भारतीय भाषायी संस्कृति के प्रेमी

श्रमणाकाश के ध्रुवतारे वर्तमानयुग के ज्येष्ठ-श्रेष्ठ जैनाचार्य श्री १०८ विद्यासागरजी मुनिराज का पावन व्यक्तित्व

पूर्व नाम : श्री विद्याधर अष्टगे
जन्म स्थान : सदलगा, जिला बेलगाँव (कर्नाटक)
जन्म तिथि : शरदपूर्णिमा, १० अक्टूबर १९४६
पिता : श्री मल्लप्पा अष्टगे
माता : श्रीमती श्रीमन्ती अष्टगे
मातृभाषा : कन्नड़
शिक्षा माध्यम : कन्नड़
मुनि दीक्षा : आषाढ शुक्ल पंचमी, ३० जून १९६८ अजमेर (राज.)
दीक्षागुरू : महाकवि दिगम्बराचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज
आचार्य पद : २२ नवम्बर १९७२, नसीराबाद अजमेर
भाषा ज्ञान : कन्नड़, मराठी, हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, बंगला
वैशिष्ट्य : धर्म-दर्शन विज्ञ, साहित्यकार, सिद्धान्तवेत्ता, आध्यात्मिक प्रवचनकार, भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ, राष्ट्रीय चिन्तक, जैन मुनि संहिता के तपस्वी साधक
सफल प्रेरक : आपकी प्रेरणा से माता-पिता, दो छोटे भाई, दो छोटी बहिनें भी मोक्षमार्ग के साधक बने एवं सहस्त्राधिक उच्चशिक्षित बाल ब्रह्मचारी, शिष्य-शिष्याएँ मोक्षमार्ग में संलग्न हुए।

आचार्य श्री विद्यासागर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की दार्शनिक पीठिका पर अनेक जैनाचार्यों ने समय-समय पर जीवन विज्ञान से सम्बन्धित अनेक विध काव्य, कलाविधाओं से संपोषित साहित्य रचकर भारतीय संस्कृति को विश्व पटल पर विशिष्ट पहचान दी है। उसी परम्परा में २०वीं-२१वीं शताब्दी के साहित्य जगत में एक नये उदीयमान नक्षत्र के रूप में जाने-पहचाने जाने वाले शब्दों के शिल्पकार, अपराजेय साधक, तपस्या की कसौटी, आदर्श योगी, ध्यानध्याता-ध्येय के पर्याय, कुशल काव्य शिल्पी, प्रवचन प्रभाकर, अनुपम मेधावी, नव-नवोन्मेषी प्रतिभा के धनी, सिद्धांतागम के पारगामी, वाग्मी, ज्ञानसागर के विद्याहंस, प्रभु महावीर के प्रतिबिंब, महाकवि, दिगम्बराचार्य श्री विद्यासागरजी की आध्यात्मिक छवि के कालजयी दर्शन, दर्शक को आनंद से भर देता है। सम्प्रदाय मुक्त भक्त हो या दर्शक, पाठक हो या विचारक, अबाल-वृद्ध, नर-नारी उनके बहुमुखी चुम्बकीय व्यक्तित्व-कृतित्व को आदर्श मानकर उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारकर अपने आपको धन्य मानते हैं। माता-पिता की द्वितीय सन्तान किन्तु अद्वितीय कन्नड़ भाषी बालक विद्याधर की होनहार छवि को देख पिताजी ने कन्नड़ भाषा के विद्यालय में पढ़ाया। हिन्दी-अंग्रेजी भी सीखी, आत्मा के दिव्य आध्यात्मिक संस्कार वयवृद्धि के साथ-साथ स्वयं जागृत होने लगे। ९ वर्ष की उम्र में जैनाचार्य शान्तिसागर जी के कथात्मक प्रवचनों से वैराग्य का बीजारोपण हुआ और धर्म-अध्यात्म में रूचि बढ़ती गई तथा २० वर्ष की उम्र में घर-परिवार के परित्याग का कठिन असिधारा व्रत ले निकल पड़े शाश्वत सत्य का अनुसन्धान करने के लिए़… राजस्थान