Category: जून-२०२१

आचार्य महाप्रज्ञ के जीवन का रहस्य (Secrets of the life of Acharya Mahapragya)

आचार्य महाप्रज्ञ के जीवन का रहस्य (Secrets of the life of Acharya Mahapragya)अनेकांत का दृष्टिकोण : भाग्य मानूँ या नियति? सबसे पहली बात-मुझे जिन शासन मिला, जिन शासन का अर्थ – अनेकांत का दृष्टिकोण मिला, मैंने अनेकांत को जिया है, यदि अनेकांत का दृष्टिकोण नहीं होता तो शायद कहीं न कहीं दल-दल में पँâस जाता।मुझे प्रसंग याद है कि दिगम्बर समाज के प्रमुख विद्वान वैâलाशचंद्र शास्त्री आए, उस समय पूज्य गुरूदेव कानपुर में प्रवास कर रहे थे। मेरा ग्रंथ ‘जैन दर्शन, मनन और मीमांसा’ प्रकाशित हो चुका था, पंडित वैâलाशचंद्र शास्त्री ने कहा- मुनि नथमलजी ने श्वेताम्बर-दिगम्बर परंपरा के बारे में जो लिखना था, वह लिख दिया, वह हमें अखरा नहीं, चुभा नहीं, जिस समन्वय की शैली से लिखा है, वह हमें बहुत अच्छा लगा।मुझे अनेकांत का दृष्टिकोण मिला, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ, जिस व्यक्ति को अनेकांत की दृष्टि मिल जाए, अनेकांत की आँख से दुनिया को देखना शुरू करे तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाता है।अनुशासन का जीवन : दूसरी बात-मुझे तेरापंथ में दीक्षित होने का अवसर मिला, मैं मानता हूँ – वर्तमान में तेरापंथ में दीक्षित होना परम सौभाग्य है वह इसलिए कि आचार्य भिक्षु ने जो अनुशासन का सूत्र दिया, जो अनुशासन में रहने की कला और निष्ठा दी, वह देवदुर्लभ है, अन्यत्र देखने को नहीं मिलती।मैंने अनुशासन में रहना सीखा, जो अनुशासन में रहता है, वह और आगे बढ़ जाता है, आत्मानुशासन की दिशा में गतिशील बन जाता है। तेरापंथ ने विनम्रता और आत्मानुशासन का जो विकास किया, वह साधु-संस्था के लिए ही नहीं, समस्त समाज के लिए जरूरी है।विनम्रता और आत्मानुशासन : महानता के दो स्त्रोत होते हैं – स्वेच्छाकृत विनम्रता और आत्मानुशासन, जो व्यक्ति महान होना चाहता है अथवा जो महान होने की योजना बनाता है, उसे इन दो बातों को जीना होगा, जो व्यक्ति इस दिशा में आगे बढ़ता है, विनम्र और आत्मानुशासी होता है, अपने आप महानता उसका वरण करती है।मुझे तेरापंथ धर्मसंघ में मुनि बनने का गौरव मिला और उसके साथ मैंने विनम्रता का जीवन जीना शुरू किया, आत्मानुशासन का विकास करने का भी प्रयत्न किया, मुझे याद है – इस विनम्रता ने हर जगह मुझे आगे बढ़ाया, जो बड़े साधु थे, उनका सम्मान करना मैंने कभी एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं किया, सबका सम्मान किया।आचार्य तुलसी के निकट रहता था, विश्वास था कि जो गुरूदेव से बात करेंगे, उसका काम हो जाएगा, जो भी समस्या आती, मैं उसके समाधान का प्रयत्न करता, मैं छोटा था बड़े-बड़े साधु मुझे कहते, पर मैंने हमेशा उनके प्रति विनम्रता और सम्मान का भाव बनाए रखा, कभी उनको यह अहसास नहीं होने दिया कि कहीं कोई बड़प्पन का लक्षण मुझमें है।मैंने आत्मानुशासन का विकास किया, शासन करना न पड़े, जो स्वयं अपना नियंत्रण स्वयं अपने हाथ में लें, जिसका अर्थ यह माना जाये कि वह व्यक्ति अपने भाग्य की चाबी अपने हाथ में ले लेता है।गुरू का अनुग्रह: मैंने आचार्य भिक्षु को पढ़ा, उनकी जो संयम निष्ठा थी, त्याग और व्रत की निष्ठा थी, उसे पढ़ने से जीवन को समझने का बहुत अवसर मिला, पूज्य गुरूदेव का अनुग्रह था, जब भी कोई प्रसंग आया, मुझे कहा – ‘तुम यह पढ़ो’, शायद आचार्य भिक्षु ने पढ़ने का जितना मुझे अवसर दिया, मैं कह सकता हूँ – तेरापंथ के किसी भी पुराने या नए साधु को पढ़ने का उतना अवसर नहीं मिला होगा, उनकी क्षमाशीलता, उनकी विनम्रता, उनकी सत्यनिष्ठा को समझने और वैसा जीने का भी प्रयत्न किया है मैंने….मुझे आचार्य तुलसी से तो सब कुछ मिला था, उनके पास रहा, जीवन जिया, उन्होंने जो कुछ करना था, किया, इतना किया कि पंडित दलसुख भाई मालवणिया जितनी बार आते, कहते, ‘श्री आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ-गुरू और शिष्य का ऐसा संबंध पच्चीस सौ वर्षों में कहीं रहा है, हमें खोजना पड़ेगा?’नवीनता के प्रति आकर्षण : अध्ययन का क्षेत्र बढ़ा, सिद्धसेन दिवाकर की जो एक उक्ति थी उसने मुझे बहुत आकृष्ट किया, उनका जो वाक्य पढ़ा, सीखा या अपने हृदय पटल पर लिखा, वह यह है – ‘जो अतीत में हो चुका है, वह सब कुछ हो चुका, ऐसा नहीं है’ सिद्धसेन ने बहुत बड़ी बात लिख दी – ‘मैं केवल अपने अतीत का गीत गाने के लिए नहीं जन्मा हूँ, मैं शायद उस भाषा में न भी बोलूँ, पर मुझे यह प्रेरणा जरूर मिली कि कुछ नया करने का हमेशा अवकाश रहता है, हम सीमा न बाँधें कि सब कुछ हो चुका है, अनंत पर्याय है, आज भी नया करने का अवकाश है। कुछ नया करने की रूचि प्रगाढ़ होती गई, मुझे कुछ नया भी करना चाहिए, कोरे अतीत के गीत गाने से काम नहीं होगा। वर्तमान में भी कुछ करना है – मेरे गीत मत गाओ, कोरे अतीत के गीत मत गाओ, कुछ वर्तमान को भी समझने का प्रयत्न करो।आचार्य हरिभद्र, जिनभद्र, गणि क्षमाश्रमण, आचार्य हेमचंद्र, आचार्य मलयगिरी, आचार्य कुंदकुंद आदि-आदि ऐसे महान आचार्य हुए हैं, जिन्हें पढ़ने पर कोई न कोई नई बात ध्यान में आती गई, मैं उन सबका संकलन और अपने जीवन में प्रयोग करता रहा। योग का संस्कार : दूसरी बात यह थी – जब मैं छोटा था तब गाँव में रहा, टमकोर छोटा-सा गाँव है। पाँच-सात हजार की आबादी वाला गाँव, हम कई बच्चे खेल रहे थे, गाँव में ज्यादा कोई काम तो होता नहीं, पढ़ाई करते नहीं थे, विद्यालय भी नहीं था। सारा दिन खेलकूद करते रहना, रोटी खाना और सो जाना, बस यही क्रम था। मैंने लक्ष्य बनाया था – मुझे अच्छा साधु बनना है और मुझे जिन शासन की, भिक्षु शासन की और मानवता की सेवा में लगना है, काम करना है, जीवन भर यही लक्ष्य रहा, लक्ष्य में कोई अंतर नहीं आया, समस्याएँ आती-रहती हैं, बाधाएँ आती हैं, उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, पर लक्ष्य आपका निश्चित हो तो आप मंजिल तक जरुर पहुँचेगें। आचार्य महाप्रज्ञ के जीवन का रहस्य (Secrets of the life of Acharya Mahapragya)

जन्म दिवस के पावन अवसर पर आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जीवन दर्शन प्रस्तुत(Acharya Shri Mahapragya)

