Category: नवंबर-२०१८

भगवान महावीर निर्वाण पर खास प्रस्तुति 0

भगवान महावीर निर्वाण पर खास प्रस्तुति

निर्वाण प्राप्ति का ध्रुव मार्ग भगवान महावीर ने पावापुरी से मोक्ष प्राप्त किया। महावीर की आत्मा कार्तिक की चौदस को पूर्ण निर्मल पर्याय रुप से परिणमित हुई और महावीर, सिद्धपद को प्राप्त हुए। पावापुरी में इन्द्रों तथा राजा-महाराजाओं ने निर्वाण-महोत्सव मनाया था, उसी दीपावली तथा नूतनवर्ष आज का दिवस है। भगवान पावापुरी स्वभाव ऊध्र्वगमन कर ऊपर सिद्धालय में विराज रहे हैं, ऐसी दशा आज भगवान को पावापुरी में प्रगट हुई, इसलिए पावापुरी भी तीर्थधाम बना, हम सम्मेदशिखर की यात्रा के समय पावापुरी की यात्रा करने गये, तब वहाँ भगवान का अभिषेक हुआ था, वहाँ सरोवर के बीच में – जहाँ से भगवान मोक्ष पधारे वहाँ भगवान के चरण कमल स्थापित हैं। तीर्थंकरों का द्रव्य त्रिकाल मंगलरुप है तथा जो जीव, केवलज्ञान प्राप्त करने वाला है, उसका द्रव्य भी त्रिकाल मंगलरुप है। भगवान की आत्मा त्रिकाल मंगलस्वरुप है, उनका द्रव्य तो त्रिकाल मंगलरुप है ही वे जहाँ से मोक्ष को प्राप्त हुए, वह क्षेत्र भी मंगल है, आज मोक्ष प्राप्त किया, इसलिए आज का दिन भी मंगलरुप है और भगवान के केवलज्ञानादिरुप भाव भी मंगलरुप हैं, इस प्रकार भगवान महावीर परमात्मा द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से मंगलरुप हैं। भगवान के मोक्ष प्राप्त करने पर यहाँ भरतक्षेत्र में तीर्थंकर का विरह हुआ। भगवान का स्मरण कर भगवान के भक्त कहते हैं कि- हे नाथ! आपने चैतन्यस्वभाव में अन्तर्मुख होकर आत्मा की मुक्तदशा साथ ली और दिव्यवाणी द्वारा हमें उसी आत्मा का उपदेश दिया, ऐसे स्मरण द्वारा श्रद्धा-ज्ञान की निर्मलता करें, वह मंगलरुप है, जहाँ ऐसी निर्मलदशा प्रगट हो, वह मंगल क्षेत्र है, श्रद्धा-ज्ञान का जो भाव है, वह मंगल भाव है और आत्मा स्वयं मंगलरुप है। भगवान का मोक्षकल्याणक मनाने के बाद इन्द्र और देव नन्दीश्वरद्वीप में जाकर वहाँ आठ दिन तक उत्सव मनाते हैं। आज भगवान का निर्वाण दिवस है और इस ‘अष्टप्राभृत’ में भी आज निर्वाण की ही गाथा पढ़ी जा रही ह निर्वा किस प्रकार तथा कैसे पुरुष का होता है, वह बात शीलप्राभृत की ११-१२ वीं गाथा में कहते हैं- णाणेव दंसणेव य तवेण, चरिएण सम्मसहिएण होहदि परिणिव्वाणं, जीवाणं चरित्तसुद्धाणं सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं अत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं उपयोग को अन्तर्मुख करके, धर्मी जीव, चैतन्य के शान्तरस का अनुभव करते हैं, जिस प्रकार कुएँ की गहराई में से पानी खींचते हैं, उसी प्रकार सम्यक्आत्मस्वभावरुप कारण परमात्मा को ध्येय रुप से पकड़कर, उसमें गहराई तक उपयोग को उतारने से पूर्ण शुद्धता होती है और इसी रीति से निर्वाण होता है, निर्वाण कोई बाह्य वस्तु नहीं है, किन्तु आत्मा की पर्याय परमशुद्ध हो गयी तथा विकार से छुट गयी, उसी का नाम निर्वाण है। भगवान का मनुष्य शरीर था, इसलिए अथवा वङ्काऋषभ नाराचसंहनन था, इसलिए निर्वाण हुआ ऐसा नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र और सम्यकतप से भगवान ने मुक्ति प्राप्त की, अभी भगवान महावीर का शासन चल रहा है, भगवान अपने परम आनन्द में तृप्त हो रहे हैं, अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव कर रहे हैं, ऐसे निर्वाण दशा का आज मंगलदिवस है, यह निर्वाण के उपाय की गाथा भी मंगल है, ‘दीपावली’ मंगलमय है, जिसने चैतन्य में ही उपयोग लगाकर उसे बाह्य ध्येय से विमुख किया है, अर्थात् विषयों से विरक्त होकर चैतन्य के आनन्द-रस का स्वाद लेता है, आनन्दानुभव को उग्र बनाकर स्वाद में लेता है, ऐसा पुरुष नियमपूर्वक ध्रुवरुप से निर्वाण को प्राप्त होता है।