Category: दिसंबर-२०१८

मुम्बई में विज्ञान और अध्यात्म पर सेमिनार 0

मुम्बई में विज्ञान और अध्यात्म पर सेमिनार

मुम्बई धर्म और विज्ञान भविष्य में कैसे समाज के लिए वरदान साबित होगा, इस विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन इंटरनेशनल अहिंसा रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट ऑफ स्प्रिचुवल टेक्नोलॉजी द्वारा वल्र्ड जैन कंफेडरेशन आई आईटी बॉम्बे और बी.एम.आई.आर.सी.जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट के सहयोग से मुम्बई के भारतीय विद्या भवन में प्रोफेशर मुनि महेंद्र कुमार, आचार्य नंदीघोषशुरी, समणी चैतन्य प्रज्ञा के सानिध्य में संपन्न हुआ।डॉक्टर मुनि अभिजितकुमार ने कहा कि विज्ञान और धर्म के एक साथ आने से जीवन सुगम होगा। पुस्तक विमोचन के दौरान मुनि अभिजितकुमार जी ने कहा कि पुस्तक केवल पड़ी न रहे बल्कि पढ़ी हुई होनी चाहिए। जस्टिस तातेड़ ने कहा धर्म जब विज्ञान के पटल पर सिद्ध होता है, तभी उसे समाज स्वीकारता है, जबकि धर्म विज्ञान से पहले है। प्रोफेशर नरेंद्र भंडारी भगवान महावीर ने हजारों वर्ष पहले ही ह्यूमन साइंस की परिभाषा रखी थी, जिन सिद्धांतों को आज हम मान रहे हैं। न्यूरोलॉजिस्ट प्रताप संचेती आई आर्टिस्ट एक संस्था समूह है जो भविष्य के लिए खोज करती है यह प्रोफेशर महेंद्र कुमार का ब्रेन चाईल्ड हैं। प्रोफेशर समणी चैतन्य प्रज्ञा ने कहा कि जैन धर्म विज्ञान के पटल पर लगातार एक उचित स्थान प्राप्त करता जा रहा हैं। डॉक्टर बिपिन दोषी, रोजी ब्लू फाउंडेशन अरुण मेहता, लाहेरी गुरु जी ने भी अपने भाव रखें। आचार्य नंदी घोष ने कहा कि मुनि महेंद्र कुमार की पुस्तकों से मुझे प्रेरणा मिली, करीब ३५ वर्ष पहले उनकी किताब पढ़ी थी उसके बाद ही मेरे जीवन में बदलाव आया और जब तीन साल पहले उनसे साक्षात मुलाकात हुई तो उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुआ, इस अवसर पर प्रोफेशर के. पी. मिश्रा, भंवरलाल कर्णावट, सिरियारी संस्थान अध्यक्ष ख्यालीलाल तातेड़, राजकुमार चपलोत, राजेश चौधरी, महेंद्र तातेड़, प्रकाश धींग, मुकेश धाकड़, विजय पटवारी, नितेश धाकड़, हेमेंद्र जैन, चन्द्रप्रकाश मादरेचा, सुनील इंटोदिया, दिनेश धाकड़, कुलदीप बैद, प्रहलाद सिंह आदि की उपस्थिति रही। कार्यक्रम की शुरुवात नवकार महामंत्र के साथ हुआ। मंगलाचरण गीतिका की प्रस्तुति पीयूष नाहटा ने दी। कार्यक्रम को सफल बनाने में विशेष सहयोग, वी. सी. कोठारी, सुमेर सुराणा, एस. के. जैन, प्रवीण धारीवाल,अशोक कोठारी, नवरत्न गन्ना, कमलेश रांका और पूजा बांठिया का रहा, कार्यक्रम में संचालन मुनि अभिजीत कुमार जी और वर्षा बैद ने किया। सुश्रावक कर्मयोगी स्व. श्री प्रेमचन्द जैन दुग्गड़ एवं स्व.श्री तरसेम लाल जैन जी की पुण्य स्मृति पर महिला शाखा द्वारा राशन वितरण महिला शाखा भगवान महावीर सेवा सोसाइटी रजि. द्वारा सुश्रावक कर्मयोगी स्व. श्री प्रेमचन्द जैन दुग्गड़ एवं स्व. श्री तरसेम लाल जैन जी की पुण्य स्मृति पर राशन वितरण समारोह सिविल लाईन्ज़ के जैन स्थानक में आयोजित किया गया। समारोह का शुभारंभ महामन्त्र नवकार के समुहिक उचारन से शुरू किया गया, इस कैम्प में ५० जरूरतमंद परिवारों को राशन वितरण किया गया, राशन वितरन समारोह का लाभ स्व. श्री प्रेमचन्द जैन दुग्गड़ जी की धर्मपत्नी सुदेश कुमारी जैन एवं उनका परिवार प्रदीप-सुनीता जैन, विक्रम-रूपाली जैन, आदित्य, महक