प्रान्त के अजमेर जिले के उपनगर मदनगंज-किशनगढ़ में सन् १९६७ मई/जून माह में नियति ने भ्रमणशील पगथाम लिए और पुरूषार्थी युवा ब्रह्मचारी गौरवर्णी ज्ञानपिपासु विद्याधर अष्टगे को मिला दिया ज्ञानमूर्ति चारित्र विभूषण महाकवि महामुनिराज से। ज्ञानसागर जी गुरूभक्ति-समर्पण से गुरूकृपा का प्रसाद पाकर ३० जून १९६८ को अजमेर में सर्व पराधीनता को छोड़ दिगम्बर मुनि बनकर शाश्वत सत्य की अनुभूति में तपस्यारत हो गए। जो धरती/काष्ठ के फलक पर आकाश को ओढ़ते हैं। यथाजात बालकवत् निर्विकारी, अनियत विहारी, अयाचक वृत्ति के धनी, भक्तों के द्वारा दिन में एक बार दिया गया बिना नमक-मीठे के, बिना हरी वस्तु के, बिना फल-मेवे के सात्विक आहार दान ही लेते हैं, वो भी मात्र ज्ञान-ध्यान-तप-आराधना के उद्देश्य से। अहिंसा धर्म की रक्षार्थ अहर्निश सजग, करूण ह्य्दयी मुनिवर श्री जी संयम उपकरण के रूप में सदा कोमल मयूर पिच्छी साथ रखते हैं, जिससे अपनी क्रियाओं में मृदु परिमार्जन करके जीवनदया पालन से सह-अस्तित्व का आदर्श उपस्थित कर रहे हैं एवं शुचिता हेतु नारियल के कमण्डल के जल का उपयोग करते हैं, इसके अतिरिक्त तृणमात्र परिग्रह भी नहीं रखते।

आपकी स्वावलम्बी, निर्मोही, समता, सरलता, सहिष्णुता की पराकाष्ठा के जीवन दर्शन प्रत्येक दो माह में दाढ़ी-मूंछ-सिर के केशों को हाथों से घास-फुंस के समान उखाड़कर अलग करते हैं। आप अस्नानव्रत संकल्पी होने के बावजूद, ब्रह्मचर्य की तपस्या से आपने तन-मन वचन सदा पवित्र-सुगन्धित दैदीप्यतान रहते हैं। आपकी साधना-ज्ञान-चिन्तन गुरू के द्वारा दिए गए नाम-पद के सार्थक संज्ञा के पर्याय बन गए हैं। अलौकिक कृतित्व: ऐसे दिव्य आचार-विचार-मधुर व्यवहार से आचार्य शिरोमणि की जीवन रूपी किताब का हर पन्ना स्वर्णिम भावों एवं शब्दों से भरा हुआ है, जिसे कभी भी कहीं भी कितना ही पढ़ो व्यक्ति थकता नहीं, उनको पढ़ने वाला यही कहते पाया जाता है कि आचार्य श्री जी के दिव्य दर्शन करते वक्त नजर हटती नहीं-उठने का मन नहीं करता, ऐसा लगता है मानो प्रभु महावीर जीवन्त हो उठे हों। यही कारण है कि आपके दिव्य तेजोमय आभा मण्डल के प्रभाव से उच्च शिक्षित युवा-युवतियाँ जवानी की दहलीज पर आपश्री के चरणों में सर्वस्व समर्पण कर बैठे, जिनमें भारत के १० राज्यों के युवक-युवतियों में करीब १२० दिगम्बर मुनि, १७२ आर्यिकाएँ (साध्वियाँ), ६४ क्षुल्लक (साधक), ३ क्षुल्लिका (साध्वियाँ), ५६ ऐलक (साधक) को दीक्षा देकर मानव जन्म की सार्थक साधना करा रहे हैं। इनवे अतिरिक्त आपके निर्देशन में  सहस्त्राधिक बाल ब्रह्मचारी भाई-बहन साधना के क्रमिक सोपानों पर साधना को साध रहे हैं एवं आपश्री  के निर्यापकाचार्यत्व में ३० से अधिक साधकों ने जीवन की संध्या बेला में आगमयुक्त विधि से सल्लेखना पूर्वक समाधि धारण कर जीवन के उद्देश्य को सार्थक किया है।