यह निर्वाण का ध्रुवमार्ग! अन्तर्मुख होकर जिसने ऐसा मार्ग प्रगट किया, वह वहाँ से लौटता नहीं, ध्रुवरुप से निर्वाण को प्राप्त करता है, जो जीव, दर्शन शुद्धिपूर्वक दृढ़ चारित्र द्वारा चैतन्य में एकाग्र होता है, उसे बाह्य विषयों से विरक्ति हो जाती है, उसी का नाम शील है और ऐसा शीलवान जीव अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। चैतन्यध्येय से च्युत होकर जिसने पर को ध्येय बनाया है, उस जीव के शील की रक्षा नहीं होती, उसके दर्शनशुद्धि नहीं है उसके उपयोग में राग के एकतारुपी विषयों का ही सेवन है, जिसने चैतन्यस्वभाव की रुचि प्रगट की है और राग की रुचि छोड़ी है, उसे चैतन्यध्येय से बाह्य विषयों का ध्येय छूट जाता है- ऐसा शील निर्वाणमार्ग में प्रधान है, इस प्रकार से दो गाथाओं में तो दर्शनशुद्धि के उपरान्त चारित्र की बात कह कर साक्षात् निर्वाण मार्ग का कथन किया।अब, एक दूसरी बात कहते हैं- किन्हीं ज्ञानी धर्मात्मा को कदाचित् विषयों से विरक्ति न हुई हो, अर्थात् चारित्रदशा की स्थिरता प्रगट न हुई हो, किन्तु श्रद्धा बराबर है तथा मार्ग तो विषयों की विरक्तिरुप ही है, इस प्रकार यथार्थ प्रतिप्रादन करते हैं तो उस ज्ञानी को मार्ग की प्राप्ति हो जाती है। सम्यकमार्ग का स्वयं को भान है और उसी को भली भाँति प्रतिपादन करते हैं, किन्तु विषयों से विरक्तिरुप मुनिदशा आदि प्राप्त नहीं होती।अस्थिरता है तो भी वे ज्ञानी धर्मात्मा मोक्षमार्ग के साधक हैं, वे मंगलरुप हैं, उन्हें इष्टमार्ग की प्राप्ति है और यथार्थ मार्ग दर्शाने वाले हैं, इसलिए उनके द्वारा दूसरों को भी सम्यकमार्ग की प्राप्ति होती है, किन्तु जो जीव, विषयों से राग से लाभ मनाता है, उसे सम्यकमार्ग में श्रद्धा नहीं होती, वह तो उन्मार्ग पर है तथा उन्मार्ग को बतलाने वाला है। धर्मात्मा को राग होता है, किन्तु उसे वे बन्ध का ही कारण जानते हैं, इसलिए राग होने पर भी उनकी श्रद्धा में विपरीतता नहीं होती, उन्हें मार्ग की प्राप्ति होती है और उनसे ही दूसरे जीव मार्ग प्राप्त कर सकते है, सत्मार्ग प्राप्त जीव ही निमित्तरुप होते हैं। अज्ञानी, राग से स्वयं लाभ मानता है और दूसरों को भी मनवाता है, इसलिए वह स्वयं मार्ग से भ्रष्ट है और उसके निकट मार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती। अहा! चैतन्य के श्रद्धा-ज्ञान तथा उसमें लीनता रुप वीतरागता किंचित् कर्तव्य नहीं है, राग का एक कण भी मोक्ष को रोकनेवाला है, वह मोक्ष का साधन वैâसे हो सकता है? ऐसी ज्ञानी को श्रद्धा है। ज्ञानी जहाँ पुण्यभाव को भी छोड़ने योग्य मानते हैं, वहाँ वे पाप में स्वच्छन्तापूर्वक वैâसे बरतेगें, चारित्रदशारहित हो तो भी सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्ग में ही है, क्योंकि उन्हें वीतराग चारित्र की भावना है, राग की भावना नहीं, श्रद्धा में वे सारे जगत् से विरक्त हैं, ज्ञान-वैराग्य की अद्भुत शक्ति उनको प्रगट हुई है, अन्तर में चैतन्य को ध्येय बनाकर राग से भिन्नता का भान हुआ है- ऐसे भान बिना कोई राग से लाभ माने तथा उसका प्ररुपण करे तो वह उन्मार्ग में हैं, उसके ज्ञान का विकास निरर्थक है, भगवान के मार्ग को उसने नहीं जाना है, भगवान किस प्रकार मोक्ष को प्राप्त हुए- उसकी उसे खबर नहीं है। अस्थिरता के कारण सम्यक्त्वी के विषय न छूटे, तथापि उनका ज्ञान नहीं बिगड़ता, दृष्टि के विषय में शुद्ध चैतन्य स्वभाव को पकड़ा है, वह कभी नहीं छूटता, उस ध्येय के आश्रम से वे सम्यकमार्ग में बरतते हैं, मोक्ष के माणिक स्तम्भ उनके आत्मा में जम गये हैं… वीर प्रभु के मंगलमार्ग पर चलकर वे भी मुक्ति को साथ रहे हैं। पूर्णतारुप परिनिर्वाण, मंगलरुप है और उसके प्रारम्भरुप सम्यक्त्व भी मंगल रुप है, इस प्रकार साध्य और साधक दोनों की बात आज ‘दीपावली’ के मांगलिक में आयी है।