जैन, प्रेरणा, विशाल, विभा, कार्तिक, संभव (कसूर वाले) एवं स्व. श्री तरसेम लाल जैन जी के परिवार से सतीश जैन-कविता जैन, सुरेश जैन-रजनी जैन आदि परिवार ने लिया। महिला शाखा भगवान महावीर सेवा सोसाईटी की प्रधान नीलम जैन ने ‘जिनागम’ बताया कि आज श्री प्रेमचन्द जैन दुग्गड़ जी एवं स्व. श्री तरसेम लाल जैन जी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा किए गए सेवा के कार्यों को कभी नहीं भुलाया जा सकता, आज भी इनका परिवार सेवा के हर क्षेत्र में अपनी सक्रिय भुमिका निभा रहा है, उन्होंने कहा कि यह हमारी समाजिक जिम्मेवारी भी है जो परिवार आज असहाय महसूस कर रहे हैं उनकी सहयाता कर हम पुण्य का उपार्जन करें, इस मौके पर महिला शाखा भगवान महावीर सेवा सोसायटी के कार्यकारणी सदस्य नीलम जैन, आदर्श जैन, भानू जैन, भावना जैन, रजनी जैन, पूनम जैन, कवीता जैन, रमा जैन, विनोद देवी सुराणा, मंजू सिंघी, शालिनी जैन, नीरा जैन, मोनिका जैन, रूची जैन, भगवान महावीर सेवा संस्थान प्रधान राकेश जैन, उप-प्रधान राजेश जैन, सुनील गुप्ता, राकेश अग्रवाल, इत्यादि गणमान्य उपस्थित थे। भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा मुंबई प्रभारी शैलेश संघवी द्वारा जैन समाज की समस्याओं का महाराष्ट्र अल्पसंख्यंक आयोग को निवेदन पत्र मुंबई के एक कार्यक्रम में अल्पसंख्यक आयोग महाराष्ट्र के अध्यक्ष हाजी अराफ़ात शेख, भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा महाराष्ट्र के प्रदेश जैन प्रमुख प्रशांतजी मानेकर (जैन) तथा मुंबई प्रभारी शैलेश संघवी ने, भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा जैन समाज के सदस्यों के साथ मिलकर, जैन समाज की समस्याओं के विवरण हेतु पत्र दिया गया। निवेदन में अल्पसंख्यंक समाज कल्याण के लिए प्रधानमंत्री १५ सूत्री कार्यक्रम के लाभ लेने में जैन समाज को हो रही कठिनाईयों को दूर करने का अनुरोध किया गया, जैसे, मौलाना आज़ाद आर्थिक विकास महामंडल के जरिये दिए जाने वाले औद्योगिक कर्ज योजना जल्द से जल्द शुरू की जाए, धार्मिक ट्रस्ट और धार्मिक संस्थाओ तथा जैनों को महाराष्ट्र शासन द्वारा अल्पसंख्यक प्रमाणपत्र दिया जाए, मेट्रिकपूर्व तथा मैट्रिकोत्तर शिष्यवृत्ति योजना में अधिकतम मर्यादा बढ़ायी जाये, प्रदेश के अल्पसंख्यक आयोग एवं विभिन्न शासन की विभिन्न समितियों में जैन समाज को प्रतिनिधित्व दिया जाये, जैन समाज के धार्मिक क्षेत्रों में मूलभूत सुविधायें दी जाये, जैन साधु, गुरु, मुनिओं के लिए पुलिस संरक्षण दिया जाये, समाज भवन- छात्रावास- दवाखाना – पाठशालाओं में अल्पसंख्यंक निधि उपलब्ध की जाये, इत्यादि मांगे निवेदन पत्र की गयी। महाराष्ट्र अल्पसंख्यंक आयोग प्रमुख ने इस निवेदन पर गौर करने का आश्वासन दिया है।

चेन्नई के इतिहास में, ऐतिहासिक दीक्षा महोत्सव 0

चेन्नई के इतिहास में, ऐतिहासिक दीक्षा महोत्सव

तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यश्री महाश्रमणजी ने प्रदान की २३ दीक्षाएं ग्यारह नवम्बर २०१८ रविवार को चेन्नई में जहां नव रश्मियों को बिखेर कर प्रकृति को उल्लासित किया, तो वहीं दूसरी और महावीर परम्परा के संयम पुरोधा आचार्य महाश्रमणणी ने २३ समणियों व मुमुक्षु भाई-बहनों को संयम-रत्न प्रदान कर उनके जीवन में नव सूर्य का उदय किया।माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में वृहद् दीक्षा महोत्सव में हजारों की संख्या में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए आचार्य महाश्रमण ने कहा कि आर्हत् वाड़मय् में शास्त्रकार ने कहा है कि प्रार्थी में पहले ज्ञान होना चाहिए फिर आचर और दया, ज्ञान नहीं होता तो आदमी अज्ञानी रहता है, अज्ञानी क्या कर पायेगा, वो कैसे जान पायेगा कि मेरे लिए, श्रेष्ठ क्या हैं, भले अध्यात्म का क्षेत्र हो और भले व्यवहार का या संसार का क्षेत्र हो, हमारे जीवन में ज्ञान का महत्व होता है, ज्ञान सही होता हैं, तो आचरणी सही होने में सहूलियत हो जाती हैं, अध्यात्म की साधना के क्षेत्र में नव तत्वों का ज्ञान होना चाहिए। नव दीक्षार्थीयों को विशेष बोध पाठ प्रदान करते हुए, आचार्यश्री ने नव तत्वों का विवेचन करते हुए कहा कि साधु-साध्वीयों व श्रमणियों का परम् लक्ष्य होता है मोक्ष को पाना, इसके लिए उनके जीवन में अध्यात्म साधना का अभिक्रम रहना चाहिए। दीक्षा संस्कार समारोह ज्ञातीजनों से लिखित और मौखिक आज्ञा इससे पूर्व पारमार्थिक शिक्षासंस्था के नवमनोनीत अध्यक्ष बजरंग जैन ने आज्ञा-पत्र का वाचन किया। मुमुक्षुओं के अभिभावकों ने लिखित आज्ञा पत्र गुरूदेव के श्रीचरणों में सुपुर्द किये, सन्मुख दीक्षार्थीयों की परीक्षा लेते हुए भरी सभा में आचार्य प्रवर ने उनकी भी स्वीकृति ली। वृहद् दीक्षा महोत्सव की शुरुआत आचार्य प्रवर के द्वारा नमस्कार महामंत्र के मंगल के साथ हुई, भगवान महावीर की वन्दना, तेरापंथ के पूर्वाचार्यों का मंगल स्मरण, साध्वी प्रमुखाणी कनकप्रभाजी का अभिवादन व मंत्री मुनिणी सुमेरमलजी को वन्दन कर परम पूज्य आचार्य महाश्रमणजी चेन्नई के इतिहास में, ऐतिहासिक दीक्षा महोत्सव तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यश्री महाश्रमणजी ने प्रदान की २३ दीक्षाएंने दीक्षा प्रदान करवाई, सभी नवदीक्षितों ने तीन बार परिक्रमा कर आचार्य प्रवर को वन्दना निवेदित की श्रमणियों (३ नवदीक्षित) ११ साध्वीयों, ३ मुमुक्षु भाईयों को मुनि दीक्षा व ९ मुमुक्षु बहनों को दीक्षा प्रदाता ने नवदीक्षितों का नामकरण संस्कार करते हुए, सभी के नये नामों की घोषणा की। दीक्षार्थियों का हुआ नाम: तेईस दीक्षा में मुनि दीक्षा तीन, नये नामों की घोषणा १) मुमुक्षु शुभम आच्छा को मुनि शुभमकुमार २) मुमुक्षु अशोक बोहरा को मुनि अनिकेतकुमार ३) मुमुक्षु कुलदीप बोहरा को मुनि कौशलकुमार। समणियों से साध्वी दीक्षा कुल ग्यारह, नये नामों की घोषणा १) समणी चारित्र प्रज्ञा ( साध्वी चरितार्थ प्रभा ) २) समणी आगम प्रज्ञा (साध्वी आगम प्रभा ) ३) समणीr विकास प्रज्ञा (साध्वी वैभवप्रभा) ४) समणी सुलभ प्रज्ञा (साध्वी शौर्यप्रभा) ५) समणी परिमल प्रज्ञा (साध्वी प्रांजलप्रभा) ६) समणी रश्मि प्रज्ञा (साध्वी ऋजुप्रभा) ७) समणी गौतम प्रज्ञाजी (साध्वी गौतमप्रभा) ८) समणीr मर्यादाप्रज्ञा ( साध्वी मध्यस्थप्रभा ) नाम प्रदान किया। नव दीक्षित समणी दीक्षा के तत्काल बाद आरोहणीrकरनेवाली ९) मुमुक्षु पुष्पलता बोहरा को साध्वी धैर्यप्रभा १०) मुमुक्षु रेखा को साध्वी रत्नप्रभा ११) मुमुक्षु कोमल बोहरा को साध्वी तेजस्वी प्रभा नाम प्रदान किया। मुमुक्षु से समणी दीक्षा कुल नौ, नये नामों की घोषणा 1) मुमुक्षु प्रियंका जैन को समणी प्रगतिप्रज्ञा 2) मुमुक्षु धरती धोका को समणी धृतिप्रज्ञा. मुमुक्षु नम्रता पीपाडा को समणी नंदीप्रज्ञा 3) मुमुक्षु प्रेक्षा सेठिया को समणी प्रशस्तप्रज्ञा 4) मुमुक्षु स्वेता