बिहार के जैन तीर्थक्षेत्रों, जैन संस्थानों एवं जैन गतिविधियों की चर्चा हो एवं आरा के प्रसिद्ध जैन धर्मावलंबी देव परिवार के योगदान का स्मरण न हो, ऐसा संभव ही नहीं। जैन जागृति के अग्रदूतों में इस परिवार की सात पीढ़ियों के यशस्वी/गुणीजनों का समावेश अपने आप में एक उपलब्धि है, जिसे इतिहास से विस्मृत नहीं किया जा सकता। आरा (बिहार) के सुप्रसिद्ध देव परिवार के पूर्व पुरुष अग्रवाल कुलोत्पन गोयल गोत्रीय काष्ठासंघ के पं. प्रवर प्रभुदास जी आज से करीब २०० वर्ष पूर्व अपने परिवार के साथ बनारस में धर्मध्यान किया करते थे। वे संस्कृत व प्राकृत के प्रकांड विद्वान थे, तथा मंत्र शास्त्र के भी अच्छे ज्ञाता थे। जैन दर्शन पर भी इनका प्रभुत्व इनके समकालीन पं. दौलतराम जी एवं पं. भागचन्द जी के टक्कर का था। कविवर वृंदावन जी इनके मित्र थे और उनसे पारिवारिक संबंध था। किंवदंती यह है कि तत्कालीन भट्टारक श्री जिनेन्द्र भूषण जी ने इन्हें प्रेरणा दी कि आप पाँच जिनालय बनाने का नियम लें। पं. प्रभुदास जी की आर्थिक स्थिति मध्यम थी। उन्होंने दुखी होकर आर्थिक विवशता प्रगट की, पर भट्टारक जी के बार-बार आग्रह करने पर नियम ले लिया। काललब्धि से देखते-देखते उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होता गया और उन्होंने भगवान चंद्रप्रभु, भगवान सुपार्श्वनाथ और भगवान पदमप्रभु की गर्भ जन्म कल्याणक भूमि क्रमश: चंद्रपुरी जी, भदैनी जी, कौशांबी जी तथा आरा आदि स्थानों पर मंदिर, धर्मशाला का निर्माण कराकर अपना नियम पूरा किया। कालान्तर में उनके धन में वृद्धि होती गई और बिहार में उन्होंने बहुत बड़ी जमींदारी खरीदी तथा आरा आ गये। यहाँ वे १८५७ के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी बाबू कुँवर सिंह के निकट संपर्क में आये और उन्हें आर्थिक सहयोग प्रदान किया। बाबू कुँवर सिंह द्वारा आरा में पं. प्रभुदास जी को प्रेम पूर्वक भेंट दी गई भूमि पर ‘आरा’ का प्रसिद्ध अतिशयकारी चंद्रप्रभु का मंदिर स्थापित हुआ। धार्मिक, सामाजिक कार्यों में बाबू प्रभुदास जी की अभिरुचि और लगन को लक्ष्य कर उन्हें आरा जैन समाज और सम्मेदशिखर दिगम्बर जैन बीस पंथी कोठी का प्रथम अध्यक्ष चुना गया, जिसका उन्होंने सफलतापूर्वक आजीवन निर्वाह किया। उननीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक निग्रंथ मुनियों का सर्वथा अभाव, जिनवाणी के प्रति अज्ञानता एवं दुर्दशा से जैन समाज के प्रबुद्ध लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक था। फलस्वरूप उन्नीसवीं सदी के अंत एवं बीसवीं सदी के प्रारम्भ में कई महत्वपूर्ण संस्थाओं की नींव पड़ी। उत्तर भारत में वीर शासन को पुर्नस्थापित करने में आरा के देव परिवार ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजर्षि देव कुमार ने मात्र बीस वर्ष की अल्पायु में आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हुए बैलगाड़ी से दक्षिण भारत तक के सुदूर प्रदेशों