महापुरूष का सार्वभौमिक कृतित्व:- ज्ञान-ध्यान-तप के यज्ञ में आपने स्वयं को ऐसा आहूत किया कि अल्पकाल में ही प्राकृत-संस्कृत-अपभ्रंश-हिंदी-अंग्रेजी-मराठी-बंगाली-कन्नड़ भाषा के मर्मज्ञ साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए।अपने प्राचीन जैनाचार्यों के २५ प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी भाषा में पद्यानुवाद कर पाठक को सरसता प्रदान की है-
१. समयसार (प्राकृत आ. कुन्दकुन्द स्वामी कृत) पद्यानुवाद
२. प्रवचनकार (प्राकृत आ. कुन्दकुन्द स्वामी कृत) पद्यानुवाद
३. नियमसार (प्राकृत आ. कुन्दकुन्द स्वामी कृत) पद्यानुवाद
४. पञ्चास्तिकाय (प्राकृत आ. कुन्दकुन्द स्वामी कृत) पद्यानुवाद
५. अष्टपाहुड (प्राकृत आ. कुन्दकुन्द स्वामी कृत) पद्यानुवाद
६. बारसाणुवेक्खा (प्राकृत आ. कुन्दकुन्द स्वामी कृत) पद्यानुवाद
७. समयसार कलश (संस्कृत, अमृतचंदाचार्य कृत) पद्यानुवाद
८. इष्टोपदेश प्र. (संस्कृत, आ. पूज्यपाद कृत) बसंततिलका पद्यानुवाद
९. इष्टोपदेश द्वि. (संस्कृत, आ. पूज्यपाद कृत) ज्ञानोदय पद्यानुवाद
१०. समाधिशतक (संस्कृत, आ. पूज्यपाद कृत) पद्यानुवाद
११. नव भक्तियाँ (संस्कृत, आ. पूज्यपाद कृत) पद्यानुवाद
१२. स्वयंभूस्त्रोत (संस्कृत, आ. समन्तभद्र कृत) पद्यानुवाद
१३. रत्नकरण्डक श्रावकाचार ((संस्कृत, आ. समन्तभद्र कृत) पद्यानुवाद 
१४. आप्त मीमांसा (संस्कृत, आ. समन्तभद्र कृत) पद्यानुवाद
१५. आप्तपरीक्षा (संस्कृत, आ. समन्तभद्र कृत) पद्यानुवाद
१६. द्रव्य संग्रह प्र. (प्राकृत, आ. नेमिचन्द्र कृत) बसंततिलका पद्यानुवाद
१७. द्रव्य संग्रह द्वि. (प्राकृत, आ. नेमिचन्द्र कृत) ज्ञानोदय पद्यानुवाद
१८. गोम्मटेश अष्टक (प्राकृत, आ. नेमिचन्द्र कृत) पद्यानुवाद
१९. योगसार (अपभ्रंश, आ. योगेन्द्रदेव कृत) पद्यानुवाद
२०. समणसुत्तं (प्राकृत, संस्कृत, जिनेद्रवर्णी द्वारा संकलित) पद्यानुवाद
२१. कल्याणमन्दिर स्तोत्र (संस्कृत, आ. कुमुदचन्द्र कृत) पद्यानुवाद
२२. एकीभाव स्तोत्र (संस्कृत, आ. वादीराज कृत) पद्यानुवाद
२३. जिनेन्द्र स्तुति (संस्कृत, पात्र केसरी कृत) पद्यानुवाद
२४. आत्मानुशासन (संस्कृत, आ. गुणभद्र कृत) पद्यानुवाद
२५. स्वरूप सम्बोधन (संस्कृत, आ. अकलंक कृत) पद्यानुवाद
२) आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी में प्रेरणादायक युवप्रवर्तक महाकाव्य ‘मूकमाटी’ का सर्जन कर साहित्य जगत् में चमत्कार कर दिया है। जिसे साहित्यकार ‘फ्यूचर पोयॅट्री’ एवं श्रेष्ठ दिग्दर्शक के रूप में मानते हैं। विद्वानों का मानना है कि भवानी प्रसाद मिश्र को सपाट बयानी, अज्ञेय का शब्द विन्यास, निराला की छन्दसिक छटा, पन्त का प्रकृति व्यवहार, महादेवी की मसृण गीतात्मकता, नागार्जुन का लोक स्पन्दन, केदारनाथ अग्रवाल की बतकही वृत्ति, मुक्तिबोध की पैंâटेसी संरचना और धूमिल की तुक संगति आधुनिक काव्य में एक साथ देखनी हो तो वह ‘मूकमाटी’ में देखी जा सकती है। सम्प्रति साहित्य जगत् ‘मूकमाटी’ महाकाव्य को नये युग का महाकाव्य के रूप में समादृत करता है, यही कारण है कि ‘मूकमाटी’ महाकाव्य के दो अंग्रेजी रूपान्तरण, दो मराठी रूपान्तरण, एक कन्नड़, एक बंगला, एक गुजराती रूपान्तरण हो चुका है एवं उर्दू व जापानी भाषा में अनुवाद का कार्य चल रहा है। प्राकृत महाकाव्य पर अनेकों स्वतन्त्र आलोचनात्मक ग्रन्थों के अतिरिक्त ४डी. लिट्, २२ पी.