सेठिया को समणीr स्वेतप्रज्ञा 5) मुमुक्षु यशा दुधेड़िया को समणी यशस्वीप्रज्ञा 6) मुमुक्षु दिव्या वडेरा को समणी दिव्यप्रज्ञा 7) मुमुक्षु आरती को समणी आदित्यप्रज्ञा 8) मुमुक्षु प्रज्ञा भंसाली को समणी पूर्णीप्रज्ञा नाम प्रदान किया गया। केश लुंचन संस्कार आचार्यणी ने कहा कि केश लुंचन परम्परा है, कष्ट का काम है, साधना का क्रम है। आचार्य प्रवरणीr व साध्वी प्रमुखाणीr कनकप्रभाजी ने नवदीक्षितों का जैसे ही केश लुंचन संस्कार किया, उस अद्वितीय, अविस्मरणीय दृश्य को देख पुरा महाश्रमण समवसरण ऊँ अर्हम, इत्यादि जयघोषों से गुंजायमान हो गया। आचार्य प्रवर ने आर्शीवचन की मंगल भावना के साथ सभी नवदीक्षित मुनियों को रजोहरण व प्रमार्जनी प्रदान करते हुए कहा कि दिन में साधु को चलना हो तो भूमि देख कर चले, पर रात में कुछ दिखे न दिखे रजोहरण से प्रमार्जन कर, देखकर चलने का प्रयास करें, रजोहरण और प्रमार्जनी साधु-साध्वीयों द्वारा तैयार की जाती है। शिक्षा रूपी ओज आहार नवदीक्षितों को ओज आहार रूपी शिक्षा प्रदान करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि अब तुम सब साधु-साध्वी समणी बन गये हो, सभी को ज्ञान, दर्शन और चारित्र से शांन्ति व मुक्ति से वर्धमान बनना है, खुब साधना कर स्व – पर का कल्याण करना है, जीवन की हर क्रिया में संयम पूर्वक रहना, अच्छा विकास करना, धर्मसंघ की सेवा कर धर्मसंघ को लाभ पहुंचाने का प्रयास करना। ग्रास-दान संस्कार प्रथम ग्रास-दान प्रदाता परमाराध्य आचार्य प्रवर ने नवदीक्षितों को ग्रास के रूप में अलग-अलग श्लोक बनाकर श्लोक-ग्रास प्रदान किया। आगामी दीक्षा महोत्सव की घोषणा परमाराध्य आचार्य प्रवर ने आगामी ०३-०७-२०१९ को भिक्षु धाम, बैंगलूरू में दीक्षा महोत्सव की घोषणा की, हजारों-हजारों नयनों ने शालीनता पूर्वक वृदह दीक्षा महोत्सव को निहारा, जहां जैन समाज के व्यक्ति तो उपस्थित थे ही, वहीं अजैन और कई विशिष्ट महानुभाव भी अपनी आँखों से इस दृश्य को निहारा, मेघालय के पूर्व राज्यपाल वी शंगमुखनाथन, दिगंबर भट्टारक लक्ष्मीसेन भी इस अवसर पर विशेष रूप से उपस्थित होकर पूरे वृहद् दीक्षा महोत्सव को देखा। चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के संयोजन में, तेरापंथ युवक परिषद्, महिला मण्डल व चेन्नई की अन्य संघीय संस्थाओं ने सभी व्यवस्थाओं को सुन्दर ढंग से समायोजित किया। कार्यक्रम का सफलतम संचालन करते हुए मुनिणी दिनेश कुमार ने कहा कि आ. महाश्रमणजी ने जिनशासन को शिखरों पर चढाया है, पीपाडा उत्तमकुमार जैन ने ‘जिनागम’ को उपरोक्त जानकारी दी।

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गच्छाधिपति ज्योतिषसम्राट ऋषभचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का संक्षिप्त परिचय जन्म : ज्येष्ठ सुदी ७, संवत् २०१४, दिनांक ४ जून १९५७मूल निवास : सियाणा (राजस्थान)गृहस्थ नाम : मोहनकुमारगौत्र : थुरगोता काश्यप प्राग्वाट (पोरवाल)      पिता : शा. श्रीमान् मगराजजीमाता : श्रीमती रत्नावती (संयम में – तपस्वीरत्ना पूज्य सुसाध्वी श्री पीयूषलताश्रीजी म.सा.)भाई : नथमल (संयम में – प.पू. आचार्यदेव श्री रवीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.)बहन : जीवी बहन।दीक्षा : द्वितीय ज्येष्ठ सुदी १०, दिनांक २३ जून १९८० श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म.प्र.) दीक्षा गुरु प.