जन्म दिवस के पावन अवसर पर आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जीवन दर्शन प्रस्तुत (Presenting the life of Acharya Shri Mahapragya on the auspicious occasion of his birthday.)जन्म : राजस्थान प्रान्त के झुँझुनुँ जिला, टमकोर (विष्णुगढ़) नामक गाँव, विक्रम संवत् १९७७, आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी (१४ जून १९२०) का दिन, गोधूली वेला, १७.०९ बजे, स्थानिक समय सायं लगभग १६.४० बजे, सोमवार, वृश्चिक राशि, कृत्तिका नक्षत्र में श्रीमती बालूजी ने खुले आकाश में एक पुत्ररत्न को जन्म दिया।चोर आ गया : जब बालक का जन्म हुआ, उसकी बुआ जड़ावबाई ने छत पर चढ़कर जोर से शोर मचाया- ‘चोर आ गया’, उनकी आवाज सुनकर चोरड़िया परिवार के पुरूष लाठी लेकर आ गए, जब घर में आए तो उनको सही स्थिति की जानकारी दी गई कि जिस माता के बच्चे जीवित नहीं रहते, उसके लिए ऐसा किया जाता है।नामकरण : नामकरण संस्कार के अन्तर्गत बालक का नाम ‘इन्द्रचन्द’ रखा गया, किन्तु वह व्यवहार में नहीं आया, फिर उसे परिवर्तित कर ‘नथमल’ नाम रखा गया, कारण यह था कि जन्मजात शिशु के दो अग्रज अल्प अवस्था में ही काल-कवलित हो गए थे, इसलिए वर्तमान शिशु को दीर्घजीवी बनाने के लिए उसका नाक बींध कर उसको ‘नथ’ पहनाई गई, नथ पहनाने के कारण बालक का नाम नथमल रखा गया। वंश परम्परा: श्री बीजराज चोरड़िया जैन के चार पुत्र थे- १. गोपीचन्द २. तोलाराम ३.बालचन्द, ४. पन्नालाल, इन चारों ही भाइयों की वंश परम्परा में जन्मीं सन्तानें तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित हुईं, श्री गोपीचन्द चोरड़िया की दौहित्रियाँ साध्वी मंजुला जैन (गणमुक्त), साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा। तोलारामजी चोरड़िया के सुपुत्र आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी एवम सुपुत्री साध्वी मालूजी। बालचन्दजी चोरड़िया जैन की पुत्री साध्वी मोहनाजी (गणमुक्त) पन्नालाल चोरड़िया जैन की पुत्री साध्वी कमलजी।श्री तोलाराम चोरड़िया के कुल पाँच सन्तानें हुईं- तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ। तीन पुत्रों में से दो पुत्र तो लघुवय मेंं ही पंचतत्व को प्राप्त हो गए, जिनमें से एक का नाम गोरधन बताया जाता है, एक का नाम अज्ञात है, शायद उसका नामकरण हुआ ही न हो, तीसरा पुत्र ‘नथमल’ नाम से पहचाना गया, बड़ी पुत्री मालीबाई की शादी चूरू निवासी सोहागमल बैद जैन के पुत्र चम्पालाल बैद जैन के साथ और दूसरी पुत्री प्याराँ (पारी) बाई की शादी बीदासर निवासी केशरीमल बोथरा जैन के पुत्र मेघराज बोथरा जैन के साथ हुई।कालान्तर में पहली पुत्री मालूजी के जीवन में एक नया मोड़ आया, वे अठारह वर्ष की हुईं तभी उनके पति का स्वर्गवास हो गया, तत्पश्चात मालूजी की दीक्षा लेने की भावना प्रबल होने लगी, किन्तु श्वसुर-पक्ष वालों ने किसी आशंका के कारण उनको दीक्षा की अनुमति नहीं दी, बाद में वह आशंका निर्मूल हो गई, तब ससुराल की ओर से उन्हें दीक्षा के लिए लिखित आज्ञा मिल गई, फिर दीक्षा-प्राप्ति में कोई अवरोध नहीं रहा, श्री महाप्रज्ञ ने भी गुरूदेव तुलसी से उनकी दीक्षा की प्रार्थना की।पूज्य गुरुदेव तुलसी का विक्रम संवत् १९९८ का चातुर्मासिक प्रवास राजलदेसर में हो रहा था। कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन गुरुदेव तुलसी ने मालूजी को दीक्षा की स्वीकृति प्रदान की। दीक्षा में दो दिन शेष थे। कार्तिक कृष्णा नवमी के दिन गुरूदेव ने सत्ताईस मुमुक्षुओं को दीक्षा प्रदान की, उनमें चार भाई और तेईस (मुमुक्षु) बहिनें थीं, इन बहिनों में मालूजी सबसे ज्येष्ठ थीं। साध्वी मालूजी ने चौपन वर्ष चार मास और १५ दिन तक संयम आराधना की, विक्रम संवत २०५२, फाल्गुन शुक्ला नवमी के दिन उन्होंने अनशन के साथ जीवन यात्रा को सम्पन्न किया। मातृत्व का वैशिष्ट्य : जब बालक लगभग ढाई मास का हुआ तभी उसके सिर से पिता का साया उठ गया, उस समय परिवार में मात्र चार सदस्य थे- माँ बालूजी, बड़ी पुत्री मालीबाई, छोटी पुत्री पारीबाई और पुत्र नथमल। तोलाराम के स्वर्गवास के कुछ समय बाद श्रीमती बालूजी अपनी माँ के पास चली गईं, बालक नथमल जब लगभग ढाई वर्ष का हुआ तब बालूजी अपनी सन्तानों के साथ वापस ‘टमकोर’ आ गईं, उस समय सब चीजें सस्ती थीं, पास में कुछ संसाधन था और दुकान भी चलती थी। भरण-पोषण में कोई आर्थिक संकट नहीं आया, किन्तु परिवार में पिता का न होना अपने-आप में एक बड़ा संकट था। माँ बालूजी ने इस संकट का अनुभव, अपनी सन्तानों को नहीं होने दिया, जो कि उनके मातृत्व का वैशिष्ट्य था। माता बालूजी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं, प्रतिदिन पश्चिम रात्रि में जल्दी उठकर सामायिक करतीं तथा तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी द्वारा रचित चौबीसी, आराधना और तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु के स्तुति- भजनों का संगान करती थी, बालक नथमल सोए-सोए भजनों को सुना करता था।‘सन्त भीखणजी रो समरण कीजै’ गीत के बार-बार श्रवण से बालक के मन में आचार्य भिक्षु के प्रति श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो गया। माँ बालूजी! बालक नथमल को संस्कारी बनाने में बहुत सजग थीं, जब तक बालक साधुओं/साध्वियों के दर्शन नहीं कर लेता, उसे शान्ति नहीं आती, माता सत्यवादिता पर बल दिया करती और जप करना सिखाती थीं। आकाश-दर्शन : बालक नथमल में आकाश को पढ़ने का शुरू से ही आकर्षण था, अपने घर में सोया-सोया वह सामने वाली दीवार पर देखता रहता। श्री गोपीचन्द की हवेली में ऊपर ‘मालिये’ में चला जाता और उसमें खिड़की से घण्टों तक आकाश काे देखता रहता, बालक को नई-नई चीजें दिखाई देती। गाय का दूध : घर के प्रवेश के रास्ते पर गाय बँधती थी, पारीबाई गाय को दुहती थी। बालक नथमल प्याला लेकर पारीबाई के पास बैठ जाता, वह गाय को दुहती जाती और बालक नथमल दूध पीता जाता।अध्ययन : टमकोर एक छोटा गाँव है, उस समय तो वह सुविधाओं से वंचित था। राजकीय विद्यालय भी वहाँ नहीं था, सम्भवत: यही कारण रहा होगा कि बालक नथमल को राजकीय विद्यालय के अध्ययन से वंचित रहना पड़ा। आर्यसमाजी गुरु विष्णुदत्त शर्मा की पाठशाला में वर्णमाला और पहाड़े पढ़े, कुछ अध्ययन अपने ननिहाल सरदारशहर में किया, बालक अपने ननिहाल में कभी दो महीने तो कभी छह महीने तक भी रहा करता था।भाग्य खुल गया : अक्सर छोटे बच्चे चंचल होते हैं, बालक नथमल भी उसका अपवाद नहीं था, एक दिन उसने बालसुलभ चपलता के अनुरुप अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और चलने लगा, थोड़ा सा चला और दीवार से टकरा गया। ललाट पर चोट लग गई। खून बहने लगा। बच्चे के लिए माँ का सबसे बड़ा आलम्बन होता है, वह रोता-रोता माँ के पास गया, उसी दिन उसकी बहिन पारीबाई की शादी थी, इसलिए पारिवारिकजन उसमें लगे हुए थे, किसी ने बालक की ओर ध्यान नहीं दिया, पर माँ! ध्यान वैâसे नहीं देती? कुछ उलाहना दिया, कुछ पुचकारा, पट्टी बाँध दी, ठीक हो गया। ‘आज तुम्हारा भाग्य खुल गया’ यह कहकर उसका दर्द दूर कर दिया।आजीवन अंकित : बालक नथमल अपने साथियों के साथ कर्ई प्रकार के खेल खेला करता था, दियासलाई से टेलीफोन बनाना, तिनके का धनुष बनाना, पेड़ से रस्सी बाँधकर झूला झूलना, एक बार खेलते समय कोई नाम गोदने वाला व्यक्ति आया, बालक ने अपने हाथ पर नाम गुदवाया ‘नथमल’, जो आजीवन अंकित रहा।देव-मान्यता : संसार में विभिन्न देव और देवियाँ प्रतिष्ठित हैं, वे भिन्न-भिन्न लोगों की आस्था के केन्द्र भी बने हुए हैं, श्री महाप्रज्ञ के संसारपक्षीय परिवार में बाबा रामदेव की मान्यता थी, इसलिए वे उनके मुख्य केन्द्र ‘रूणेचा’ भी गए।