भगवान् महावीर एवम् दीपावली 0

भगवान् महावीर एवम् दीपावली

मानव ने अपने अन्तर जागरण की प्रभात बेला में जब आँखें खोलीं तो अपने चतुर्दिक् व्याप्त संसति की संरचना को देखकर विस्मय-विमुग्ध हो गया। अपनी कर्मस्थली, अपना लोक ही उसकी समझ से परे हो, यह उसके लिए कम परिताप की बात न थी, उसने सोचा, आखिर यह सब क्या है? हमारे सामने सारी वसुन्धरा सजी-संवरी खड़ी है और हम हैं कि जो अंधेरे में भटक रहे हैं, कुछ भी समझने-बूझने के लिए, प्रकाश की कहीं से एक भी क्षीणरेखा ऩजर नहीं आ रही है, तब सभी ने – ‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय’’ की गुहार शुरु कर दी। कहना गलत न होगा, मानव सृष्टि के संस्कार का कार्य यहीं से आरम्भ हुआ। मानव-संस्कृति यहीं से उद्भुत हुई, तब से जब भी कभी अन्धकार की काली घटाओं ने मानवलोक को घेरा, कहीं न कहीं से कोई न कोई किरण रेखा कौंध उठी और दिव्यज्योति के प्रस्पुâटन की वह कौंध तद्युगीन अन्धकार को छिन्न-भिन्न करती चली गई। मानव सभ्यता के आदिकाल में आदिनाथ ऋषभदेव हुए, तदन्तर मर्यादा पुरुषोत्तम राम और पाश्र्व भी इसी परम्परा की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। महापुरुषों की इसी तेजस् परम्परा में श्रमण संस्कृति के महान् उद्गाता भगवान् महावीर आए, उन्होंने विश्व को ऐसी दिव्य ज्योति प्रदान की, जिससे मानव समाज चमत्कृत हो उठा। जब भगवान् महावीर धराधाम पर अवतरित हुए, उस समय भारतवर्ष अन्धकार के गहन गर्त में डूबा हुआ था। भारत के धर्म और भारत की संस्कृति पर अज्ञानरुपी अंधकार का ऐसा सघन आवरण छाया था कि कुछ लोग भ्रमवश, उस अन्धकार को ही प्रकाश मान बैठे थे। कुछ लोग ऐसे भी थे, जो प्रकाश की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे, किन्तु सही मार्ग प्राप्त करने में विफल हो रहे थे, जातीयता एवम् साम्प्रदायिकता आदि के क्षुद्र विभेद, मानव मन को कलुषित कर रहे थे। धर्म के नाम पर होने वाले याज्ञिक पशुबलि आदि के बाह्य क्रिया-काण्डों ने एक तरह से मानव को सत्य से पथभ्रष्ट कर दिया था। सत्य और न्याय का कहीं भी नामोनिशान नहीं था। बलवान निर्बलों को प्रताड़ित कर रहे थे, उनके श्रम पर स्वयं आनंद ले रहे थे। नारियों की हीन दशा भी मानव समाज के लिए कम ग्लानि की बात न थी। धर्म एवम् धर्मशास्त्रों के नाम पर नाना प्रकार के कुत्सित कर्म, बिना किसी रोक-टोक के हो रहे थे। सांस्कृतिक विनाश की उक्त काली रात्रि के गहन अंधकार के बीच, ज्योति पुरुष भगवान् महावीर ने नवचेतना का उन्मेष किया। धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि प्राय: सभी क्षेत्रों में एक स्वस्थ क्रान्ति का उद्घोष कर, समाज को एक नई ज्योति प्रदान की, एक नई दिशा दी, जीवन जीने के लिए आत्माओं को, अपनी आत्मा के समान देखने का मंगलमय उपदेश प्रदान कर,मानव को ‘देवाणुप्पिय’ संबोधन से सम्बोधित किया। भगवान् महावीर का दृष्टिकोण समन्वयवादी था, उन्होंने भेद में अभेद की, विग्रह में परस्पर प्रेम की स्थापना करने के लिए ‘स्याद्वाद्’ का आविर्भाव किया। स्याद्वाद् का यही आशय है कि प्रत्येक धर्म, दर्शन एवम् परम्परा में कुछ न कुछ सच्चाई का अंश निहित है, अस्तु, हमें विरोध में न पड़कर, प्रत्येक पक्ष की सच्चाई के अंश का समादर करना चाहिए तथा परस्पर