पू. श्री मोहनखेड़ा तीर्थोद्धारक कविरत्न आचार्यप्रवर श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा.‘पथिक’शिष्य सम्पदा: मुनिराज श्री पीयूषचन्द्रविजयजी म.सा.,                         मुनिराज श्री रजतचन्द्रविजयजी म.सा.                         मुनिराज श्री जिनचन्द्रविजयजी म.सा.,                         मुनिराज श्री जीतचन्द्रविजयजी म.सा.                         मुनिराज श्री जनकचन्द्र विजय जी म.सा.अध्ययन व्याकरण, न्याय, आगम प्रवचन, वास्तु, ज्योतिष, मंत्र शास्त्र, उपासना, आयुर्वेद, शिल्प, ध्यान, योगसाधना, अध्यात्म चिंतन आदि। लेखन कार्य : ४० से अधिक पुस्तकें :- अध्यात्म का समाधान (तत्वज्ञान), धर्मपुत्र (दादा गुरुदेव का जीवन दर्शन), पुण्य-पुरुष, सफलता के सूत्र (प्रवचन), सुनयना, बोलती शिलाएं, कहानी किस्मत की, देवताओं के देश में, चुभन (उपन्यास), सोचकर जीओ, अध्यात्म नीति वचन (निबंध) आदि मुख्य रचनाऐं हैं। प्रभावी श्री राजेन्द्र सूरि गुरुपद महापूजन भी आपकी रचना है। अध्यात्मिक, मौलिक चिन्तन एवं जिनभक्ति, मंदिर विधि क्रम की पुस्तकें आदि। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष श्री गुरुसप्तमी पंचांग भी प्रकाशित होता है। प्रिय क्षेत्र: मानव सेवा, जीवदया, शिक्षा का प्रचार- प्रसार, ज्योतिष व मंत्र विज्ञान। उपलब्धियाँ : श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में नेत्र, विकलांगता, नशा मुक्ति, कटे हुए (कुरूप) होठों, कुष्ठ, मंदबुद्धि निवारण आदि चिकित्सा शिविरों का आयोजन आपके निर्देशन एवं निश्रा में पूर्ण किये गये। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ विकास के लिये पूज्य गुरुवर आचार्य प्रवर श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के जो सपने, मुख्यत: हॉस्पिटल, गौशाला, गुरुकुल आदि के थे, वे गुरुकृपा से पूर्ण कर सच्चे गुरु के सच्चे शिष्य बनने का गौरव हासिल किया, साथ ही गुरु की दिव्यकृपा तथ आशीर्वाद से श्री मोहनखेड़ा तीर्थ को विकास पथ पर आगे बढ़ाया जिसमें मुख्य – राजगढ़-मोहनखेड़ा नाके पर श्री शत्रुंजय तीर्थ अनुरूप जय तलेटी निर्माण की प्रेरणा। श्री महावीर पवित्र सरोवर (तालाब) जिसकी लागत ५ करोड़ से ज्यादा है, आपकी प्रेरणा/प्रयास से निर्मित हुआ। दादागुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. के शताब्दी महोत्सव के मद्देनजर मुख्य मंदिर को स्वर्णमय बनाने की परिकल्पना तथा प्रेरणा, शताब्दी महोत्सव के लिए विशाल इतिहास की पुन: रचना करने वाला, अलौकिक अनुपम सौन्दर्य से युक्त, भव्य कलाकृति से मंडित जैन संस्कृति पार्क की रचना में आपका योगदान है। आप तीर्थ विकास एवं तीर्थ रक्षा के सूत्रधार के रूप में अपना सहयोग प्रदान कर रहे हैं। धर्म प्रभावना : श्री शत्रुंजय तीर्थ (पालीताना) को होलीसिटी (पवित्र शहर) घोषित कराया १९९० में। सम्मेत शिखरजी तीर्थ रक्षा के लिए १५ आचार्यों के सम्मेलन का विशाल आयोजन कर अभूतपूर्व योगदान दिया पालीताणा १९९४। गुरु राजेन्द्र विद्याधाम तीर्थ, सरोड़ (पालीताणा) में ३००० पशुओं का एवं मोहनखेड़ा में विशाल कैंप, श्री जय तलेटी पर कार सेवा कर तीर्थशुद्धि अभियान किया गया पालीताणा १९९४ – १९९५। भारत में जैन समाज को अल्पसंख्यक दर्जा दिलाने में विशेष योगदान प्रदान किया। पावा, नवसारी, सरोड़ (पालीताणा), इन्दौर, राउ, खारवांकला, राजगढ़- शान्तिनाथ मंदिर में गुरु मंदिर, ७२ जिनालय