एच.डी., ७ एम.फिल के शोधप्रबन्ध तथा २ एम.एड. और ६ एम.ए. के लघु शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके/रहे हैं। इस कालजयी कृति पर अब तक भारत के विख्यात ३०० से अधिक समालोचकों ने आलोचन-विलोचन किया है तथा उस अपूर्व साहित्यिक सम्पदा को प्रसिद्ध विद्वान डॉ. प्रभाकर माचवे एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी के सम्पादकत्व में ‘‘मूकमाटी मीमांसा’’ नामक ग्रन्थ के रूप में पृथक्-पृथक् तीन खण्डों में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ने प्रकाशित किए हैं। ३) आपने नीति-धर्म-दर्शन-अध्यात्म विषयों पर संस्कृत भाषा में ७ शतकों और हिन्दी भाषा में १२ शतकों का सर्जन किया है, जो पृथक्-पृथक् एवं संयुक्त रूप से प्रकाशित हुए हैं- संस्कृत शतकम्-१. श्रमण शतकम्, २. निरंजन शतकम्, ३. भावना शतकम्, ४. परीषहजय शतकम्, ५. सुनीति शतकम्, ६. चैतन्य चन्द्रोदय शतकम्, ७. धीवरोदय शतकम् हिन्दी शतक – १. निजानुभव शतक, २. मुक्तक शतक, ३. श्रमण शतक, ४. निरंजन शतक, ५. भावना शतक, ६. परीषहजय शतक, ७. सुनीति शतक, ८. दोहादोहन शतक,पूर्णोदय शतक, १०. सूर्योदय शतक, ११. सर्वोदय शतक१२. जिनस्तुति शतक ४) आपके शताधिक अमृत प्रवचनों के ५० संग्रह ग्रन्थ भी पाठकों के लिए उपलब्ध हैं एवं त्रिसहस्त्राधिक प्रवचनावली अप्रकाशित हैं। 

आपके द्वारा विरचित हिन्दी भाषा में लघु कविताओं के चार संग्रह ग्रन्थ- ‘‘नर्मदा का नरम वंâकर, तोता क्यों रोता, डूबो मत लगाओ डुबकी, चेतना के गहराव में’’ ये प्रकाशित कृतियाँ साहित्य जगत् में काव्य सुषमा को विस्तारित कर रही हैं। ६) आपने संस्कृत, हिन्दी के अतिरिक्त कन्नड़, बंगला, अंग्रेजी, प्राकृत भाषा में भी काव्य रचनाओं का सर्जन किया है, साथ ही ‘‘आचार्य शान्तिसागर जी, आचार्य वीरसागर जी, आचार्य शिवसागर जी, आचार्य ज्ञानसागर जी’’ की परिचयात्मक स्तुतियों की रचना एवं संस्कृत, हिन्दी में शारदा स्तुति की रचना की है।
७) आपने जापानी छन्द की छायानुसार सहस्त्राधिक हाईकू (क्षणिकाओं) का सर्जन कर साहित्य क्षेत्र में अपनी अनोखी प्रतिभा के प्रातिभ से परिचय कराया है। राष्ट्रीय विचार सम्प्रेरक और सम्पोषक के रूप में प्रसिद्ध आचार्य श्री जी ने अपने विचारों से, भारती संस्कृति के गौरव को बढ़ाया है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, गुजरात आदि प्रदेशों की लगभग ५० हजार किलोमीटर की पदयात्रा कर राष्ट्रीयता एवं मानवता की पहरेदारी में कदम-दर-कदम आदर्श पदचिह्नों को स्थापित किया