क्रोध से क्षमा की ओर : सन्त वह होता है, जो शान्त होता है। काम, क्रोध, अहम्, लोभ आदि निषेधात्मक भावों का दीमक सन्तता की पोथी को चट कर जाता है, ये भाव एक बालक में भी हो सकते हैं। बालक नथमल को बचपन में गुस्सा आता था, उस अवस्था में वह कभी खाना नहीं खाता, पढाई बन्द कर देता, बोलना भी बन्द कर देता, वह खम्भा पकड़कर, दरवाजा पकड़कर खड़ा हो जाता, किसी की बात नहीं सुनता, पारिवारिक लोग मनाकर थक जाते, किन्तु वह तभी मानता, जब कड़कड़ाती भूख लग जाती तब की बात और… आज की स्थिति में जमीन-आसमान का सा अन्तर दिखाई दे रहा है, ज्यों-ज्यों विवेक जागृत हुआ, ज्ञान का विकास हुआ, त्यों-त्यों गुस्सा नियन्त्रित होता चला गया। एक बार श्री महाप्रज्ञ के कहा-मुझे दीक्षा के बाद गुस्सा कितनी बार आया, यह अंगुलियों पर गिना जा सकता है, ७५ वर्षों में सम्भवत: ७५ बार भी नहीं आया।तेलिया की भविष्यवाणी : प्रसंग उस समय का है, जब बालक नथमल लगभग आठ वर्ष का था। वह अपने घर के अहाते में साथियों के साथ खेल रहा था, उसी समय एक ‘तेलिया’ आया, उसने बालक को देखा और घर के भीतर चला गया, माँ बालूजी कुछ बहनों के साथ बातचीत कर रही थी, तेलिये ने राजस्थानी भाषा में कहा- ‘माँ जी! तेल घाल द्यो।’ बालूजी ने एक बहन को तेल लाने का निर्देश दिया, वह रसोईघर में गई, इस बीच तेलिया बोला- माँ! तू बड़ी भागवान है। बाखळ (घर के अहाते) में जो थाँरो बालक खेल रह्यो है, बो बड़ो पुनवान है’ बालूजी ने कहा- यदि मैं भागवान हुती तो म्हारो ‘घरवालो’ क्यूँ जातो? तेलिये ने कहा- थाँरो लड़को, जिको बाखळ में खेलै है, बो एक दिन राजा बणसी’ बालूजी का चेहरा खिल उठा। आस-पास बैठी महिलाओं को उसकी बातों में रस आने लगा, उन्होंने उससे पूछा- ‘अच्छा! और काँई बतावै है? तेलिये ने एक बहन की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘आ बहन गर्भवती है, आज स्यूँ आठवें दिन इरै एक लड़को हुसी, वह बहन हरखचन्द चोरड़िया जैन की धर्मपत्नी थी। तेलिये ने बालूजी से कहा- ‘बा तो पराये घर जासी, आपरै सासरै जासी, म्हांरी सेवा कियाँ करसी?’ चौथी बार तेलिये ने एक दु:खद बात कह डाली- सातवें दिन थाँरे एक पड़ोसी रे लड़वैâ री मौत होसी’ बहिनों को यह बात बहुत अप्रिय लगी, उन्हें लगा कि यह आदमी ठीक नहीं है, यहाँ से जितनी जल्दी चला जाए, अच्छा है, तेलिये ने स्थिति को समझा, अपने पात्र में तेल का दान लेकर वहाँ से प्रस्थित हो गया। सातवाँ दिन आया, पड़ोस में रहने वाले अग्रवाल परिवार का आठ वर्षीय लड़का काल-कवलित हो गया, इस दु:खद घटना के घटते ही उस तेलिये को ढूँढा गया, लेकिन उसका कहीं अता-पता नहीं मिला, उसके दूसरे दिन हरखचन्द की धर्मपत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, तेलिये द्वारा की गई दो भविष्यवाणियाँ सच हो गईं। बालूजी की बड़ी पुत्री मालीबाई का विवाह हो चुका था, बालूजी अपने पुत्र नथमल के साथ संन्यास के पथ पर अग्रसर हो गईं। अकस्मात् एक दुर्घटना घटी, बालूजी के दामाद (मालूजी के पति) का देहान्त हो गया। मालीबाई का मन संसार से उद्विग्न हो उठा, संयम के पथ पर चलने का निश्चय प्रबल बन गया। वे तेरापंथ धर्मसंघ में प्रवर्जित होकर साध्वी मालूजी बन गईं। माँ-बेटी के अलग हुए रास्ते पुन: एक बन गए। पूज्य गुरुदेव ने साध्वी बालूजी की सेवा में साध्वी मालूजी को नियोजित किया। साध्वी मालूजी ने अन्तिम समय तक अपनी संसारपक्षीया माँ साध्वी बालूजी की सेवा की। तेलिये की तीसरी भविष्यवाणी भी सत्य साबित हो गई, अब चौथी भविष्यवाणी कसौटी पर चढ़ गई।कोलकाता में पहली बार : बालक नथमल लगभग नौ वर्ष का था। मेमन सिंह (वर्तमान में बाँग्लादेश) में उसकी चचेरी बहिन (माँ की पालित पुत्री) नानूबाई का विवाह था, उसमें सम्मिलित होने के लिए वह अपने स्वजन के साथ जा रहा था, बीच में कोलकाता में अपनी बुआ के घर ठहरा। शादी के लिए कुछ चीजें खरीदनी थीं। बालक नथमल के चाचा पन्नालाल और दुकान के मुनीम सुरजोजी ब्राह्मण सामान खरीदने के लिए बाजार जा रहे थे, नथमल भी उनके साथ हो गया, वह पहली बार ही कोलकाता आया था, उसे यहाँ का वातावरण बड़ा विचित्र-सा लग रहा था। पन्नालालजी और मुनीम ने दुकान से सामान खरीदा और आगे बढ़ गए। नथमल अकेला पीछे रह गया। मार्ग से अपरिचित बालक इधर- उधर झाँकने लगा, उस विकट बेला में उसने अपने हाथ की घड़ी खोली, गले में से स्वर्णसूत्र निकाला और दोनों को जेब में रख लिया, वह पीछे मुड़ा और अज्ञात मार्ग की ओर चल दिया, सौभाग्यवश वह यथास्थान पहुँच गया, उसने आप बीती सारी घटना माँ को सुनाई तो वे अवाक-सी रह गईं, तत्काल उनके मुख से निकला- ‘यह सब (पुत्र का यथास्थान पहुँच जाना) भीखणजी स्वामी के प्रताप से हुआ है, नहीं तो, इतने बड़े शहर में न जाने क्या घटित होता?’’ ज्ञातव्य है कि पन्नालालजी का नथमल के प्रति बहुत स्नेहभाव था, वे उसका बहुत ध्यान रखते थे।वैराग्य-भाव : श्री गोपीचन्द चोरड़िया की पुत्री छोटीबाई (साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी की संसारपक्षीया माँ) की शादी का प्रसंग था। टमकोर से लाडनूँ आते समय छोटीबाई का भाई नथमल साथ आया। वे लाडनूँ पहुँचे। यह परम्परा रही है कि बहिन को ससुराल पहुँचाने के लिए भाई साथ जाता है। पारिवारिक लोग सेवा केन्द्र में साध्वियों के दर्शनार्थ गए, अन्य जन ऊपर चले गए, नथमल नीचे ही खड़ा रह गया, उस समय बालक नथमल आत्मविभोर हो गया और उसके मानस में वैराग्य भाव का संचार हुआ। श्री महाप्रज्ञ ने कहा श्री तोलारामजी एक अच्छे व्यक्ति थे, सुन्दर आकृति वाले, लड़ाई-झगड़े से बचकर रहने वाले और उदार व्यवहार वाले थे। वे क्षत्रिय जैसे लगते थे। लगता है, उनको कुछ पूर्वाभास हो गया था, उन्होंने एक दिन मेरी संसारपक्षीया माँ श्रीमती बालूजी से कहा- ‘तुम एक पुत्र को जन्म दोगी, पर मैं नहीं रहूँगा।’ बालूजी तत्काल बोल उठी- ‘ऐसा बेटा मुझे नहीं चाहिए, जिसके आने पर आप न रहें।’ श्री तोलाराम का यह पूर्वाभास कुछ समय बाद ही सत्य साबित हो गया। श्री बीजराज चोरड़िया कहा करते थे कि हमारे परिवार में दो ऐसे व्यक्तित्व होंगे, जो विशिष्ट कार्य करेंगे, मैं और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा, हम दोनों ही उस परिवार के सदस्य हैं। जन्म के बाद दो-तीन वर्ष तक मुझे अन्न दिया ही नहीं गया था, दूध और फल पर ही रखा गया था, ऐसा बालूजी (संसारपक्षीया माँ) कहा करती थीं। साध्वी मालूजी (संसारपक्षीया बहिन) भी कहा करती थीं कि इससे हड्डियाँ मजबूत बनती हैं। मेरा सह क्रीड़ा बालक मूलचन्द चोरड़िया गणित में अच्छा था, यदि उसे निमित्त मिलता तो वह दुनियाँ का विशिष्ट गणितज्ञ बन जाता। श्री महालचन्द चोरड़िया जैन (सुपुत्र श्री गोपीचन्द चोरड़िया जैन) प्राणगंज से आए, वे मेरे लिए घड़ी व टॉर्च लाए थे, मैं टॉर्च जलाकर दिखाता व घड़ी बाँधकर समय बताता। विक्रम संवत् २०६३, भिवानी चातुर्मास। (श्रावण कृष्ण अमावस्या) श्री महाप्रज्ञ ने मातुश्री बालूजी की वार्षिकी के दिन व्यक्तिगत बातचीत के दौरान कहा कि मातुश्री बालूजी मुझे शिक्षा देती थीं कि कभी बाइयों के चक्कर में मत पड़ना। Presenting the life philosophy of Acharya Shri Mahapragya on the auspicious occasion of his birthday.