भीनमाल, पालिताणा, जावरा, रतलाम, बड़ावदा, नीमच, बागरा, झाब, सुमेरपुर प्रतिष्ठा आदि के भव्य आयोजन आपकी प्रेरणा- मार्गदर्शन तथा निश्रा में सम्पन्न हुए। इन्दौर, पूणे, झाबुआ, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जावरा, खाचरौद आदि शहरों में भव्य महामांगलिक का आयोजन, जिसमें १०-१० हजार श्रद्धालुओं ने लाभ लिया और भी अनेक विशेषता गौशाला, पाठशाला, गुरुकुल, जिनमंदिर, गुरुमंदिर आदि के कार्य आपकी प्रेरणा व निश्रा में निरन्तर चल रहे हैं। तीर्थ/संस्थाऐं : श्री गुरु राजेन्द्र विद्याधाम तीर्थ, सरोड़ (पालीताणी) विश्व का अद्वितीय श्री लक्ष्मीवल्लभ पाश्र्वनाथ ७२ जिनालय भीनमाल (राज.)गुरु राजेन्द्र मानव सेवा मन्दिर चिकित्सालय, राजगढ़, धार (म.प्र.) श्री मोहनखेड़ा गुरु धाम ह्रींकारगिरी तीर्थ, इन्दौर (म.प्र.) श्री राजेन्द्र विद्या शोध संस्थान, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ (म.प्र.) श्री राजेन्द्रसूरि गुरु धाम तीर्थ, कात्रज पूणे (महाराष्ट्र) श्री राजेन्द्रसूरि दादावाड़ी, रानीबेन्नूर (कर्नाटक) श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ ऋषभधाम तीर्थ, इन्दौर (म.प्र.) श्री राजेन्द्रसूरि बैंक, राजगढ़, धार (म.प्र.) श्री गुरुराज विद्या बैंक, राजगढ़, धार (म.प्र.) ऋषभ चिन्तन (हिन्दी मासिक) पत्रिका। गुरु राजेन्द्र इन्टरनेशनल स्कूल, मोहनखेड़ा (म.प्र.)। युवाओं के अनेक संगठन जैसे भारतीय जैन श्वे. युवामंच भी आपकी ह प्रेरणा, मार्गदर्शन में कार्यरत है जो सामाजिक, धार्मिक कार्यों में अग्रणी रहकर सदैव तन-मन-धन से सेवा भक्ति में तत्पर रहते हैं।

नमन उन महामानव 0

नमन उन महामानव

गच्छ नायक बनकर त्रिस्तुतिक सिद्धांत को पुन: स्थापित करने वाले महान युग पुरुष २०वीं शताब्दी के महान ज्योतिधर ‘श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा.’ जैसा क्रियोद्धारक प्रकांड मनीषी युग पुरुष इस धरती पर यदा-कदा ही अवतरित होते हैं। ऐसे युग पुरुष गुरुदेव की जन्मतिथि और देहलोक लीला सम्वसरण दोनों ही एक ही दिन पौष शुक्ला सप्तमी की हैं, इसे एक देवी संयोग ही कहा जायेगा जो अपने आप में विशिष्ट हैं। संक्षिप्त जीवन सौरभ : जन्म : वि.सं. १८८३ पोष शुक्ल सप्तमी, जन्म स्थान : भरतपुर, सांसारिक नाम : रत्नराज, पिता : ऋषभदासजी, माता : केशरदेवी, गौत्र : पारेख, दीक्षा : वि.सं. १९०४ उदयपुर, गुरु : आचार्यश्री प्रमोदसूरिजी, आचार्यपद : वि.सं. १९२३ आहोर (राज.), क्रियोद्यार : वि.सं. १९२५ जावरा (मध्यप्रदेश), स्वर्गवास : वि.सं. १९६३ पोष शुक्ला सप्तमी राजगढ (मध्यप्रदेश) समाधि स्थल : श्री मोहनखेडा तीर्थ राजगढ (म.प्र.), आयु वर्ष : ८० वर्ष संयम पर्याय : ६० वर्ष ‘गुरु सप्तमी पर विशेष’ प्रतिवर्ष मोहनखेड़ा में गुरु सप्तमी समारोह पूर्वक मनाई जाती है लेकिन विचारणीय बात यह है कि पूज्यपाद की स्मृति में वहाँ मेला क्यों लगता है और समारोह पूर्वक क्यों सप्तमी मनाई जाती है? पूज्यपाद में ऐसी क्या विशेषता थी कि भक्तों ने सर्वत्र गुरु मन्दिर बनवाए और नित्य दर्शन पूजा आदि करते हैं। देश भर के श्रद्धालु इस पावन दिन को बड़ी धूमधाम के साथ गुरु सप्तमी के रुप में मनाते हैं। सर्द ऋतु में भी हजारों भक्त भक्तिभाव से प्रेरित होकर मोहनखेड़ा तीर्थ पहुँचते है। गुण रत्नों की खान थे गुरुदेव राजेन्द्रसूरिजी: गुण रत्नों की खान श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. का जीवन प्रेरणा स्त्रोत