आत्मविकास का अपूर्व अवसर : चातुर्मास
प्रत्येक क्रिया काल के अनुसार करनी चाहिए-मनुष्य श्रम करता है किन्तु उसका फल पाने के लिए ‘काल’ की उपयुक्तता /अनुकूलता जरुरी है, जैसे स्वास्थ्य सुधारने के लिए सर्दी का मौसम अनुकूल माना जाता है, वैसे धर्माराधना और तप: साधना के लिए वर्षावास,चातुर्मास का समय सबसे अधिक अनुकूल माना जाता है।
संपूर्ण सृष्टि के लिए वर्षाकाल सबसे महत्वपूर्ण है, इन महीनों में आकाश द्वारा जलधारा बरसाकर धरती की प्यास बुझाती है, धरती की तपन मिटाती है और भूमि की माटी को नम्र, कोमल, मुलायम बनाकर बीजों को अंकुरित करने के लिए अनुकूल बनाती है इसलिए २७ नक्षत्रों से वर्षाकाल के १० नक्षत्र और १२ महीने में चातुर्मास के ४ मास ऋतुचक्र की धुरी हैं, सृष्टि के लिए जीवनदायी हैं, प्राणिजगत् के लिए प्राणसंवर्धक और जीवन रक्षक माने जाते हैं।
वर्षावास का यही काल धर्माराधना के लिए सर्वोत्तम काल माना गया है।
चातुर्मास की विश्रुत परंपरा – आपके सामने दो शब्द आ रहे हैं- वर्षावास और चातुर्मास, पहले इसी पर विचार कर लें। वर्षावास का मतलब है- वर्षा ऋतु। श्रावण-भाद्रपद का महीना वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहना, एक ही स्थान पर निवास करना, जैन आगमों में इसे वर्षावास कहा गया है। वर्षा ऋतु केवल दो मास होते हैं, इसके बाद आती है शरद् ऋतु-आसोज और कार्तिक मास और ये चारों मास मिलकर चातुर्मास काल कहलाता है।
वैदिक व बौद्ध परंपरा में भी इस चार मास काल को चातुर्मास कहा गया है, चातुर्मास के लिए परिव्राजक, ऋषि, श्रमण, निग्र्रन्थ एक स्थान पर निवास करते हैं, आज भी यह चातुर्मास परंपरा चल रही है। वैदिक संत महात्मा आज भी वर्षाकाल में चातुर्मास करते हैं, भले ही वे चार महीने के बजाय दो महीने ही एक स्थान पर ठहरते हैं, श्रावण-भाद्रपद तक एक स्थान पर रुकते हैं। जनता को धर्माराधना, भागवत श्रवण, रामायण पाठ, व्रत-उपवास आदि की प्रेरणा देते हैं। बौद्ध भिक्षुओं में भी किसी समय चातुर्मास के चार माह एक स्थान पर ठहरने की परंपरा थी किन्तु अब वे भी दो मास में ही (कभी-कभी) चातुर्मास समाप्त कर देते हैं। जैन परंपरा में आज भी चातुर्मास की यह परंपरा अक्षुण्ण चल रही है। आषाढ़ी पूनम से कार्तिक पूनम तक चार महीने तक पदविहारी जैन श्रमण एक ही स्थान पर निवास करते हैं। जैन श्रमणों के लिए नवकल्पी विहार बताया है- मृगसर मास से आषाढ़ मास तक ८ महीने एक-एक मासकल्प तथा श्रावण मास से कार्तिक मास तक चार महीने चातुर्मास का एक कल्प नवकल्पी विहार का विधान जैन आगमों में है।
चातुर्मास : अंतर जागरण का संदेश-वैदिक ग्रंथों के वशिष्ठ ऋषि का कथन है कि चातुर्मास में चार महीने विष्णु भगवान समुद्र में जाकर शयन करते हैं इसलिए यह चार मास का काल धर्माराधना, योग, ध्यान, धर्मश्रवण, भागवत पाठ व जप-तप में बिताना चाहिए।
इन चार महीने में विवाह-शादी, गृह-निर्माण आदि कार्य नहीं करने चाहिए, यात्रा नहीं करनी चाहिए, एक समय भोजन करना और रात्रि भोजन नहीं करना, यहाँ तक भी कहा जाता है कि चार महीने सभी देवता शयन करते रहते हैं, अस्तु चार मास तक देवता शयन का मतलब है ये चार मास धर्माराधना और योगसाधना में ही बिताना चाहिए। वैदिक ग्रंथों के इस प्रतीकात्मक कथन पर विचार करें कि चार महीने तक देवता क्यों सो जाते हैं? या वास्तव में ही देवता या भगवान सोते हैं? इस कथन के गंभीर भाव को समझें तो स्पष्ट होगा कि देवता सोने का मतलब हैं- हमारी प्रवृत्तियाँ, हमारी क्रियाएँ सीमित हो जायें। सोना निवृत्ति का सूचक हैं, जागना प्रवृत्ति का सूचक है। हमारा पुरुषार्थ, हमारा पराक्रम जो बाह्यमुखी था वह चार महीने के लिए अंतर्मुखी बन जाये, बाहर से हम सोये रहें, भीतर से जागते रहें। बाहरी चेतना, संसार भावना कम हो, सुस्त हो और अंतरचेतना, धर्म भावना प्रबल हो यही मतलब है देवताओं के सोने का…