स्वर्गीय श्रीमती कमलावंती जैन जी की दूसरी पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि(tribute on the second death anniversary of Late Smt. Kamalavanti Jain ji)

स्वर्गीय श्रीमती कमलावंती जैन जी की दूसरी पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि(tribute on the second death anniversary of Late Smt. Kamalavanti Jain ji) प्यार को निराकार से साकार होने का मन हुआ, तो इस धरती पर माँ का सृजन हुआ धर्मनिष्ठ स्वर्गीय धर्मप्रकाश जैन जी (अंबाला वालों) की धर्मपत्नी तथा ड्यूक फैशन्स इंडिया लिमिटेड के चेयरमैन और जीतो के चीफ मैंटर कोमल कुमार जैन, नेवा गारमेंट्स प्रा.लि. के चेयरमैन निर्मल जैन, वीनस गारमेंट्स के अनिल जैन की माता वयोवृद्ध सुश्राविका स्व. श्रीमति कमलावंती जैन जी(२९.०५.२०१९) के दिन अपनी सांसारिक यात्रा पूर्ण कर प्रभु चरणों में विलीन हो गई थी।२९.०५.२०२१ को उनकी दूसरी पुण्यतिथि के अवसर में सभी परिवारजन एवं मित्रगणों ने उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। इसी अवसर पर कोमल कुमार जैन द्वारा गरीबों में लंगर का वितरण किया गया एवं कुछ जरूरतमंद परिवारों को यथा सम्भव राशन का भी वितरण किया गया। लंगर एवं राशन वितरण में ण्ध्न्न्घ्D-१९ के तहत सरकार द्वारा जारी किये गए दिशा-निर्देशों का पूर्ण रूप से ध्यान रखा गया।पाकिस्तान के गुजरांवाला में जन्मी और अम्बाला से लुधियाना आयी मृदुभाषी एवं सरल हृदय वाली श्रीमति कमलावंती जैन अत्यंत मिलनसार स्वभाव एवं धार्मिक प्रवृति के होने के चलते सदा धार्मिक स्थानों की यात्राओं और धार्मिक आयोजनों के लिए अग्रसर रहती थी। आपने अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान कर उन्हें आत्म निर्भर बना इस प्रकार काबिल बनाया कि वह आज विकास की बुलंदियों को छू कर अपनी स्वर्गीय माता जी का नाम रोशन कर रहे हैं। उनकी इस प्ररेणा से ही ड्यूक ग्रुप द्वारा बच्चों को आत्म-निर्भर बनाने के लिए तथा उन्हें बेहतर सुविधाएं प्रदान हेतु कई शिक्षण संस्थानों का विकास करवाया गया।देव गुरु तथा धर्म के प्रति पूर्णतया समर्पित आपका जीवन जिसमें श्रमण-श्रमणवृंद की सेवा सुश्रुषा व वैयावच्च करने को आप अपना सौभाग्य मानती थी। धार्मिक और समाज सेवा में अग्रणी, दानवीरता, उदारता और सरलता के लिए आप सदैव जानी जाएंगी। दूसरों का भला करने के लिए आप हमेशा तत्पर रहती थीं। गुरुजनों के प्रति श्रद्धा सेवा का भाव सदा ही आपने जीवन में आगे रखा और अपने धर्म की प्रभावना करते हुए परिवार को भी इस ओर चलने की प्ररेणा दी।आपकी मधुर समृति, स्नेह, आदर्श, मार्गदर्शन, आशीर्वाद हमारे लिए हमेशा प्रेरणादायक रहेंगे। आपकी पुण्यतिथि पर समस्त परिवारजन आपको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है और आशा करता है कि आपका आशीर्वाद तथा स्नेह सदा बना रहे। ‘नींद अपनी भुलाकर हमको सुलाया, अपने आंसुओं को आँखों में छिपाकर हमको हंसायादेना न देना ईश्वर की किस तस्वीर कोईश्वर भी कहता है माँ जिसको’  – कोमल कुमार जैन  लुधियाना स्वर्गीय श्रीमती कमलावंती जैन जी की दूसरी पुण्यतिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि(tribute on the second death anniversary of Late Smt. Kamalavanti Jain ji)

युग प्रवर्तक गुरु श्री विजयानंद महाराज जी १२५वें (१८९६-२०२१) स्वर्गारोहण वर्ष पर विशेष(Guru Shree Vijayanand Maharaj Ji 125th (1896-2021) )

युग प्रवर्तक गुरु श्री विजयानंद महाराज जी १२५वें (१८९६-२०२१) स्वर्गारोहण वर्ष पर विशेष(Guru Shree Vijayanand Maharaj Ji 125th (1896-2021) ) युग प्रवर्तक गुरु श्री विजयानंद महाराज जी १२५वें (१८९६-२०२१) स्वर्गारोहण वर्ष पर विशेष(Guru Shree Vijayanand Maharaj Ji 125th (1896-2021) ):‘‘जीवन गाथा तुम्हें सुनाए, श्री गुरु आत्माराम कीआत्म रस को देने वालेविजयानंद महाराज की..’’ जिस भारत की भूमि पर देवतागण भी जन्म लेने को आतुर रहते हैं, उसी पुण्य भूमि पर समय-समय पर अनेक महापुरुषों का अवतरण हुआ है, जिन्होंने निजी स्वार्थ व प्रलोभनों को समाज एवं मानव मात्र के कल्याण के लिए त्याग दिया। ऐसी ही एक कड़ी में भारतीय संस्कृति की श्रमण परंपरा के महान आचार्य श्रीमद विजयानंद सूरि जी महाराज १९वीं शताब्दी के भारतीय सुधार के प्रणेता गुरुओं में गिने जाते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती व स्वामी रामकृष्ण परमहंस के समकालीन, आचार्य विजयानंद, जिन्हें उत्तर भारत में उनके प्रसिद्ध नाम ‘आत्माराम’ के नाम से भी जाना जाता है, अपने युग के महान मनीषी, लेखक एवं प्रवक्ता तथा तत्ववेता धर्मगुरु थे। गुरु विजयानंद जी ऐसे प्रथम अन्वेषक जैन गुरुदेव थे, जिनसे भारत भर के सभी जैन गच्छ शुरू हुए हैं, जो कि आज भारत एवं विश्व भर में जैन धर्म के आदर्शों एवं प्रेरणा को घर-घर में प्रसार कर रहे हैं। पंजाब प्रदेशांतर्गत फिरोजपुर जिले की जीरा तहसील में लहरा नामक एक ग्राम में कपूर वंशीय वीर श्री गणेशचंद्र एवं उनकी पत्नी रूपा देवी ने विक्रम सं.१८९३ की चैत्र सुदि एकम को एक सर्वगुण संपन्न बालक को जन्म दिया, जिसका नाम ‘आत्माराम’ रखा गया। एक दिन सोढ़ी अतर सिंह जो कि एक बड़े जागीरदार और ज्योतिष विद्या के ज्ञाता थे, गणेशचंद्र जी के घर आए, उसने बालक आत्माराम के विशाल मस्तक, हस्त और अंगों को देखकर बताया कि यह बालक भविष्य में राजा होगा या एक राजमान्य गुरु होगा।‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ यह पंक्ति आत्माराम जी पर भली प्रकार से घटित होती है, जब आप १२ वर्ष के थे तो आपके पिता ने परिस्थितियों की विवशता के कारण आपको जीरा में अपने एक जैन मित्र जोधामल जी के पास भेज दिया। आप उन महात्माओं की श्रेणी में सादर स्मरणीय है, जिन्होंने पवित्र भारत भूमि में योग बल के प्रभाव से आत्मज्ञान की पीयूष धारा को प्रवाहित किया है। आपका जीवन साधुता का सच्चा आदर्श था। आत्माराम जी को जैन साधुओं की संगति से वैराग्य उत्पन्न हुआ, जिसके फलस्वरुप इनके विचार साधु जीवन की ओर झुक गए। आत्माराम जी दृढ़ विचारों वाले व्यक्ति थे। वे ऐसे महापुरुष थे, जिनके दर्शन मात्र से मन के विकार दूर हो जाते थे, द्वेष, मनोमालिन्य आदि निकट न फटकते थे, हृदय में स्फूर्ति और जागृति के तेज का विकास होता था। विक्रम सं.१९१० में मलेरकोटला में आपका दीक्षा समारोह संपन्न हुआ और युवक आत्माराम ने महाराज श्री जीवनराम जी के चरण कमलों में आत्म निवेदन कर अपने जीवन विकास का श्रीगणेश किया। आपकी बुद्धि इतनी तीक्ष्ण थी कि २५० श्लोक कंठस्थ कर लेते थे।