प्रेम एवम् सद्भाव का वातावरण निर्मित करना चाहिए। उन्होंने कहा- ‘‘संसार में कल्याण करने वाला उत्कृष्ट मंगल एकमात्र धर्म ही है और कुछ नहीं, अहिंसा, संयम एवम् तप का समग्र रुप है’’ भगवान् महावीर का कहना था कि – ‘‘कोई भी सत्य क्षेत्र, काल, व्यक्ति या नाम आदि के बन्धन में कभी बंधा नहीं रह सकता, सच्चा धर्म अहिंसा है, जिसमें जीवदया, विशुद्ध प्रेम और बन्धु भाव का समावेश होता है। सच्चा धर्म संयम है, जिसमें मन और इन्द्रियों को वश में रखकर स्वात्मरमणता का आध्यात्मिक आनन्द लिया जाता है। सच्चा धर्म तप है, जिसमें जनसेवा, तितिक्षा, विनय, परहित भावना, ध्यान, आत्म चिन्तन एवम् स्वाध्याय आदि का समावेश होता है और जब ये तीनों पूर्णरुपेण एक साथ मिल जाते हैं, तो साधक की साधना परिपूर्ण हो जाती है।फलत: उसे दिव्य ज्योति प्राप्त हो जाती है, इस प्रकार भगवान् महावीर ने जन-जागरण की दिशा में विश्व-कल्याणकारी धर्मदेशना की पावन ज्योति विकीर्ण करते हुए वैâवल्य प्राप्ति के बाद तीस वर्ष तक भारत की पवित्र धरा पर विचरण करते रहे। भगवान महावीर की विचारक्रान्ति उभयमुखी थी, एक ओर इस क्रान्ति ने समाज को सड़ी-गली रुढ़ियों से मुक्त किया तो दूसरी ओर जन-जीवन में व्याप्त भोगशक्ति को दूर कर शुद्ध वीतरागता और निष्काम-साधना का पथ प्रशस्त किया। उक्त उभयमुखी क्रान्ति का इतना व्यापक प्रभाव हुआ कि न सिर्पâ मेघकुमार, नन्दीषेण जैसे अमित वैभव की गोद मेंं पले राजकुमारों ने ही भिक्षु का बाना अपनाया, बल्कि राजमहलों में मुक्त विलासिता का जीवन बिताने वाली मृगावती, नन्दा, कृष्णा जैसी महारानियों तक ने भिक्षुणी व्रत को अंगीकार कर, अपने को गौरवान्वित किया, एक ओर अर्जुन माली जैसे अनेक साधारण नागरिक भगवान् के संघ में थे, तो दूसरी ओर प्रसन्नचंद्र जैसे सम्राट भी थे। बस, खासियत यह है कि संघ में दोनों का दर्जा बराबर था। इन्द्रभूति गौतम जैसे उच्चकुलीन ब्राह्मण भगवान के आत्मीय शिष्य थे तो हरिकेशी जैसे चाण्डाल भी प्रभु के प्रिय अंतर्वासी थे। धर्म संघ में दोनों ही एक समान बन्धुभाव से रहते थे। भगवान का कहना था कि तुम्हारा पहले का वर्ण भेद के आधार पर खड़ा अस्तित्व मर चुका है, अब तुम दोनों ने धर्मबन्धु के रुप में श्रमण संघ में नया जन्म लिया है, इस संदर्भ में भगवान महावीर की वाणी है कि विश्व के सभी प्राणी आत्मभूत हैं, कोई पराया नहीं है। ‘सव्व भूयप्पभूएसु।’ मनुष्य का जीवन जन्म से नहीं, कर्म से सम्बन्धित है। -जिनागम

दीपावली की दिव्यता 0

दीपावली की दिव्यता

आत्म-ध्यान से सिद्धि मानवता को अहिंसा-सत्य, समानता, समत्व-भाव, स्वावलम्बन, सहिष्णुता, विरोध, सच्चारित्र और अभय का पावन सन्देश देने वाले विश्व पूज्य भगवान महावीर का परिनिर्वाण ई.पूर्व ५२७, कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के अन्तिम पहर में स्वाति नक्षत्र में पावापुर में हुआ था। महावीर सिद्धलोकवासी हो गए। इन्द्र और देवताओं ने निर्वाण कल्याणक पूजा की, नौलिच्छिवि, नौ मल्ल राजा और श्रेणिक राजा ने प्रजाजनों के साथ मिलकर प्रभु का निर्वाण कल्याणक मनाया व दीप जला कर ज्ञान-प्रकाश उत्सव मनाया, पावा नगरी दीप-आलोक से जगमगा गयी। निर्वाण के दो दिन पूर्व त्रयोदशी को पावा नगरी के मनोहर वन में सरोवर के मध्य मणिमय शिलापुर प्रभु विराजमान हुए। मन-वचन-काय योग का निरोध कर, क्रिया रहित हो, परम शुक्ल ध्यान में लीन हो गये जिससे शेषाचार अघतिया कर्मों का नाश हुआ, प्रतिदिन ६-६ घड़ी तीन बार खिरने वाली दिव्य ध्वनि बन्द हो गयी और वचन योग का भी पूर्णत: निरोध हो गया। प्रभु ने सुक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान द्वारा ७२ कर्म प्रकृतियों का आयोग, गुण स्थान के उपान्त्य में क्षय किया, तत्पश्चात शुक्ल ध्यान के चतुर्थपाद व्युपरत क्रिया निवृति का आलम्बन लेकर शेष १३ कर्म प्रकृतियों का अन्त समय में क्षयण कर, सिद्ध परमेष्ठी हो गये। अग्नि कुमार देवों के इन्द्र ने अपने मुकुट से अग्नि प्रज्ज्वलित कर, जिनेन्द्र प्रभु की देह का सन्स्कार किया, प्रभु का जब निर्वाण हुआ, उनके प्रमुख गणधर इन्द्रभूति गुणावा में विराजे थे। त्रयोदशी से चतुदर्शी की रात्रि का समय प्रजावासियों का अत्यन्त कौतुहल का समय था, वे भगवान की दिव्य ध्वनि से, प्रभु की सन्निकटता से वंचित हो गये थे और उसी क्रम में प्रभु का वियोग हो गया। हर्ष और वियोग का दु:ख दोनों एक साथ विद्यमान था, अन्तत: वियोग के भावों का शमन कर, सर्वजनों ने प्रभु का निर्वाण महोत्सव उल्लास पूर्वक मनाया तब से जैन परम्परा में भगवान महावीर के निर्वाण की स्मृति में दीपावली महोत्सव, वर्ष-प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा। कार्तिक कृष्ण अमावस्या की सन्ध्या को इन्द्रभूति गौतम केवल ज्ञान प्राप्त कर, चतुर्विध संघ के नायक बने थे, अत: उनकी पावन स्मृति में ज्ञान के प्रतीक दीप-मालिकाओं से उत्सव मनाया, यह परम्परा अभी भी निरन्तरित जारी है। भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव की स्मृति में निर्वाण कल्याणक पूजा सम्पन्न की गयी थी, कालान्तर में निर्वाण लाडू चढ़ाने की प्रथा चल पड़ी, जिनेन्द्र देव की पूजा अष्टद्रव्य से की जाती है, अष्टद्रव्य में नैवेद्य भी है। निर्वाणलाडू नैवेद्य का प्रतीक है जो क्षुधा (भूख) रोग के निवारण हेतु समर्पित किया जाता है। मोक्षफल की प्राप्ति हेतु नारियल, बादाम आदि फल समर्पित किया जाता है। दीपावली के दिन भगवान महावीर को मोक्ष हुआ था जो सभी जीवों को अभिष्ट है अत: विशिष्ट पूजन में फल का समर्पण युक्ति-युक्त प्रतीत होता है। मोक्ष होने पर क्षुधादि १८ दोषों से स्वत: मुक्ति मिल जाती है इस दृष्टि से निर्वाण लाडू के स्थान पर निर्वाण-फल समर्पित करने हेतु विचार किया जा सकता है। आज भारी-भार के निर्वाण लाडू चढ़ाकर वैभव/मान प्रदर्शन होने लगा है जो वीतरागी परम्परा के अनुकूल नहीं है। सुधार की दिशा और दशा वीतरागता एवम् जैनत्व के प्रकाश में हो तो उससे कषाय-पोषण या प्रदर्शन के स्थान पर आत्म-कल्याणक हो सकेगा और भगवान महावीर का शासन निर्वाण विशुद्ध रूप में प्रवाहमान होता रहेगा। मिष्ठान वितरण और नैवेद्य में अन्तर है, भावात्मक दृष्टि से यह भी स्मरण रखना चाहिए। दीपावली के दिन पटाखे फोड़ना त्रस जीवों की हिंसा का निमित्त बनता है,अत: इससे भी दूर रहना चाहिए। धन्य या ध्यान तेरस – जैसा ऊपर कहा है, निर्वाण के दो दिन पूर्व भगवान महावीर ने ध्यान योग लगाया, इस ध्यान योग के निमित्त अघातिया कर्म की ८५ (७२+१३) प्रकृतियाँ क्षय को प्राप्त हुई और भगवान महावीर को मोक्ष प्राप्त हुआ, इस दृष्टि से ध्यान के महत्व को दर्शाने और जीवन में ध्यान की परम्परा विकसित करने, ध्यान तेरस महोत्सव मनाना प्रारम्भ हुआ, ध्यान को ही धन्य रूप माना गया। काल दोष से ध्यान की अवधारणा लुप्त हो गयी और ध्यान तेरस को धन तेरस के रूप में मनाने लगे, व्यवसाय की दृष्टि से ऐसा प्रयोग आकर्षक भी लगा। धनतेरस को कुछ न कुछ बर्तन, सोना-चाँदी क्रय करना चाहिए ऐसी भावना जनमानस में उत्पन्न हुई। संसार, शरीर और विषय भोगों से मुक्ति पाने हेतु आत्म-ध्यान ही एक मात्र ऐसा राजमार्ग है जो कर्म बन्धनों से मुक्ति दिलाता है। काल दोष से अब ‘आत्मा’ और ‘ध्यान’ शब्द अरूचि-बोधक हो गये हैं