हैं, वे संकल्प निष्ठा के कारण अपनों की विरोधाग्नि में जले-तपे लेकिन उन्होंने अपनी आचार सभ्यता नहीं छोड़ी और अपने विरोधियों एवं समस्त प्राणी मात्र में आत्मीय प्रेम की स्थापना कर सबको जोड़ने के लक्ष्य पर कायम रहे। गुरुदेव कोई जादुई चमत्कार नहीं करते थे, उनकी वाणी में चमत्कार था, उनके आचरण में चमत्कार था। गुरुदेव ने अपने जीवन में त्याग एवं तपश्चर्या के महत्व को समझकर उसे अंगीकार किया और अपने जीवन को त्याग एवं तपश्चर्या का साकार रुप देकर जैन दर्शन में वर्णित सच्चे साधु को धारण किया, अपने व्यक्तित्व तो इतना ऊँचा उठाया कि अन्य लोगों के लिए वे आदर्श बन गए। नव कलमनामा : कथनी और करनी की एकरुपता गुरुदेव के व्यक्तित्व का हिस्सा थी, उनके जीवनकाल में उच्च आदर्श जीवन देखकर शिथिलाचारी उनसे घबराने लगे, उन्होंने नव कलमनामा (नौ सूत्रीय) घोषित कर अमल करवाई, नव कलमनामा की मूल प्रतिलिपि आहोर-जावरा-रतलाम के ज्ञान भंडार में आज भी पूरी तरह से सुरक्षित है। गुरुदेव ने उनकी समस्त शंकाओं का निवारण कर उन्हें आत्मकल्याण की सही दिशा दिखलाई, गुरुदेव का जीवन एक खुला ग्रंथ था, वहाँ कोई तथ्य प्रच्छन्न नहीं था, जब वे स्वयं पालखी से नीचे आ गये तब उन्होंने यतियों को पालखी से उतरकर जीने की बात कही, उनकी क्रांति-धार्मिकता कोई बकवास नहीं थी, वह ठोस चारित्रिक थी, उनका कहना था कि बिना सम्यक चारित्र के व्यक्ति का कल्याण हो ही नहीं सकता, केवल चाहने से वीतराग नहीं हो जाता, यह वीतरागत्व तो व्यक्ति को जीवन की कठिन साधनाओं से ही उपलब्ध हो पाता है। जैन दर्शन का अध्ययन कर अपने सांगोपांग पर विस्मृत त्रिस्तुतिक संघ का पुन: गठन किया, उस समय के कई आचार्यों से इस विषय में चर्चा वार्ताएं हुई, उसमें उनकी जय विजय हुई, अपने जीवन काल में ही आपने त्रिस्तुतिक संघ में एक लाख नए श्रावक बनाए, यह वृहत कार्य उनके त्याग एवं तपमय जीवन में उग्रविहार करके सच्चे साधु-जीवन का एक ज्वलंत उदाहरण है जो अभिनंदनीय एवं अनुकरणीय है। ‘गुरु वही जो जीवन में आलोक भरे’ : किसी ने सही कहा है कि दुनिया को राह दिखाने वाले महान सिद्ध संत कभी मरते नहीं, वे केवल अपना काम पूरा कर लेने के बाद सांसारिक काया का निग्रह करते हैं, भगवान की तरह ही अपने दिव्य कर्मों से वे भी अमर हो जाते हैं, उनके संदेश संसार में भटकने वालों का मार्गदर्शन करते हैं। साहित्य रचना में ‘अभिधान राजेन्द्र’ जैसे गंभीर ग्रंथ : साहित्य रचना में भी आपने आदर्श स्थापित किया, अल्पायु में ही गंभीर साहित्य सृजन का काम आरंभ कर दिया था, ऐसे विलक्षण संयोग देव प्रतिमाओं में ही देखने को मिलते है, इसमें दो राय नहीं कि जैन धर्म दर्शन विशाल धर्म दर्शन हैं, इनमें प्रयुक्त होने वाले पदों व शब्दों की व्याख्या आसान नहीं, ऐसे में अल्पायु बालक में इन शब्दों व पदों के पारिभाषिक शब्द कोष के निर्माण के लिए रुचि पैदा होना अपने आप में एक दैव्य चमत्कार था, उनमें बचपन से ही एक दैव्य संकल्प शक्ति थी जो हर एक में दिखाई नहीं देती, वृद्धावस्था भी उन्हें पराजित नहीं कर सकी। ६० वर्ष की आयु में उन्होंने ‘अभिधान राजेन्द्र’ जैसे गंभीर ग्रंथ के लेखन का कार्य किया। गुरुदेव वर्षावास के अतिरिक्त किसी भी स्थान पर अधिक दिन रुकते नहीं थे, इसके साथ ही अपेक्षित ग्रंथ की उपलब्धि भी कम ही थी, क्योंकि ग्रंथ या तो बड़े-बड़े ग्रंथालयों में उपलब्ध थे या किसी व्यक्तिगत की पूंजी थी, फिर