ज्ञानोपार्जन करते हुए मुनि आत्माराम जी को यह अनुभव हुआ कि जितने भी साधुओं से मैं मिला हूं, वह सब आगमों के एक-दूसरे से भिन्न अर्थ करते हैं। समझ ना आने पर एक नया अर्थ निश्चित कर लेते हैं। इस विचारधारा में आपने सत्य की खोज आरंभ की, व्याकरण के बिना संस्कृति और प्राकृत का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता। मुनि श्री रतनचंद जी महाराज से समागम पाकर आपका जीवन प्रकाश की किरणों से जगमगा उठा। मूर्ति पूजा और प्राचीन शास्त्रों पर आपकी पूर्ण आस्था बन गई। आपने मूर्तिपूजक जैन धर्म का प्रचार करना आरंभ कर दिया। विक्रम सं.१९३२ में गुरु श्री बुद्धिविजय जी ने मुनि आत्माराम जी को अहमदाबाद में दीक्षा दी, अब आपका नाम विजयानंद रखा गया।ज्ञान बुद्धि के लिए अल्प समय में ही आपने बड़े-बड़े ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया एवं १५ दिनों में ही व्याख्यान देने लगे थे। आत्मानंद जी स्वभावत: बहुत ही आनंद युक्त व्यक्ति थे एवं वह महान कवि थे। उनका हृदय भक्ति और समर्पण से अपरिपूर्ण था, जब हृदय भक्ति से भर जाता तब अपने आप भाव मुख से प्रस्फुटित होकर भजन का रूप धारण कर लेते थे। महान कवि और लेखक होने के साथ-साथ श्री विजयानंद जी एक श्रेष्ठ संगीतज्ञ थे। उनके द्वारा रचित गद्य एवं पद्य, ग्रंथ के प्रत्येक शब्द में उनके प्रकांड, अगाध एवं विशाल विद्वता, अध्ययन, सुंदर दृष्टि, निर्भय व्यक्तित्व, जिनशासन सेवा की ललक, सभी विशेषताएं उजागर होती हैं। विजयानंद सूरि जी ने हिंदी में बहुत सारे ग्रंथ लिखे जैसे:‘अज्ञान तिमिर भास्कर’, ‘तत्व निर्णय प्रासाद’, ‘जैन मत वृक्ष’, ‘जैन धर्म का स्वरूप’, ‘जैन तत्वादर्श’, ‘शिकागो प्रश्नोत्तर’ आदि धर्म ग्रंथ अत्यंत प्रमाणिक हैं।पंजाब केसरी युगवीर विजय वल्लभ ने तो उन्हें ‘तपोगच्छ गगन दिनमणि सरीखा’ भी कहा है। उन्होंने श्री संघ के हित के लिए एवं अपने गुरुदेव के नाम को अमर रखने के लिए कई योजनाएं तैयार की। जिनमें:-पंजाब केसरी युगवीर विजय वल्लभ ने तो उन्हें ‘तपोगच्छ गगन दिनमणि सरीखा’ भी कहा है। उन्होंने श्री संघ के हित के लिए एवं अपने गुरुदेव के नाम को अमर रखने के लिए कई योजनाआत्म सम्वत चलाया, गुरुदेव का समाधि मंदिर बनवाया, आत्मानंद जैन सभाएं स्थापित की। गुरुदेव के नाम पर पत्रिका एवं चिकित्सालय चलाया, जो कि भारत एवं विश्व भर में समाज की भलाई के लिए काम कर रहे हैं तथा शिक्षण संस्थाएं गुरुदेव के नाम से चलाई। उनकी इसी कड़ी में आगे गुरु समुद्र सूरीश्वर जी, गुरु इंद्रदिन् सूरीश्वर जी भी जुड़े।एं तैयार की। जिनमें:-गुरुदेव ने अपने विशिष्ट सम्यक दर्शन, ज्ञान, चरित्र एवं नेतृत्व बल से जिनशासन के संरक्षण एवं संवर्धन में महकती भूमिका निभाई है, उन्हाेंने अपने प्रत्येक श्वास से, रक्त के प्रत्येक कण से जिनशासन को सींचा है, जिसके फलस्वरूप ही हमें परमात्मा शासन सम्यक रूप में मिला है। मानव को उसकी महानता दर्शाकर, गौरव बढ़ाकर, उसे आत्मदर्शन की महान साधना में लगाकर परम हित एवं कल्याण ही उनके जीवन का उद्देश्य रहा। श्री विजयानंद महाराज जी ने सत्यधर्म का अन्वेषण किया, सत्यधर्म के प्रचार के लिए सर्वस्व की बाजी लगाई और जैन समाज के आधुनिक नवीन युग का श्रीगणेश किया।अपने जीवन के अंतिम क्षणों में आपने मुनि श्री वल्लभ विजयजी को अपने पास बुला कर उन्हें अंतिम संदेश दिया की श्रावकों की श्रद्धा को स्थिर रखने के लिए मैंने परमात्मा के मंदिरों की स्थापना कर दी है। अब तुम सरस्वती मंदिरो की स्थापना अवश्य करना, जब तक ज्ञान का प्रचार न होगा, तब तक लोग धर्म को नहीं समझेंगे और ना ही समाज का उत्थान होगा। उन्होंने हाथ जोड़ कर सबकी ओर देखते हुए कहा-लो भाई! अब हम चलते हैं और सबको खमाते हंै।' इसके अतिरिक्त गुरु महाराज जी का जन्म स्थान जिला फिरोजपुर के लहरा नामक गांव में स्थित है, जहाँ पर श्री विजयानंद महाराज जी का भव्य मंदिर है। भारतवर्ष से सैकड़ों यात्री हर साल गुरुदेव जी के दर्शनों के लिए पधारते हैं। यहाँ पर ठहरने हेतु धर्मशाला एवं भोजनालय की भी उत्तम व्यवस्था है। जैन मंदिर तक पहुंचने का मार्ग अति सुगम है, हवाई मार्ग, रेलवे,बस तथा अन्य टैक्सी की भी सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहाँ से नजदीक का रेलवे स्टेशन लुधियाना,पट्टी और अमृतसर है एवं हवाई जहाज द्वारा अमृतसर तथा चंडीगढ़ से भी आ-जा सकते हैं।श्री विजयानंद महाराज जी का गुरु समाधि मंदिर, जो कि गुजरांवाला (पाकिस्तान) में स्थित है। पाकिस्तान सरकार ने इसे ‘संरक्षित धरोहर' का दर्जा दिया है, इस पर दस्तावेज/वृत्तचित्र भी लिखा गया है। पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से भारतीय शिक्षित युवक अपनी संस्कृति तथा सभ्यता से विमुख हो रहे हैं, उन्हें कम से कम अपनी वस्तु का ज्ञान कराना आवश्यक है। भारत भर के सभी जैन गच्छ, संस्थाओं तथा बंधुओ से अनुरोध है कि हम सभी को मिलकर जीरा (लहरा गांव) पंजाब में एक विशाल सम्मलेन करना चाहिए, जिसमें गुरुदेव श्रीमद विजयानंद महाराज जी के नाम से अद्भुत एवं विशाल शिक्षण संस्थान, चिकित्सालय का निर्माण करवाए जाने का प्रस्ताव पारित हो तथा उसका मार्गदर्शन भी हो। हम सभी को मिलकर उनकी शिक्षा तथा बताए हुए मार्ग को गति देनी होगी एवं उनके आदर्शों तथा संदेशों का देश-विदेश में प्रचार कर एवं अपनाकर हम कुछ अंशों में उनके ऋण से मुक्त हो सके। उनकी जीवनी हमारे लिए सम्बल बने, पथ प्रदर्शक बने एवं उनकी जीवनी की ज्योति से हम गतिमान बने, उनके आदर्शों के पथ पर चल कर हम आलोक के प्रकाश को प्राप्त कर सकें और गुरुदेव की धरोहर, उनके ग्रन्थ, जीवनी पर अनुसंधान करके अपनी भावी पीढ़ियों के लिए संदेश और उनका उत्थान कर सकें। – कोमल कुमार जैन चेयरमैन- ड्यूक फैशंस (इंडिया) लि. लुधियानाएफ.सी.पी- जीतो युग प्रवर्तक गुरु श्री विजयानंद महाराज जी १२५वें (१८९६-२०२१) स्वर्गारोहण वर्ष पर विशेष(Guru Shree Vijayanand Maharaj Ji 125th (1896-2021) )

मानवसेवा के मसीहा आचार्य श्री ऋशभचन्द्रसूरि को स्थानीय पुलिस प्रशासन ने पूरे सम्मान के साथ दी अंतिम विदाई मंत्री श्री ओम सकलेचा एवं मंत्री राजवर्धनसिंह दत्तीगांव की विशेष उपस्थिति में