की यात्रा की। जगह-जगह जैन शास्त्रों को लिपिबद्ध किया/संभाला और जहाँ कोई व्यवस्था न बन सकी, उन शास्त्रों को आदर पूर्वक ‘आरा’ लाकर सुप्रसिद्ध श्री जैन सिद्धांत भवन की स्थापना की। भवन की व्यवस्था के लिए उन्होंने अपनी जमींदारी का सबसे कीमती गाँव संस्था के नाम कर दिया। राजर्षि देव कुमार जी ने पू. शुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी के मात्र एक पोस्ट कार्ड के निवेदन पर जिनवाणी के प्रचार-प्रसार के लिए बनारस के गंगातट पर स्थित अपना विशाल भवन, घाट, जमीन सब श्री स्याद्वाद महाविद्यालय प्रारम्भ करने के लिए अर्पित कर दिया ताकि जैन विद्वान तैयार हो सके और जिनवाणी का प्रचार-प्रसार हो। वे आजीवन इस संस्था के मंत्री भी रहे और हर प्रकार से उसकी आर्थिक अड़चनों को दूर किया। महान चिंतक मैक्सम्युलर द्वारा लिखित जैन धर्म संबंधी लेखों एवं पुस्तकों से उन्हें जैन ग्रन्थों को अंग्रेजी में अनुवाद करा कर विश्वव्यापी बनाने की प्रेरणा मिली, उनके द्वारा आरा में स्थापित सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस द्वारा तत्त्वार्थ सूत्र, कर्मकांड, गणित शास्त्र आदि अनेक महत्वपूर्ण जैन ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद कराकर प्रकाशित किया गया जो आज भी जैन समाज की अनमोल धरोहर है। दि. जैन महासभा के संस्थापक सदस्यों में बाबु देव कुमार जी ने कई वर्षो तक जैन गजट का संपादन भी किया। शिक्षा के क्षेत्र में सुदूर मंगलोर में उन्होंने छात्रों की सुविधा के लिए, जैन होस्टल की स्थापना की तथा १९०५ में जैन महिलाओं में जागृति लाने के उद्देश्य से बिहार प्रांत का प्रथम महिला विद्यालय श्री जैन कन्या पाठशाला की नींव रखी। बिहार के तीर्थक्षेत्रों के विकास करने एवं समाज का वर्चस्व स्थापित करने के लिए उन्होंने अनेकों कदम उठाये, मुख्यतः भगवान वासुपूज्य की ज्ञान, तप व निर्वाण स्थली मंदारगिरि पर स्थित मंदिर आदि की सम्पत्ति तत्कालीन राजा से खरीद कर समाज को अर्पित किया। जैन विधवाओं की दुर्दशा देखकर उनके उत्थान के लिए बे हमेशा चिंतित रहा करते थे। जब उनके छोटे भाई धर्मकुमार की पत्नी चंदाबाई मात्र १३ वर्ष की आयु में विधवा हो गई तो उन्होंने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें काशी भेजा। वहाँ से जब चंदाबाई ने संस्कृत प्राकृत और जैनागम में पारंगत होकर पंडित की उपाधि प्राप्त की, तो उन्होंने नारी जागरण और उत्थान के लिए महिला आश्रम ख्ाोलने के लिए उन्हें प्रेरित किया। दुर्भाग्यवश इसे कार्यान्वित करने के पूर्व १९०८ में देहान्त हो गया। राजर्षि देव कुमार के मृत्यु के पश्चात उनके सुयोग्य पुत्र निर्मल कुमार जी ने अपने पिता की इच्छा पूरी की और आरा स्थित अपने विशाल बाग एवं भवन का दान पत्र लिखकर श्री जैन बाला विश्रामशाला की स्थापना की। ब्र. चंदाबाई जी भी इसके लिए तैयार बैठी थी, उन्होंने अपना समूचा ज्ञान, समूचा जीवन इस महान धार्मिक अनुष्ठान के लिए समर्पित