इससे ऐसा लगने लगता है जैसे दर्शन-मोह का गहन अन्धकार दृष्टि को आकृत किये हो। धन तेरस का दिन सचेतक है, क्या हम उसके सही स्वरूप को समझकर सच्चे अर्थों में मोक्षमार्गी बनेंगे? विचारणीय जीवन में ध्यान (आत्म-ध्यान) के अभाव में कषायों का वेग पुष्ट हो रहा है। आकुलता और अशान्ति बढ़ रही है। ध्यान यदि धन में रूपान्तरित हो जाये तो इष्ट के स्थान पर अनिष्ट तो होना ही है, जहाँ तक लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि का प्रश्न है, वह तो अरहन्तादिक के प्रति स्तवनादि रूप विशुद्ध परिणामों से सहज ही सिद्ध हो जाते हैं, उसके लिए लक्ष्मी आदि की पूजा करना इष्ट नहीं है। विशुद्ध, तीव्र विशुद्ध परिणामों से सातादिक आदि पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है पूर्वकृत असातादिक पाप प्रकृतियों का अनुभव मन्द होता है या पाप प्रकृतियाँ पुण्यरूप परिणामित हो जाती हैं, जिनके उदय से इन्द्रिय सुख की सामग्री स्वमेव मिलती है, सप्रयोजन अरहन्तादिक की भक्ति भी पाप बन्ध का कारण होती है, समग्र रूप में धन के स्थान पर ध्यान को जीवन का अंग बनाना हित कारक है। ‘दीपावली पर्व’ विद्यमान जीवन को उत्कर्ष पर ले जा कर, अन्तत: निश्रेयश पद अर्थात् मोक्षदायक बनें इस दृष्टि से इस पर्व को सही स्वरूप में मनाना अपेक्षित है। आचार्य, साधु भगवन्त और विद्वान जन, समाज के भ्रम को दूर कर, उनका सद्मार्ग दर्शन करें, यही सविनय निवेदन है जिससे ‘दीपावली’ दिव्यता को प्राप्त होगी। आलेख समापन के पूर्व भगवान महावीर एवम् गौतम गणधर का संक्षिप्त परिचय देना अपेक्षित है:महावीर का जन्म क्षत्रिय कुल के विदेह-देश स्थित कुण्डग्राम (वासोकुण्ड) के राजा सिद्धार्थ के यहाँ, ईसा पूर्व २७ मार्च ५९९ को हुआ था। कुण्डग्राम वैशाली गणराज्य का अंग था, तीस वर्ष की आयु में महावीर ने जिनेश्वरी दीक्षा धारण कर बारह वर्ष तक निरन्तर आत्मा की मौन साधना कर, केवल्य ज्ञान प्राप्त किया, तत्पश्चात् जो आत्म-वैभव, अनन्त-ज्ञान पाया था, उसके प्रकाश में समवसरण सभा के माध्यम से जगत के जीवों को तीस वर्ष तक त्रिरत्न रूप आत्मकल्याण का मार्ग बताया। संयम, त्याग और तप के माध्यम से जीवन को आध्यामिक ऊँचाईयों तक ले जाने का मार्ग अहिंसा, सत्य आदि पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियजय, बारह तप, दशधर्म और पाँच चारित्र का आवलम्बन लेकर त्रिकाल शुद्ध आत्मा को पर्याय में शुद्ध की प्रक्रिया तक ले जाता है, यह मार्ग वीतरागता की प्राप्ति का मार्ग कहा जाता है। महावीर का परिनिर्वाण पावा में दीपावली के दिन हुआ। वासोकुण्ड वासी सर्वसमाज के महानुभाव महावीर जयन्ती, दीपावली का पर्व, महावीर की शिक्षाओं को अपने जीवन का अंग बना लिया जो कि महावीर का अद्भुत प्रभाव है। भगवान महावीर का शासन प्रभावशील है। भगवान महावीर के प्रथम गणधर ब्राह्मण मूल के इन्द्रभूत गौतम थे, वे वेदपाठी थे, उनका जन्म मगध देश के गोबरग्राम (नालन्दा के निकट) में हुआ था। पचास वर्ष तक वैदिक धर्म का पठन-पाठन कराते रहे। भगवान महावीर के समवशरण के मानस्तम्भ को देखकर उनका मान गला और आत्मज्ञान हुआ, उन्होंने जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की और पर्यायज्ञानी हो गये, वे भगवान के प्रथम गणधर हुए उनकी उपस्थिति में आषाढ़ पूर्णिमा को दिव्यध्वनि खिरी, अत: वह दिन गुरूपूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महावीर के निर्वाण के दिन गणधर गौतम को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। बारह वर्ष तक उन्होंने चतुर्विध संघ का सन्चालन किया और ई.पूर्व ७१५ में गुणावा जी से मोक्ष पधारे, आपकी स्मृति में नालन्दा में पुत्रोत्पत्ति पर सौहर गीत गाये जाते हैं। दीपावली का पर्व ‘जिनागम’ के प्रबुद्ध पाठकों का मंगलमय हो।