मानवसेवा के मसीहा आचार्य श्री ऋशभचन्द्रसूरि को स्थानीय पुलिस प्रशासन ने पूरे सम्मान के साथ दी अंतिम विदाई मंत्री श्री ओम सकलेचा एवं मंत्री राजवर्धनसिंह दत्तीगांव की विशेष उपस्थिति में राजगढ़ (धार) ०४ जून २०२१। श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट श्री मोहनखेड़ा तीर्थ द्वारा वरिष्ठ कार्यदक्ष मुनिराज श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म.सा. की पावनतम निश्रा में अपने गुरु को मुनिराज श्री रजतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री चन्द्रयशविजयजी म.सा., मुनिराज श्री पुष्पेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री निलेशचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री रुपेन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री वैराग्ययशविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जनकचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिराज श्री जिनभद्रविजयजी म.सा. एवं साध्वी श्री सद्गुणाश्री जी म.सा. व साध्वी श्री संघवणश्री जी म.सा. आदि ठाणा ने नम आंखों से अपने गच्छ के महानायक एवं त्रिस्तुतिक जैन संघ के पाट परम्परा के अष्ठम पट्टधर गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. को अंतिम विदाई पूरे मंत्रोच्चार के साथ स्थानीय पुलिस प्रशासन व जिला प्रशासन की उपस्थिति में दी गयी। श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी ट्रस्ट ने कोरोना प्रोटोकाल को ध्यान में रखते हुये पीपीई किट पहन कर आचार्यश्री को ट्रस्ट मण्डल की और से महामंत्री फतेहलाल कोठारी, मेनेजिंग ट्रस्टी सुजानमल सेठ, शांतिलाल साकरिया, कमलचंद लुनिया, मांगीलाल पावेचा, चम्पालाल वर्धन, जयंतिलाल बाफना, बाबुलाल खिमेसरा, मेघराज लोढा, पृथ्वीराज कोठारी, संजय सराफ, मांगीलाल रामाणी, आनन्दीलाल अम्बोर, कमलेश पांचसौवोरा व आमंत्रित ट्रस्टी बाबुलाल डोडियागांधी, भेरुलाल गादिया एवं आचार्यश्री के सांसारिक परिवार सियाणा से देवन जैन, सुषमा जैन, तीर्थ के महाप्रबंधक अर्जुनप्रसाद मेहता, सहप्रबंधक प्रीतेश जैन ने मुखाग्नि दी। श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ के इतिहास में पहली बार किसी आचार्य को बिना किसी चढ़ावों की जाजम के साथ मध्यप्रदेश शासन व पुलिस प्रशासन की और से स्थानीय पुलिस ने सलामी के साथ विदाई दी। गुरु भक्तों ने गुरु को समर्पण करने के लिये ट्रस्ट के निर्णयानुसार गौशाला में जीवदया हेतु दान की घोषणा की गई।अंतिम विदाई से पूर्व आचार्यश्री को पूरे विधि विधान के साथ केश लोचन करवाया गया। समस्त मुनिभगवन्तों एवं साध्वीवृंदों ने आचार्यश्री को अंतिम गुरु वंदना की विधि सम्पन्न की। गुरु वंदन के पश्चात पालकी निकालकर आचार्यश्री को अंतिम संस्कार स्थल पर ले जाया गया। कार्यदक्ष मुनिराज श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म.सा., मुनिमण्डल व विधिकारक हेमन्त वेदमुथा, पण्डित मुरलीधर पण्डया, पण्डित कपील बांसवाड़ा आदि ने विधिविधान पूर्ण संस्कार कार्यक्रम किया तत्पश्चात् आचार्यश्री को अंतिम विदाई ट्रस्टमण्डल द्वारा म.प्र. शासन के कोरोना प्रोटोकाल के तहत् दी गई। इस अवसर पर बड़ी संख्या गुरुभक्तों ने कोरोना प्रोटोकाल के चलते आचार्यश्री का अंतिम संस्कार कार्यक्रम यु ट्युब एवं फेसबुक पर देखा और अपने गुरु को जहां थे वहां से श्रद्धांजलि अर्पित की।कार्यक्रम में जिला प्रशासन एवं पुलिस प्रशासन की और से अनुविभागीय अधिकारी राजस्व श्री कनेश, तहसीलदार श्री पी. एन. परमार, नायब तहसीलदार श्री परिहार, अनुविभागीय अधिकारी पुलिस रामसिंग मेढा, थाना प्रभारी दिनेश शर्मा, बीएमओ डॉ. शीला मुजाल्दा, डॉ. एम.एल. जैन, डॉ. एस. खान उपस्थित रहे। मानवसेवा के मसीहा आचार्य श्री ऋशभचन्द्रसूरि को स्थानीय पुलिस प्रशासन ने पूरे सम्मान के साथ दी अंतिम विदाई मंत्री श्री ओम सकलेचा एवं मंत्री राजवर्धनसिंह दत्तीगांव की विशेष उपस्थिति में

आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी का देवलोकगमन ( Devalokagamn of Acharya Devesh Shri Rishabchandra Surishwarji)

आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी का देवलोकगमन ( Devalokagamn of Acharya Devesh Shri Rishabchandra Surishwarji) भारत अपनी अध्यात्म प्रधान संस्कृति से विश्रुत था किन्तु आज इसने ‘जगद्गुरु’होने की पहचान खो दी है। खोयी हुई पहचान को पुन: प्राप्त करने एवं अध्यात्म के तेजस्वी स्वरूप को पाने के लिये अनेक संत-मनीषी अपनी साधना, अपने त्याग, अपने कार्यक्रमों से प्रयासरत हैं, ताकि जनता के मन में अध्यात्म एवं धर्म के प्रति आकर्षण रह सके। अध्यात्म ही एक ऐसा तत्व है, जिसको उज्जीवित और पुनर्प्रतिष्ठित कर ‘भारत’ अपने खोए गौरव को पुन: उपलब्ध कर सकता है, इस महनीय कार्य में लगे हैं ज्योतिष सम्राट के नाम से चर्चित मुनिप्रवर श्री ऋषभचन्द्र विजयजी। वे महान् तपोधनी, शांतमूर्ति, परोपकारी संत थे, जिन्होंने संसार की असारत का बोध बताया था, संयम जीवन का सार समझाया एवं मानवता के उपवन को महकाया।मुनि श्री ऋषभचन्द्रजी का जन्म ज्येष्ठ सुदी ७, संवत २०१४ दिनांक ४ जून १९५७ को सियाना (राजस्थान) में हुआ। आपके पिता का नाम शा.श्री मगराजजी तथा माता का नाम श्रीमती रत्नावती था। बचपन का नाम मोहनकुमार था। आपकी माताश्री एवं भ्राता भी दीक्षित होकर संयममय जीवन जी रहे हैं एवं माता संयम जीवन में तपस्वीरत्ना श्री पीयूषलताश्री एवं भ्राता आचार्यदेवेश श्री रवीन्द्रसूरीश्वरजी हैं। आपकी दीक्षा द्वितीय ज्येष्ठ सुदी १०, दिनांक २३ जून १९८०, श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ (म.प्र.) में आचार्यदेवेश श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी ‘पथिक’ के करकमलों से हुई। आपने अपने गुरु से जैन दर्शन के साथ-साथ विशेषत: अध्ययन व्याकरण, न्याय, आगम, वास्तु, ज्योतिष, मंत्र विज्ञान, आयुर्वेद, शिल्प आदि का गहन अध्ययन किया। आपने ४० से अधिक पुस्तकें लिखी हैं, जिसमें अभिधान राजेन्द्र कोष (हिन्दी संस्करण) प्रथम भाग, अध्यात्म का समाधान (तत्वज्ञान), धर्मपुत्र (दादा गुरुदेव का जीवन वृत्त), पुण्यपुरुष, सफलता के सूत्र (प्रवचन), सुनयना, बोलती शिलाएं, कहानी किस्मत की, देवताओं के देश में, चुभन (उपन्यास), सोचकर जिओ, अध्यात्म नीति वचन (निबंध) आदि मुख्य हैं।मुनिश्री ऋषभचंद्रविजयजी का जन्म और जीवन दोनों विशिष्ट अर्हताओं से जुड़ा दर्शन है जिसे जब भी पढ़ेंगे, सुनेंगे, कहेंगे, लिखेंगे और समझेंगे तब यह प्रशस्ति नहीं, प्रेरणा और पूजा का मुकाम बनेगा, क्योंकि ऋषभचंद्र विजय किसी व्यक्ति का नाम नहीं, पद नहीं, उपाधि नहीं और अलंकरण भी नहीं, यह तो विनय और विवेक की समन्विति का आदर्श है। श्रद्धा और समर्पण की संस्कृति है। प्रज्ञा और पुरुषार्थ की प्रयोगशाला है। आशीष और अनुग्रह की फलश्रुति है। व्यक्तिगत निर्माण की रचनात्मक शैली है और अनुभूत सत्य की स्वस्थ प्रस्तुति है, यह वह सफर था, जिधर से भी गुजरता है उजाले बांटता हुआ आगे बढ़ता। कहा जा सकता है कि निर्माण की प्रक्रिया में इकाई का अस्तित्व जन्म से ही इनके भीतर था, शून्य जुड़ते गए और संख्या की समृद्ध अक्षय बनती गई।