज से लगभग ५० वर्ष पहले की अपनी ही बात यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ, मेरी दीक्षा का दूसरा वर्ष चल रहा था, उस समय गुरूदेव तुलसी की दक्षिण यात्रा चल रही थी, तेज गर्मी का मौसम था, मुनि हीरालाल जी स्वामी रात के समय संतों को सोने की जगह बता रहे थे, मुझे जहां सोने का स्थान बताया, वहां बेहद गर्मी थी, मैंने मुनिश्री से दूसरे स्थान के लिए निवेदन किया किंतु उन्होंने अपनी मजबूरी बता दी। गुरुदेव तुलसी के कानों में मेरा व मुनिश्री का संवाद पड़ा। पूज्यवर ने मुनि हीरालाल जी को आवाज लगाई और कहा कि हीरालाल! मेरे पास यह थोड़ी जगह खाली है उस विजय कुमार को मेरे पास सुला दें, मैंने संकोच अनुभव किया पर गुरुदेव की वत्सलता ने मुझे वहां सोने के लिए मजबूर कर दिया, यह है गुरु की अतिशायी कृपा, जो शिष्यों की पीड़ा को धो डालती है। वर्तमान में हम आचार्य श्री महाश्रमणजी को देख रहे हैं, वे प्रलंब और सुदूर यात्रा पर विहरमाण हैं। वृह्द संघ परिवार उनसे दूर है किंतु दूरी का अनुभव किसी को नहीं होने देते, दूर होते हुए भी वे एक-एक साधु-साध्वी की अपेक्षाओं का, उसकी चित्तसमाधि रखते हैं, किसी को भी अकेलेपन का अनुभव करने की जरूरत नहीं है, गुरु का सिंचन और संपोषण शिष्यों को दूर होते हुए भी निकटता का अहसास कराता है। शिष्यों की समाधि के लिए गुरु और शिष्य का यह अद्भूत तादात्म्य केवल ‘तेरापंथ’ में ही देखने को मिलता है। उदयपुर में साध्वी प्रमुखाश्री जी के घुटनों का ऑपरेशन हो रहा था, आचार्य महाश्रमणजी जो उस समय युवाचार्य थे, वहां हॉस्पिटल में पधार, साध्वी प्रमुखाश्री जी से कहा अगर आपको खून की जरूरत हो तो हम दे सकते  हैं। यद्यपि जरूरत नहीं पड़ी किंतु ऐसी भावना रखना अपने आप में महत्त्व की बात है। आचार्यवर के श्रीचरणों में अनेक छोटे-बड़े संत रहते हैं, सबको मार्गदर्शन देना, उन्हें संबल प्रदान करना, हताशा व निराशा से उन्हें बचाना गुरुवर के प्रशासन-कौशल की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। केवल साधु-साध्वियों को ही नहीं, श्रावकश्राविकाओं को भी आचार्यवर संपोषण देते रहते हैं, उनकी भावनाओं को तोड़ते नहीं, जोड़ते हैं। विज्ञप्ति में कई बार पढ़ते हैं तब जानकारी होती है कि कभी-कभी तो विहार से भी ज्यादा श्रम और भ्रमण घरों में वृद्ध-बीमार व्यक्तियों को दर्शन देने में हो जाता है। गुरु द्वारा प्रदत्त संबल और उनकी निश्छल मुस्कान श्रावक-श्राविकाओं के लिए शक्तिवर्धक और आनंदवर्धक रसायन का काम करती, आधि-व्याधि को दूर कर देता है, किसी भी उद्यान को सरसब्ज और सुरम्य बनाये रखने के लिए केवल सिंचन ही नहीं, अनावश्यक पत्तों व डालियों की कांट-छांट करनी भी आवश्यक होती है, संघ के अनुशास्ता भी दोषों के निवारण के लिए अहर्निश सजग रहते हैं। आदिगुरु आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्य महाश्रमण तक के इतिहास में इस तरह के अनेक प्रसंग हमें पढ़ने व सुनने को मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि तेरापंथ में कभी कोई विघटन नहीं हुआ, दोषों को पनपने को मौका नहीं आया। सारणा-वारणा अर्थात् गुणों को प्रोत्साहन और त्रुटियों पर अंगुलि निर्देश आदि विशेषताएं आचार्यों में होनी जरूरी है, नेतृत्व की यह निपुणता ‘तेरापंथ’ में हम सदा से देखते रहे हैं, इसी वजह से तेरापंथकी फुलवारी सदा हरी-भरी और सुरम्य रहती है, ऐसी बसंत की छटा तेरापंथ उद्यान में सदा-सदा बनी रहे, ‘जिनागम’ परिवार भी ऐसी मंगल कामना करता हैं।