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ज्योतिर्मय निर्वाण दिवस

साधक के जीवन के लिए निर्वाण पर्व तथा उत्सवों का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत के प्राचीन इतिहास में अनेक पर्वों के वर्णन हैं, जीवन के हर-अंग के साथ कोई-न-कोई पर्व है विकास के लिये, निर्माण के लिये हर पर्व महान है। भारतवर्ष की महान संस्कृति एवं उज्ज्वल परंपरा में ‘दीपावली’ का महत्वपूर्ण स्थान है। दीपमाला में सिर्फ एक ही ज्योतिर्मय दीप नहीं, दीपों की अवलियां पंक्तियां है, एक के बाद एक क्रम बद्ध दीप-प्रज्वलित हैं, इसलिये दीपमाला और दीपावली एक ही है, दीपावली ज्योति का पर्व है, प्रकाश का पर्व है, इस ज्योतिपर्व के साथ इतिहास की महत्त्वपूर्ण कड़ियां-स्वर्णिम श्रृंखलाएं जुड़ी हुई हैं। ‘‘चलते-चलते राह है बढ़ते-बढ़ते ज्ञान तपते-तपते सूर्य है महावीर महान’’ एक ज्योतिर्मय-व्यक्तित्व, जो इतिहास का चमकता-दमकता अद्भुत रत्न-चिंतामणि इस पर्व के साथ-संबंधित है, वह है श्रमण-भगवान महावीर- वह महान-विशाल एवं विराट आत्मा अनंत-ज्योतिर्मय-आत्मा, जिसका हर गुण (ज्ञान, दर्शन, चरित्र, वीर्य-सुख, शांति एवं आनंद) अनंत है। भ.महावीर के लिए अर्थात् जिनका आचरण ही दूसरों के लिये राह/मार्ग संदेश-बना उस प्रायोगिक अनुभव से जिन्होंने आत्मज्ञान से विश्वविज्ञान को प्राप्त किया, ऐसे जीवात्मा रूपी कमल को विकसित करने वाले ज्ञान-सूर्य भगवान महावीर हैं। वत्र्तमान-अवसर्पिणि काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर महावीर हैं, वे अपने युग के युगदृष्टा-युगवीर, युगपुरूष थे, वे सर्वोत्तम धर्म नेता थे। अहिंसा और सत्य के संस्थापक थे, अनंत तेजस संपन्न आध्यात्मिक पुरूष थे, अपूर्व-सहनशील, क्षमाशील एवं घोर तपस्वी थे, वे क्रांतिकारी, समाज सुधारक, जन-जन के हितैषी, प्राणी मात्र के प्रिय-विश्व के कर्णधार, सत्य-पथ प्रदर्शक थे, उन्होंने हमें-अहिंसा के द्वारा संपूर्ण प्राणी जगत से प्रेम करना सिखाया था, उनकी अहिंसा मनुष्य मात्र तक ही सीमित नहीं थी, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, सकल जीवधारियों के प्रति उन्होंने अहिंसापूर्ण, दयापूर्ण-व्यवहार करने का मार्ग दर्शाया, वे आत्मदर्शी और आत्मजयी थे, क्षमावीर और धैर्यवान थे, समदर्शी और सहिष्णु थे, प्रेम और सत्य के प्रेमी थे, करूणा की मुर्ति थे, उनके समवरण में सभी धर्मों, मतो, संप्रदायों के लोग-एक-साथ उठते-बैठते थे।अमृतवर्षी प्रवचनों से सबके शुष्क-हृदय को शीतल करते थे, उन्होंने लोगों को समझाया कि कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य या क्षुद्र होता है, जन्म से कोई ब्राह्मण या शुद्ध नहीं होता, जन्म से कोई बड़ा या छोटा नहीं होता, आज सारा समाज धर्म और संप्रदाय को लेकर अशांत है, हिंसक बना हुआ है, विषमता बढती जा रही है, मनुष्य न्युट्रोन जैसे भयानक सर्वनाशक हथियार बना रहा है जो सबके लिये घातक है। भगवान-महावीर का परिनिर्वाण-दिवस ज्योतिपर्व मनाते हुए ढाई हजार वर्ष से अधिक हुए, अहिंसा और सह अस्तित्व की ज्योति-परमज्योति में मिल गई, हम दीपावली ज्योति पर्व उस महान-आत्मा की स्मृति में मना रहे हैं। कल्पसूत्र में कहा है निर्वाण के समय भगवान महावीर के अंतिम समवसरण में उपस्थित राजाओं ने यह निर्णय लिया कि भाव-उद्योत्त, भाव प्रकाश, भाव ज्योति हमारे बीच से चली गई है, ऐसे में उस ज्योति के प्रतीक के रूप में द्रव्य उद्योत्त