है। आपकी अनेकान्ती स्याद्वादमयी वाणी सम्प्रेरित करती है- (क) भारत में भारतीय शिक्षा पद्धति लागू हो। (ख) अंग्रेजी नहीं भारतीय भाषा में हो व्यवहार। (ग) छात्र-छात्राओं की शिक्षा पृथक्-पृथक् हो (घ) विदेशी गुलामी का प्रतीक ‘इण्डिया’ नहीं, हमें गौरव का प्रतीक ‘भारत’ नाम देश का चाहिए (ड) नौकरी नहीं व्यवसाय करो (च) चिकित्सा: व्यवसाय नहीं सेवा बनें (छ) स्वरोजगार को सम्बद्र्धित करो (ज) बैंकों के भ्रमजाल से बचो और बचाओ (झ) खेतीबाड़ी सर्वश्रेष्ट (ञ) हथकरघा स्वावलम्बी बनने का सोपान (ट) भारत की मर्यादा साड़ी (ठ) गौशालाएँ जीवित कारखाना (ड) माँस निर्यात देश पर कलंक (ढ़) शत-प्रतिशत मतदान हो (ण) भारतीय प्रतिभाओं का निर्यात रोका जाए, आदि।

उपरोक्त ज्वलन्त प्रासंगिक विषयों पर जब आपकी दिव्य ओजस्वी वाणी प्रवचन सभा में शंखनाद करती है तब सहस्त्राधिक श्रोतागण करतल ध्वनि के साथ विस्तृत पाण्डाल को जयकारों से गुंजायमान कर पूर्ण समर्थन कर परिवर्तन चाहते हैं। अहिंसा के पुजारी आचार्य श्री का दयालु ह्य्दय तब सिसक-सिसक उठा जब उन्होंने देखा कृषि प्रधान अहिंसक देश में गौवंश आदि पशुधन को नष्ट कर माँस निर्यात किया जा रहा है तब उन्होंने हिंसा के ताण्डव के बीच अहिंसा का शंखनाद किया- गोदाम नहीं-गौधाम चाहिए। भारत अमर बने-अहिंसा नाम चाहिए। घी-दूध-मावा निर्यात करो। राष्ट्र की पहचान बने ऐसा काम चाहिए। जो हिंसा का विधान करे, वह सच्चा संविधान सार नहीं। जो गौवंश काट माँस निर्यात करे, वह सच्ची सरकार नहीं।। १) अहिंसा के विचारों को साकार रूप देने के लिए आपने प्रेरणा दी-आशीर्वाद प्रदान किया, फलस्वरूप भारत के पाँच राज्यों में ७२ गौशालाएँ संचालित जिनमें अद्यावधि एक लाख से अधिक गौवंश को कत्लखानों में कटने से बचाया गया। २) प्रदूषण के युग में बीमारियों का अम्बार और व्यावसायिक चिकित्सा के विकृत स्वरूप के कारण गरीब-मध्यम वर्ग चिकित्सा से वंचित रहने लगा तो इस अव्यावहारिक परिस्थिति से आहत-दयाद्र्र आचार्य श्री की पावन प्रेरणा से सागर (म.प्र.) में ‘‘भाग्योदय तीर्थ धर्मार्थ चिकित्सालय’’ की स्थापना हुई। ३) सुशासन-प्रशासन के लिए सर्वोदयी राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत आचार्य श्री जी की लोकमंगल दायी प्रेरणा से पिसनहारी मढ़ियारी जबलपुर एवं दिल्ली में ‘‘प्रशासनिक प्रशिक्षण केन्द्र’’ की स्थापना हुई। ४) बालिका शिक्षा ने जोर पकड़ा किन्तु व्यावसायिक संस्कार विहीन शिक्षण ने युवतियों को दिग्भ्रमित कर कुल-परिवार-समाज-संस्कृति के संस्कारों से रहित सा कर दिया, ऐसी दु:खदायी परिस्थिति को देख आचार्य श्री जी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से देश-समाज के समक्ष आधुनिक एवं संस्कारित शिक्षा के तीन आदर्श विद्यालय स्थापित किए गए- ‘‘प्रतिभा स्थली’’, जबलपुर (म.प्र.), डोंगरगढ़ (छ.