ऋषभचंद्र विजयजी का अतीत सृजनशील सफर का साक्षी है, इसके हर पड़ाव पर शिशु-सी सहजता, युवा-सी तेजस्विता, प्रौढ़-सी विवेकशीलता और वृद्ध-सी अनुभवप्रवणता के पदचिन्ह हैं जो हमारे लिए सही दिशा में मील के पत्थर बनते हैं। आपका वर्तमान तेजस्विता और तपस्विता की ऊंची मीनार है जिसकी बुनियाद में जीए गए अनुभूत सत्यों का इतिहास संकलित है, जो साक्षी है सतत अध्यवसाय और पुरुषार्थ की कर्मचेतना का, परिणाम है तर्क और बुद्धि की समन्वयात्मक ज्ञान चेतना का और उदाहरण है निष्ठा तथा निष्काम भाव चेतना का। आपकी करुणा में सबसे साथ सह-अस्तित्व का भाव है। निष्पक्षता में सबके प्रति गहरा विश्वास है। न्याय प्रवणता में सूक्ष्म अन्वेषणा के साथ व्यक्ति की गलतियों के परिष्कार की मुख्य भूमिका है। सापेक्ष चिंतन में अहं, आग्रह, विरोध और विवाद का अभाव है। विकास की यात्रा में सबके अभ्युदय की अभीप्सा है। उनकी मूल प्रवृत्ति में रचनात्मकता और जुझारूपन दोनों हैं। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जूझते रहते हैं- अपनों से भी, परायों से भी और कई बार खुद से भी। इस जुनून में अपने मान-अपमान की भी प्रवाह नहीं करते। सिद्धांतों को साकार रूप देने की रचनात्मक प्रवृत्ति के कारण मुनियों के लिए ज्यादा करणीय माने जाने कार्यों की अपेक्षा जीवदया, मानव सेवा व तीर्थ विकास में उनकी रूचि ज्यादा परिलक्षित होती है। जीवदया व मानवसेवा के कई प्रकल्प उन्होंने चला रखे थे। मन्दिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार के द्वारा वे न केवल जैन संस्कृति बल्कि भारतीय संस्कृति सुदृढ़ कर रहे हैं। वे गौरक्षा एवं गौसेवा के प्रेरक है। गौशालाओं के साथ-साथ गौ-कल्याण के अनेक उपक्रम संचालित करते रहते हैं। संवेदना एवं संतुलित समाज रचना के संकल्प के चलते आपके मोहनखेड़ा तीर्थ पर गरीब एवं आदिवासी बच्चों के लिए विद्यालय भी संचालित कर रखा है, जहां सैकड़ों विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर रहे हैं, वहां वे नेत्र, विकलांगता, नशामुक्ति, कटे हुए (कुरूप) होठों, कुष्ठ, मंदबुद्धि निवारण आदि के विशिष्ट सेवा प्रकल्प आपके नेतृत्व में संचालित होते रहते हैं। अपने गुरु के हॉस्पिटल, गौशाला एवं गुरुकुल आदि के सपनों को आकार देने में जुटे रहते हैं। आपने पांच करोड़ की लागत से श्री महावीर पवित्र सरोवर को निर्मित कर जनआवश्यकता की पूर्ति की है। अलौकिक, अनुपम्ा एवं विलक्षण जैन संस्कृति पार्क को निर्मित कर आपने अपनी मौलिक सोच का परिचय दिया है। जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण, तीर्थ यात्राएं निकालना, कार सेवा एवं तीर्थशुद्धि एवं स्वच्छता अभियान तीर्थों की स्थापना आदि अनेक अद्भुत एवं संस्कृति प्रभावना के कार्य आपने करवाए हैं। आपमें निर्माण की वृत्ति भी है व शक्ति भी। राजगढ़ का मानव सेवा हॉस्पिटल, मोहनखेड़ा का नेत्र चिकित्सालय, सहकारी सोसायटियां, अनेक मंदिर व गौशालाएं इसी वृत्ति व शक्ति का परिचायक है। आप कार्य के प्रति अपनी लगन को दूसरे में भी उतार देते और दूसरे ही पल उनकी शक्ति बन जाते थे।मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी के बारे में लिखना हमारे लिये सौभाग्य का सूचक हैं। उनके उदार और व्यापक दृष्टिकोण का ही प्रभाव है कि आज किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय या संप्रदाय से जुड़ा व्यक्ति, वह चाहे प्रबुद्ध हो या अप्रबुद्ध उनके करीब आता, पूरे चाव से पढ़ता, सुनता और आपके कार्यक्रमों का सहभागी बनता। आपका व्यक्तित्व और कर्तृत्व इक्कीसवीं सदी के क्षितिज पर पूरी तरह छाया रहा। आपके उनके प्रकल्पों, विचारों व प्रवचनों में कोरी आदर्शवादिता या सिद्धांतवादिता के दर्शन नहीं होते, प्रयोग सिद्ध वैज्ञानिक स्वरूप उपलब्ध होता था। अपने ज्ञान गर्भित प्रवचनों व साहित्य के माध्यम से उन्होंने आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रांति का शंखनाद किया है। आप धर्म को रूढ़िया परंपरा के रूप में स्वीकार नहीं करते थे, धार्मिक आराधना-उपासना से व्यक्ति की जीवनशैली और वृत्तियों में बदलाव लाते थे, समग्र जीवनदर्शन का निचोड़ भी यही है, ऐसे महान् संत का एक आचार्य के रूप में पदाभिषेक होना एक शुभ भविष्य की आहट थी।विश्व-क्षितिज पर अशांति की काली छाया है। रक्तपात, मारकाट की त्रासदी है। मानवीय चेतना का दम घुट रहा है, कारण चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, कश्मीर का आतंकवाद हो या सांप्रदायिक ज्वालामुखी, तलाक का मसला हो या राष्ट्रगीत गाये जाने पर आपत्ति, भारत को दो नामों से बोला जाना ‘इंडिया व भारत’ ऐसी ही अन्य दर्दनाक घटनाएं हिंसा एवं संकीर्णता की पराकाष्ठा है। आर्थिक असंतुलन, जातीय संघर्ष, मानसिक तनाव, छुआछूत आदि राष्ट्र की मुख्य समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। जन-मानस चाहता है, अंधेरों से रोशनी में प्रस्थान। अशांति में शांति की प्रतिष्ठा किंतु दिशा दर्शन कौन दे? यह अभाव-सा प्रतीत हो रहा था, ऐसी स्थिति में मुनि श्री ऋषभ का अहिंसक जीवन और विविध मानवतावादी उपक्रम ही वस्तुत: मानव-मानव के दिलो-दिमाग पर पड़े संत्रास के घावों पर मरहम का-सा चमत्कार करने की संभावनाओं को उजागर करते, आप आचार्य बनकर मानव को उन्नत जीवन की ओर अग्रसर करने का भगीरथ प्रयत्न किया।मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी का व्यक्तित्व बुद्धिबल, आत्मबल, भक्तिबल, कीर्तिबल और वाग्बल का विलक्षण समवाय है। दृढ़-इच्छाशक्ति, आग्नेय संकल्प, पुरुषार्थ और पराक्रम के द्वारा उन्होंने उपलब्धियों के अनेक शिखर स्थापित किए हैं, जो उन जैसे गरिमामय व्यक्तित्व ही कर सकते हैं। दादा गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नेतृत्व में त्रिस्तुतिक श्रीसंघ एवं श्री मोहन खेड़ा महातीर्थ ने विकास की अलंघ्य ऊंचाइयों का स्पर्श किया, उसके नाभि केंद्र मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी ही रहे हैं। आपने भारत की अध्यात्म विद्या और संस्कार-संपदा को पुनरुज्जीवित कर उसे जन-मानस में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न किया। ऐसे युग प्रणेता, युग निर्माता अध्यात्मनायक के आचार्य पर संपूर्ण जैन समाज गौरवान्वित होता रहा है।