कर दिया। देश के कोने-कोने से आकर हजारों की संख्या में विधवाओं और महिलाओं ने यहाँ उनसे शिक्षा ग्रहण की, संस्था की कीर्ति दूर-दूर तक फैली। परम पूज्य आर्थिका विजयमती माताजी, पू. विमलप्रभा माताजी आदि कई महान विभूतियाँ यहाँ अध्ययन कर चुकी हैं और उन्होंने हमेशा अपने जीवन के सार्थक परिवर्तन के लिए ब्र. चंदाबाई जी एवं श्री जैन बाला विश्राम का उपकार माना है। ब्रह्मचारिणी चंदाबाई जी ने नारी जागरण के लिए अनेक शिक्षाप्रद पुस्तकें लिखी। श्री जैन महिला परिषद की संस्थापक अध्यक्षा के रूप में जीवन भर उसकी गतिविधियों का संचालन किया। उनके द्वारा संपादित एवं प्रकाशित ‘जैन महिलादर्श’ अपने आप में महिला जागृति के क्षेत्र में अलग पहचान रखता है। शिक्षा जगत विशेषकर विधवाओं और अशक्त महिलाओं के क्षेत्र में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को सराहते हुए भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा ब्र. चंदाबाई जी को दिल्ली में आयोजित विशाल समारोह में अभिनंदन ग्रन्थ भेंट कर सम्मानित किया गया। अपने पिता राजर्षि देव कुमार जी के कदमों का अनुसरण करते हुए निर्मल कुमार जी ने श्रवणबेलगोला, राजगृही, पावापुरी, सम्मेदशिखर, आरा, गिरनार, पालीताना आदि अनेक स्थानों में मंदिर, धर्मशाला का निर्माण कराया एवं लाखों की संपत्ति दान में दी। श्री निर्मल कुमार जी के सुपुत्र श्री सुबोध कुमार जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनमें लेखक, चित्रकार, कवि, संगीतकार, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी आदि सभी गुणों का समावेश था। वे बहुत ही व्यवहारिक, अत्यन्त धार्मिक और सहृदय व्यक्ति थे और अपने पूर्वजों की परंपरा का निर्वाह करते हुए अपना समूचा जीवन धर्म और समाज की सेवा में लगा दिया। श्री सुबोध कुमार जी द्वारा आरा (बिहार) में श्री आदिनाथ नेत्र विहीन विद्यालय, आरा मूकबधिर विद्यालय, श्री जैन बाला विश्राम उच्च विद्यालय, श्री जैन कन्या पाठशाला उच्च विद्यालय, संगीत विद्यालय, श्री जैन महिला विद्यापीठ, श्री निर्मल कुमार चक्रेश्वर कुमार जैन कला दीर्घा, भगवान महावीर विकलांग सेवा समिति आदि अनेक धर्मानुकुल कल्याणकारी संस्थाओं की स्थापना की गई। राजगिरि के विपुलाचल पर्वत पर प्रथम देशना स्मारक के निर्माण की नींव ब्र. चंदाबाई जी द्वारा रखी गई थी। श्री सुबोध कुमार जी द्वारा १९८२ में वहाँ पर प्रथम देशना स्मारक बहुत ही भव्य रूप से करोड़ों की लागत से बनवाया गया, इसके पंच कल्याणक में साहू अशोक कुमार जी सपत्नीक सौधर्म इंद्र-इंद्राणी के रूप में सम्मिलित हुए थे। श्री सुबोध कुमार जी द्वारा बनाये गये सैकड़ों धार्मिक चित्र आरा, राजगिरि, कुंडलपुर आदि की दीर्घाओं में सुशोभित हैं। उन्होंने जैन धार्मिक विषयों पर अनेकों पुस्तकें लिखी व प्रकाशित कराई तथा संस्कृत की कई पूजाओं का हिन्दी में रूपांतर लयबद्ध करके किया। आप वात्सल्य रत्नाकर परम पूज्य विमल सागर महाराज जी के