ग.), रामटेक (महाराष्ट्र) इसके अतिरिक्त जगह-जगह छात्रावास स्थापित किए गए जिनमें जयपुर, आगरा, हैदराबाद, इन्दौर, जबलपुर आदि हैं। ५) गरीब एवं विधवाओं की तंगस्थिति देख करूणाशील आचार्य श्री जी की सुप्रेरणा से जबलपुर (म.प्र.) में लघु उद्योग ‘पूरी मैत्री’ संचालित किया गया। ६) विदेशी कम्पनियों के मकड़जाल ने स्वदेशी उद्योगों को समाप्त किया, फलितार्थ करोड़ों लोग बेरोजगार हुए और उनके समक्ष आजीविका का संकट खड़ा हुआ। देश का जीवन विपत्तीग्रस्त अशांत, दु:खी देख, आचार्य श्री जी द्रवीभूत हो उठे और गाँधी जी के द्वारा सुझाये गये स्वदेशी अहिंसक आजीविका ‘हथकरघा’ की प्रेरणा दी जिससे समाज ने महाकवि पं. भूरामल सामाजिक सहकार न्यास हथकरघा प्रशिक्षण केन्द्र की अनेकों स्थानों पर शाखाएँ खोली गई जिनमें बीना बारह, कुण्डलपुर, मण्डला, अशोकनगर, भोपाल आदि प्रमुख हैं तथा आचार्य ज्ञानविद्या लोक कल्याण हथकरघा केन्द्र मुंगावली के अन्तर्गत-मुंगावली, गुना, आरोन आदि स्थानों पर हथकरघा शाखाएँ खोली गई । १. आचार्यश्री जी की दूरदर्शिता ने जैन संस्कृति को हजारों-हजार साल के लिए जीवित बनाए रखने हेतु प्राचीन मन्दिरों की पाषाण निर्मित शैली को ही अपनाने की बात कही। आचार्य भगवन् के ऐतिहासिक सांस्कृतिक चिंतन से प्रभावित होकर उनकी प्रेरणा से अनेक स्थानों की समाजों ने पाषाण से भव्य विशाल जिनालयों के निर्माण हेतु आचार्यश्री जी के ही पावन सानिध्य में शिलान्यास किए- १. गोपालगंज, जिला-सागर (म.प्र.) २. सिलवानी, जिला-रायसेन (म.प्र.) ३. टड़ा, जिला-सागर (म.प्र.) ४. नेमावर, जिला-देवास (म.प्र.) ५. हबीबगंज, भोपाल (म.प्र.) ६.तेंदूखेड़ा, जिला-दमोह (म.प्र.), ७. देवरी कलाँ, जिला-सागर (म.प्र., ८. रामटेक, जिला-नागपुर (महा.), ९. इतवारी, नागपुर (महा.), १०. विदिशा (म.प्र.), ११. नक्षत्र नगर, जबलपुर (म.प्र.), १२. डिंडौरी (म.प्र.) २. आवश्यकतानुसार समय की माँग को देखते हुए कई नए तीर्थों की परिकल्पना को आचार्यश्री जी ने मूर्तस्वरूप प्रदान करने हेतु प्रेरणा एवं आशीर्वाद प्रदान किया। फलस्वरूप नए तीर्थों का जन्म हुआ- १. सर्वोदय तीर्थ, अमरकंटक , जिला-शहडोल (म.प्र.) २. भाग्योदय तीर्थ, सागर (म.प्र.) ३. दयोदय तीर्थ, जबलपुर (म.प्र.) ४. सिद्धक्षेत्र सिद्धोदय, नेमावर, जिला-देवास (म.प्र.) ५. अतिशय क्षेत्र चन्द्रगिरि, डोंगरगढ़ (छ.ग.) ३. आचार्य भगवन् ने जिन तीर्थों पर चातुर्मास, ग्रीष्मकालीन या शीतकालीन प्रवास किया। वहाँ पर जीर्ण-शीर्ण मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया- १. अतिशय तीर्थक्षेत्र कोनी जी, जिला-जबलपुर (म.प्र.) २. सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर, जिला-दमोह (म.प्र.) ३. अतिशय तीर्थक्षेत्र बीना जी बारहा, सागर (म.प्र.) ४. अतिशय तीर्थक्षेत्र पटनागंज, रहली, सागर (म.प्र.) आपकी दिव्य दया के अनेकों सत्कार्य समाज में प्रतिफलित हो रहे है।

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