ऋषभचंद्र विजयजी का अतीत सृजनशील सफर का साक्षी था, हर पड़ाव पर शिशु-सी सहजता, युवा-सी तेजस्विता, प्रौढ़-सी विवेकशीलता और वृद्ध-सी अनुभवप्रवणता के पदचिन्ह रहे जो हम सबके लिए सही दिशा में मील के पत्थर बनते रहे। आपका वर्तमान तेजस्विता और तपस्विता की ऊंची मीनार था जिसकी बुनियाद में जीए गए अनुभूत सत्यों का इतिहास संकलित है, जो साक्षी है सतत अध्यवसाय और पुरुषार्थ की कर्मचेतना का परिणाम है तर्क और बुद्धि की समन्वयात्मक ज्ञान चेतना का उदाहरण, निष्ठा तथा निष्काम भाव चेतना आपकी करुणा में सह-अस्तित्व का भाव रहा। निष्पक्षता में सबके प्रति गहरा विश्वास रहा, न्याय प्रवणता में सूक्ष्म अन्वेषणा के साथ व्यक्ति की गलतियों के परिष्कार की मुख्य भूमिका थी। सापेक्ष चिंतन में अहं, आग्रह, विरोध और विवाद का अभाव था। विकास की यात्रा में सबके अभ्युदय की अभीष्सा, मूल प्रवृत्ति में रचनात्मकता और जुझारूपन, अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जूझते रहते अपनों से भी, परायों से भी और कई बार खुद से भी। इस जुनून में अपने मान-अपमान की भी प्रवाह नहीं करते। सिद्धांतों को साकार रूप देने की रचनात्मक प्रवृत्ति के कारण मुनियों के लिए ज्यादा करणीय माने जाने कार्यों की अपेक्षा, जीवदया, मानव सेवा व तीर्थ विकास में उनकी रूचि ज्यादा परिलक्षित होती थी। जीवदया व मानवसेवा के कई प्रकल्प अपने चला रखे थे। मन्दिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार के द्वारा आप न केवल जैन संस्कृति बल्कि भारतीय संस्कृति सुदृढ़ करते रहे, गौरक्षा एवं गौसेवा के प्रेरक थे। गौशालाओं के साथ-साथ गौ-कल्याण्ा के अनेक उपक्रम संचालित करते रहते थे। संवेदना एवं संतुलित समाज रचना के संकल्प के चलते आपके मोहनखेड़ा तीर्थ पर गरीब एवं आदिवासी बच्चों के लिए विद्यालय भी संचालित करवाया, जहां सैकड़ों विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर रहे हैं। नेत्र, विकलांगता, नशामुक्ति, कटे हुए (कुरूप) होठों, कुष्ठ, मंदबुद्धि निवारण आदि के विशिष्ट सेवा प्रकल्य आपके नेतृत्व में संचालित होते रहे। अपने गुरु के हॉस्पिटल, गौशाला एवं गुरुकुल आदि के सपनों को आकार देने में जुटे रहे। आपने पांच करोड़ की लागत से श्री महावीर पवित्र सरोवर को निर्मित कर जन आवश्यकता की पूर्ति की। अलौकिक, अनुपम एवं विलक्षण जैन संस्कृति पार्क को निर्मित कर आपने अपनी मौलिक सोच का परिचय दिया, जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण, तीर्थ यात्राएं निकालना, कार सेवा एवं तीर्थशुद्धि एवं स्वच्छता अभियान तीर्थों की स्थापना आदि अनेक अदृभुत एवं संस्कृति प्रभावना के कार्य आपने करवाए, आपमें निर्माण की वृत्ति व निर्माण की शक्ति भी थी।राजगढ़ का मानव सेवा हॉस्पिटल, मोहनखेड़ा का नेत्र चिकित्सालय, सहकारी सोसायटियां, अनेक मंदिर व गौशालाएं इसी वृत्ति व शक्ति का परिचायक है, आप के प्रति अपनी लगन को दूसरे में भी उतार देते थे और ये दूसरे ही पल उनकी शक्ति बन जाते थे।आचार्य ऋषभचन्द्र विजयजी के उदार और व्यापक दृष्टिकोण का ही प्रभाव था, किसी भी जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय या संप्रदाय से जुड़ा व्यक्ति, वह चाहे प्रबुद्ध हो या अप्रबुद्ध आपके करीब आता, तो आपको पूरे चाव से पढ़ता और सुनता, आपके कार्यक्रमों में सहभागी बनता। आपके प्रकल्पों, विचारों व प्रवचनों में हमें कोरी आदर्शवादिता या सिद्धांतवादिता के दर्शन ही नहीं होते, हमें प्रयोग सिद्ध वैज्ञानिक स्वरूप उपलब्ध होता था। अपने ज्ञान गर्भित प्रवचनों व साहित्य के माध्यम से आपने आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रांति का शंखनाद किया। आप धर्म को रूढ़ि या परंपरा के रूप में स्वीकार नहीं करते, धार्मिक आराधना-उपासना से व्यक्ति की जीवनशैली और वृत्तियों में बदलाव लाते, आपके समग्र जीवनदर्शन का निचोड़ यही है, ऐसे महान्‌ा संत का असमय चला जाना ‘जिनागम’ परिवार को गहरी रिक्तता का आभास करा रहा है।विश्व-क्षितिज पर हिंसा, युद्ध, विकृत राजनीति, कोरोना महामारी की काली छाया से मानवीय चेतना का दम घुट रहा है। कारण चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, आर्थिक हो या धार्मिक, आतंकवाद हो या सांप्रदायिक ज्वालामुखी- ये और ऐसी ही अन्य दर्दनाक घटनाएं हिंसा एवं संकीर्णता की पराकाष्ठा है। आर्थिक असंतुलन, जातीय संघर्ष, मानसिक तनाव, छुआछूत आदि राष्ट्र की मुख्य समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं, जन-मानस चाहता है, अंधेरों से रोशनी में प्रस्थान।अशांति में शांति की प्रतिष्ठा किंतु दिशा दर्शन कौन दे? यह अभाव-सा प्रतीत हो रहा था। ऐसी स्थिति में आचार्य श्री ऋषभ का अहिंसक जीवन और विविध मानवतावादी उपक्रम ही वस्तुतः मानव-मानव के दिलो-दिमाग पर पड़े संत्रास के घावों पर मरहम का-सा चमत्कार करने की संभावनाओं को उजागर कर रहे थे। आप मनीषी एवं समाज-सुधाकर आचार्य ऋषभचन्द्र विजयजी के बारे में सभी कह रहे हैं कि ऋषभचन्द्र विजयजी अब नहीं रहे, मगर धर्म कहता है कि आत्मा कभी नहीं मरती, इसलिये इस शाश्वत सत्य का विश्वास लिये हम सदियों जी लेंगे कि ऋषभचन्द्र विजयजी अभी हमारे पास हैं- हमारे साथ, हमारी हर सांस में, दिल की हर धड़कन में।आचार्य श्री ऋषभचन्द्र विजयजी का व्यक्तित्व बुद्धिबल, आत्मबल, भक्तिबल, कीर्तिबल और वाग्बल का विलक्षण समवाय था। दृढ़-इच्छाशक्ति, आम्नेय संकल्प, पुरुषार्थ और पराक्रम के द्वारा उन्होंने उपलब्धियों के अनेक शिखर स्थापित किए, जो उन जैसे गरिमामय व्यक्तित्व ही कर सकते हैं। दादा गुरुदेव श्रीमद्‌ विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के नेतृत्व में त्रिस्तुतिक श्रीसंघ एवं श्री मोहन खेड़ा महातीर्थ ने विकास की अलंघ्य ऊंचाइयों का स्पर्श किया, उसके नाभि केंद्र मुनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी ही थे। भारत की अध्यात्म विद्या और संस्कार-संपदा को पुनरुज्जीवित कर उसे जन-मानस में प्रतिष्ठित करने का भगीरथ प्रयत्न करते हुए चिरनिद्रा में लीन हो गये। ऐसे युग प्रणेता, युग निर्माता, अध्यात्मनायक के महाप्रयाण पर ‘जिनागम’ परिवार हार्दिक श्रद्धांजलि व्यक्त करता है। आचार्य देवेश श्री ऋषभचन्द्र सूरीश्वरजी का देवलोकगमन ( Devalokagamn of Acharya Devesh Shri Rishabchandra Surishwarji)

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