परम भक्त थे तथा उनके प्रेरणा से राजगिरि में महावीरकीर्ति सरस्वती भवन तथा बीसपंथी कोठी के अध्यक्ष के रूप में श्री सम्मेदशिखर जी में तीस चौबीस मंदिर तथा विमल ग्रंथागार, समवशरण मंदिर आदि अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न कराये। श्री सुबोध कुमार जी ने अपनी मृत्यु के पूर्व अनेक संस्थाओं, तीर्थक्षेत्रों आदि की देखभाल की जिम्मेदारी अपने सुपुत्र श्री अजय कुमार जी को सुपुर्द कर दी थी। पारिवारिक परंपरा का पालन करते हुए पिता की आज्ञानुसार मात्र ३० वर्ष की अल्पायु से सभी संस्थाओं का कार्य आप बहुत ही योग्यता पूर्वक एवं कुशलतापूर्वक सँभाल रहे हैं। श्री अजय कुमार जी स्वयं बहुत ही विचारशील, धार्मिक प्रवृत्ति के, सहदय, सुलझे हुए एवं व्यवहारिक व्यक्ति हैं। श्री सम्मेद शिखर बीसपंथी कोठी के अध्यक्ष तथा बिहार प्रांतीय तीर्थक्षेत्र कमेटी के मानद् मंत्री के रूप में बिहार- झारखण्ड में स्थित सभी तीर्थक्षेत्रों की जिम्मेदारी आपने सफलता पूर्वक निभाई है। आपके द्वारा सभी क्षेत्रों पर अनेकों विकास के कार्य किए गए, इन्हीं गुणों के कारण बिहार सरकार द्वारा आपको बिहार धार्मिक न्यास बोर्ड का अध्यक्ष भी मनोनीत किया। अनेकों शिक्षण संस्थाओं एवं धार्मिक ट्रस्टों से जुड़े होने के बावजूद भी धार्मिक कार्यों के लिये श्री अजय कुमार जी के पास समय की कमी नहीं है। वे स्वयं वर्तमान धार्मिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के प्रति जागरूक हैं, तथा मिल- जुलकर समस्याओं का तत्काल हल निकालने में विश्वास रखते। अपने देव परिवार और पूर्वजों द्वारा किये गये धार्मिक कार्यों पर उन्हें गौरव है। श्री अजय कुमार जी का कहना है कि पूर्व संचित कर्मों के उदय के कारण, उन्हें जो मानव जीवन तथा गौरवशाली देव परिवार में जन्म लेने का सुअवसर मिला है, उसे जिनवाणी की सेवा तथा वीरशासन को सुदृढ़ करने में ही लगाकर बे अपने जीवन की सार्थकता तथा असीम सुख शांति का अनुभव करते हैं। अजय कुमार जैन के दोनों सुपुत्र ज्येष्ठ प्रशांत जैन आरा के दर्जनो विभिन्न संस्थाओं को संभालते हुए उत्तर प्रांतीय दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमीटी के महामंत्री भी है जिसके अंतर्गत चन्द्रावली, कौशाम्बी तथा भदैनी की व्यवस्था की जाती है। द्वितीय पुत्र पराग जैन बिहार के १३ तीर्थ क्षेत्रों की व्यवस्था बखुबी संभाल रहे हैं और क्षेत्रो के विकास में सेवा भाव से जुड़े हुए है। वे बिहार स्टेट दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमिटी के मानदमंत्री है। २४ तीर्थंकर भगवानो के १२० कल्याणक क्षेत्रों में विलुप्त ८ कल्याणक क्षेत्र मिथिलापुरी की स्थापना के लिए नेपाल के पास सितामढी बॉर्डर पर जमीन खरीद कर तीर्थ स्थापित करा रहे है। इस तरह आरा बिहार का यह देव परिवार पूरे जैन समाज के लिए प्रेरणास्त्रोत है। – डॉ. बीरेन्द्र कुमार सिंह, एम.ए., पी.एच.डी. श्री महावीर कीर्ति दिग.जैन सरस्वती भवन, राजगृही