जैन धर्म की मान्यताएँ, विशेषताएँ और चातुर्मास

  • जैन धर्म किसी एक धार्मिक पुस्तक या शास्त्र पर निर्भर नहीं है, इस धर्म में ‘विवेक’ ही धर्म है |
  • जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति सर्वोपरि है और दर्शन मीमांसा धर्माचरण से पहले आवश्यक है |
  • देश, काल और भाव के अनुसार ज्ञान दर्शन से विवेचन कर, उचित- अनुचित, अच्छे-बुरे का निर्णय करना और धर्म का रास्ता तय करना |
  • आत्मा और जीव तथा शरीर अलग-अलग हैं, आत्मा बुरे कर्मों का क्षय कर शुद्ध-बुद्ध परमात्मा स्वरुप बन सकता है, यही जैन धर्म दर्शन का सार है, आधार है |
  • जैन दर्शन में प्रत्येक जीवन आत्मा को अपने-अपने कर्मफल अच्छे-बुरे स्वतंत्र रुप में भोगने पड़ते हैं, यहाँ परमात्मा को, कर्मों को क्षय कर आत्मा स्वरुप प्राप्त किया जा सकता है ​|
  • जिनवाणी में किसी व्यक्ति की स्तुति नहीं है, बल्कि समस्त आत्मागत गुणों का महत्व दिया गया है, जिनधर्म गुणों का उपासक है।
  • हमारे बाहर कोई हमारा शत्रु नहीं है, शत्रु हमारे अंदर है, काम क्रोध, राग-द्वेष आदि विकार ही आत्मा के शत्रु हैं, हम राग और द्वेष को जीत कर अविचल निर्मल वीतरागी बन सकते हैं |
  • ज्ञान और दर्शन के सभी दरवाजे खुले हैं। अनेकान्तवाद के अनुसार कोई दूसरा धर्म पन्थ भी सही हो सकता है क्योंकि सत्य सीमित या एकान्तिक नहीं है |
  • अन्य धर्मों की तुलना में जैन धर्म में अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया है, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह और उनके प्रति मोह आसक्ति वर्जित है |
  • जैन धर्म में नगर और नारी को समान स्थान दिया गया है, श्रावकश्राविका, श्रमण-श्रमणियों के रुप में बराबर स्थान तथा नारी को भी मुक्ति पाने का अधिकारी माना गया है |
  • जैन धर्म, जैन दर्शन के अनुसार जन्म, जाति, रंग, लिंग का कोई भेदभाव नहीं, मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से पहचाना जाना चाहिए |
  • जैन दर्शन, जैन धर्म, जैन आचार निवृत्ति परक है, इसमें त्याग और तपस्या, अनासक्ति और अपरिग्रह पर बड़ा जोर है, प्रवृत्ति सूचक कर्मों से उच्चौत्तर आत्माओं को दूर रहने की सलाह दी गई है |
  • जैन धर्म में रुढ़िवादिता नहीं है, चूंकि एक किसी गुरु, तीर्थंकर, आचार्य या संत को ही सर्वोपरि नहीं माना गया है, समयानुसार विवेकमुक्त बदलाव मुख्य सिद्धांतों की अवहेलना किये बिना मान्य किया गया है |
  • किसी तरह के प्रलोभन से जैनमत में धर्म परिवर्तन के कोई नियम नहीं है, स्वत: जिन धर्म संयत आचरण करने पर व्यक्ति जिनोपासक बन सकता है |
  • जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, आकाश, पृथ्वी, ६ प्रकार के जीवों की रक्षा का संकल्प लेना तथा जीवन यापन के लिए आवश्यकता से कम, उपयुक्त साधनों का प्रयोग करना, यतनापूर्वक पाप रहित जीवन जीना ‘जैन धर्म’ का मुख्य सिद्धांत है |
  • जैन धर्म में कोई देव भाषा नहीं है, भगवान महावीर के अनुसार जन भाषा में धार्मिक क्रियाएँ और ज्ञान प्राप्ति की जानी चाहिए, सामान्य जन भाषा भगवान महावीर के समय में प्राकृत और पाली थी, लेकिन आज ये भाषायें भी जन भाषायें नहीं रही, अत: अपने क्षेत्र की भाषा में चिंतन, मनन और धर्म आराधना होनी चाहिए, यही भगवान महावीर के उद्घोष का सार है, हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषा या अन्य कोई भी भाषा प्रयोग में ली जा सकती है |
  • ‘‘जियो और जीने दो’’ ‘‘परस्परोपग्रह जीवनाम्’’ दयाभाव युक्त और उसी के तहत जीवों के जीने में सहयोग करना अहिंसा का व्यवहारिक रुप है |
  • जैन धर्म के सिद्धांतों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता एक के बाद एक स्वयंसिद्ध है, जैसे वनस्पति में जीव है, जीव और जीवाणु है, पानी, भोजन, हवा में जीव है, यह सब बातें वैज्ञानिक सिद्ध कर चुके हैं, इससे सिद्ध होता है कि जैनाचार्य और जैन दर्शन द्वारा प्रदत्त ज्ञान अंधविश्वासों से मुक्त व सच्चा है।
  • जैन श्रमण, साधु, साध्वी भ्रमण करते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं रहते, मठ नहीं बनाते, आश्रम नहीं बनाते, पैसा कौड़ी अपने नाम से संग्रह नहीं करते।
  • जैन धर्म में गृहस्थों के लिए, श्रावक-श्राविका के लिए, सन्त-साध्वी के लिए अलग-अलग आचार मर्यादायें तय की गई है |
  • अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यह पाँच महाव्रत हैं, शाकाहारी भोजन हो, नशा-मुक्त जीवन हो, शिकार और जुए से दूर रहें, झूठ और चोरी का व्यवहार न करें, व्यभिचार मुक्त जीवन जीए |
  • मुक्ति का मार्ग अहिंसा, तप दान और शील के द्वारा बताया गया है, किसी से वैर न हो, सभी प्राणियों से प्रेम हो, इन मर्यादाओं के पालन के लिए विवेक प्राप्ति हेतु ज्ञान दर्शन स्वाध्याय के द्वारा प्राप्त करना हमारा आवश्यक कर्तव्य है |
  • जैन दर्शन सत्यनिवेषी है, सत्य ही धर्म है, परिस्थितिवश विवेक से सत्य को ढूंढना और उचित-अनुचित, धर्म- अधर्म, पाप-पुण्य का निर्णय करना, ये मुख्य शिक्षाएँ हैं।

-डॉ रिखब चन्द जैन

(चेयरमैन टी.टी. ग्रुप)

You may also like...