किया जाए, द्रव्य प्रकाश किया जाए, क्योंकि भाव-ज्योति को जगाने की स्मृति के लिये द्रव्य ज्योति एक प्रतीक है। तत्कालीन वे ज्ञान-ज्योति के प्रतीक-रत्न-दीप आज नहीं रहे पर-मिट्टी के दिए आज भी जल रहे हैं, इस प्रकार जैन इतिहास के अनुसार दीपावली को ज्योति-पर्व का रूप-श्रमण-भगवान-महावीर के निर्वाण दिवस से मिला। राजाओं ने रत्न-दीप-प्रज्वलित किये, देवों ने, देवियों ने, अप्सराओं ने, यत्रों ने, गंधर्वों ने रत्नों की ज्योति से पावापुरी के कण-कण को आलोकित कर दिया, जगमगा दिया तब से यह ज्योतिपर्व की परंपरा जन-जीवन में प्रवाहित हो गई, जो आज भी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ प्रवाहमान है। पर्यूषण के उपरांत जैनों का दूसरा पवित्र त्यौहार दिवाली है, जैनी दिवाली चार दिनों तक मनाते हैं, मूलत: दिवाली निर्वाण उत्सव है, परंतु इन्द्रभूमि गौतम द्वारा वैâवल्य विभूति की प्राप्ति के उपलक्ष में दिवाली को लक्ष्मी (धन) पूजा का त्यौहार भी माना गया है, एक जैनी के लिये सबसे बड़ी विभूति और महालक्ष्मी केवल ज्ञान की प्राप्ति है। व्यवहार में धन ही लक्ष्मी है, अत: व्यवहाररत जैनों द्वारा आध्यात्म लक्ष्मी को गौण कर भौतिक लक्ष्मी की पूजा का समावेश दिवाली पूजन में किया जाना स्वाभाविक है। अमावस्या की प्रात: नर-नारी मंदिरों में जाकर श्री महावीराय नम: और श्री केवल ज्ञान लक्ष्मी नम: लिख कर पूजन करने का उल्लेख तिथिवार सहित करते हैं महावीर निर्वाण पूजा करते हैं और श्रवण करते हैं। कोई-कोई उपवास भी रखते हैं। पूजा में लाडू चढ़ाने की प्रथा है। सायंकाल को मंदिर और घरों में दीपक जलाए जाते हैं तथा बही पूजन किया जाता है, इसके लिये कोई-पुरोहित नहीं बुलाए जाते, सब स्वयं पूजा करते हैं। उच्चासण पर जैन शास्त्र विराजमान करते हैं, जो ज्ञान-लक्ष्मी मानी जाती हैं, आरती की जाती है और बही खाते में इस तरह से ज्योति पर्व के उपलक्ष में मनाया जाने वाला यह महापर्व आध्यात्मिक ज्योति पर्व है, अनंत ज्योतिर्मय ज्ञान-लक्ष्मी की उपासना का पर्व है जो प्रतिवर्ष प्रकाश का संदेश लेकर आता है, यह ज्योति पर्व अन्दर और बाहर की दरिद्रता को तोड़ने के लिये है। प्रभु महावीर और उनके महान-शिष्य गुरू गौतम का पावन स्मरण ही इस पर्व के साथ संबद्ध हैं, आनंद का स्त्रोत है, उनका स्मरण जीवन में परम प्रसन्नता की गंगा बहा देता है, उनके स्मरण मात्र से हमारे इस जीवन का ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों की तकलीफों, बाधाओं, रूकावटों की समाप्ति हो जाती है और ऐसे भाव आते हैं कि जीवन मंगलमय, आनंदमय बन जाता है। अंदर का अंधकार, बाहर के अंधकार को मिटा देता है, जैसे दीपावली के हजारों लाखों दीप-जगमगाकर बाहर के अंधकार को नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार हमारा अन्तर्मन भी ज्ञान ज्योति से जगमगा जाए, ‘‘ज्योति-पर्व-पर-ज्योतिर्मय हो, जीवन का कण कण, क्षण-क्षण विघ्न-जाल से मुक्त सर्वथा हो मंगल का नित्य वरण।। इस शुभ अवसर पर दिल से ऐसे भाव निकलते हैं-क्योंकि आज के पदार्थवादी युग और तनावग्रस्त जीवन तंत्र या समस्त विभिषिकाओं से बचने का एक मात्र रास्ता महावीर की शरण ही है, जिसे हम इस प्रकार से कह सकते हैं- ‘‘मरूस्थल को आग की नहीं, पानी की जरूरत है संसार को वंâजूस की नहीं, कर्ण दानी की जरूरत है भूले-भटके विश्व को फिर से नई राह मिले सचमुच आज महावीर जैसे ज्ञानी की जरूरत है महावीर निर्वाण दिवस पर उनको नमन करें, उनके द्वारा प्रज्वलित ज्योति को नमन करें और उस ज्योति के आलोक में स्वयं को आलोकित करें, ऐसी भावना ‘जिनागम’ परिवार व्यक्त करता है।