मंजू लोढ़ा
मंजू लोढ़ा की नई पुस्तक ‘…कि घर कब आओगे!’ सैनिक परिवारों के दर्द की दास्तान सीधे दिल में बहने लगती है
वह एक विवाहिता है, जिसका मन हर पल सिकुड़ा-सा किसी कोने में दुबका बैठा रहता है, उसके चेहरे पर अवसाद और संताप हर पल चढ़ता-उतरता देखा जा सकता है, वह हर पल अपने सुहाग के इंतजार में रहती है जब पति घर लौटता है, तो उसी पल वह उसके फिर से अचानक चले जाने के डर से सहमी रहती है, और जाने पर, फोन की हर घंटी उसे किसी बुरी खबर की आशंका से डराती है, यह एक सैनिक की पत्नी है, जो खुश होती है, तड़पती है, विरह में भीतर ही भीतर हर पल खोई रहती है, न सोती है, न रोती है। जानी मानी लेखिका मंजू लोढ़ा की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘…कि घर कब आओगे’ में सैनिक पत्नियों की व्यथा पढ़कर मन द्रवित हो उठता है। आखिर सीमा पर लड़ रहे सैनिकों की पत्नियों और परिवारजनों के भी सपने होते हैं, लेकिन उनके निजी जीवन की व्यथा कुछ-कुछ ऐसी होती है कि क्या तो सपने और क्या हो अपने। मंजू लोढ़ा ने सैनिक परिवारों और सैनिकों की पत्नियों के दर्द का अपनी इस ताजा पुस्तक में बेहद मार्मिक चित्रण किया है।
वैसे तो इस पुस्तक में मंजू लोढ़ा की कई कविताएं हैं, लेकिन… ‘फिर इंतजार की घडीयां काट लूंगी’, ‘तुम साथ होते तो’, ‘तेरे जाने के बाद’, ‘नवविवाहिता की व्यथा’, ‘एक सैनिक पत्नी की कथा’, ‘पापा जब घर आए ओढ़ के तिरंगा’ आदि पढ़कर हमारा मन कहीं खो सा जाता है, लगता है कि आखिर सैनिक परिवारों की जिंदगी में इतनी सारी विडंबनाएं एक साथ हैं, तो क्यूं है, इन्हीं कविताओं में से एक कविता में सैनिक की पत्नी जब अपने पति के शहीद हो जाने पर बच्चों को भी फौज में भेजने का ऐलान करती है, तो राष्ट्रप्रेम से सजे नारी मन की मजबूती के तीखे तेवर हमारी आंखों के सामने उतर जाते हैं। मंजू लोढ़ा की ये कविताएं सैनिक परिवारों के रिश्तों को, उन रिश्तों की भावनाओं को और उन भावनाओं में छिपे भविष्य को बहुत ही करीब से जाकर पढ़ती सी लगती हैं, ये कविताएं उन रिश्तों की भावनाओं को गुनती हैं, बुनती हैं और उनकी उसी गर्माहट को ठीक उसी अहसास में परोसने में सफल होती हैं। ये कविताएं सीधे मन में समाने लगती है और पढ़ते हुए आभास होता है कि लेखिका ने सचमुच सैनिक की पत्नी और उसके परिवार के जीवन में किसी अपने के साथ की कमी को, सुख के संकट को और राष्ट्र के प्रति प्रेम से पैदा हुए दर्द के दरिया को शब्दों में बहुत ही भावों के साथ पिरोया है।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के १२१वें जयंती वर्ष पर प्रकाशित ‘…कि घर कब आओगे!’ पुस्तक को श्रीमती लोढ़ा ने भारतमाता के वीर जवानों व उनके परिवारों को समर्पित किया है। नई दिल्ली स्थित केके पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित २४ पृष्ठ की यह पुस्तक है तो छोटी सी, लेकिन भावनाओ का ज्वार जगा जाती है। लंदन, मुंबई और नई दिल्ली में विमोचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘परमवीर’ के बाद मंजू लोढ़ा की यह ताजा कृति सैनिक परिवारों के प्रति कृतज्ञता, सद्भावना, संवेदना, सहानुभूति और अनुकंपा का भाव जगाती है।