भी जितने ग्रंथ उन्हें उपलब्ध हो सके, उनके तथा अपनी श्रुति (सुनी हुई तत्व चर्चा) और स्मृति (याद) के आधार पर सात विशाल भागों में (दस हजार पृष्ठों में) ‘अभिधान राजेन्द्र’ जैसे अप्रतिम ग्रंथ की रचना की। राजेन्द्र कोष आज संसार के कई विश्वविद्यालयों में उपलब्ध है, इस कोष की माँग आज भी पाश्चात्य देशों में बहुत हो रही है, इसलिए वे विश्व पूज्य कहलाये। शस्त्र को शास्त्र में बदला गुरुदेव ने : संसार चक्र में होने वाली घटनाएं मनुष्य के जीवन पर विशेष प्रभाव डालती है लेकिन विरले महापुरुष ही अपने जीवन प्रसंग में उन घटनाओं को बदलने में सक्षम होते हैं, जब हम किसी महापुरुष का मूल्यांकन करते हैं तो हमारे सन्मुख उनके जीवन की ओर उसकी समकालीन घटनाएं होती है। जालोर दुर्ग में प्रभु मन्दिरों के अन्दर अस्त्र-शस्त्र पड़े देखकर और मन्दिरों एवं प्रभु की घोर आशातना देखकर उन्होंने उन मन्दिरों के जीर्णोद्धार का संकल्प कर अट्ठाई के पारणे, अट्ठाई का तप करना शुरु किया। प्रचण्ड वीर्योल्लास, ध्यान, साधना एवं तप-त्याग के द्वारा ऐसा आत्मबल पैदा किया जिसके आगे जोधपुर नरेश को झुकना पड़ना। उन्हें प्रेरित कर जालोर दुर्ग के मन्दिरों से शास्त्रों को हटवा कर, शास्त्रों को रखवाकर पाँचों मन्दिरों का जीर्णोद्धार व प्रतिष्ठा सानंद करवाने के बाद ही गुरुदेव ने चैन की सांस ली। पाट गादी आहोर एवं भव्य ५२ जिनालय प्रतिष्ठा महामहोत्सव : खोखली भौतिकसुख सुविधाओं में लिप्त होने से श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरिजी ने इत्र की शीशी पू. श्री रत्नविजयजी म.सा. (राजेन्द्रसूरिजी) की और आगे बढाते हुए कहा, कैसे है? उन्होंने कहा ‘इत्र या मूत्र’ में कोई अन्तर नहीं, साधुओं को इनसे दूर रहना चाहिए। सिंह गर्जित चेतावनी का कोई अनुकूल असर न होने पर श्री रत्नविजयजी म.सा. बोले यति मण्डल को जिस शिथिलता रुपी रोग से ग्रस्त किया है उसका ईलाज में स्वयं करुँगा। आप तैयार रहियेगा, इतना कहकर वे वहाँ से तत्काल लौट पड़े, श्री रत्नविजयजी ने अपने गुरुदेव श्री प्रमोदसूरिश्वरजी म.सा. के पास पहुँचकर उपरोक्त वृतांत सुनाया। श्री प्रमोदसूरिश्वरजी म.सा. स्वयं यति मंडल में व्याप्त शिथिलाचार से पूर्ण रुप से परिचित थे, अत: उन्होंने श्री रत्नविजयजी म.सा. तो अपने कार्य में पूरी तरह दक्ष एवं सुयोग्य शिष्य को परखकर श्री पूज्यपद प्रदान करने का आदेश दिया। तदनानसार मारवाड़ के आहोर नगर में वि.सं. १९२३ में चतुर्विध संघ की विशाल जनमेदिनी की उपस्थिति में सूरिमंत्र सहित श्री रत्नविजयजी को आचार्य पद प्रदान किया और श्रीमद् राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. नाम घोषित किया, इस आचार्य पद प्रदान महामहोत्सव से मरुधरा की पुण्यभूमि ‘आहोर नगर’ को श्री पाट-गादी नगर के अलंकरण की ख्याति प्राप्त हुई। गुरुदेव ने तीन हजार जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका करवाई जिसमें आहोर श्री गोडी पाश्र्वनाथ ५२ जिनालय मन्दिरजी की प्रतिष्ठा के समय ९९९ जिन बिम्बों की अंजनशलाका महत्वपूर्ण है। गुरुदेव आहोर के श्री गोडी पाश्र्वनाथ बावन जिनालय की प्रतिष्ठा करवा रहे थे, उसी समय यतियों के सम्मेलन में तय हुआ कि इस प्रतिष्ठा को नहीं होने दिया जाएगा, परन्तु उनके त्याग सौहार्द एवं सहनशीलता के आगे यतियों को झुकना पड़ा। ‘आहोर’ की प्रतिष्ठा यथा समय बड़े समारोह के साथ निर्विघ्नता पूर्वक सम्पन्न हुई। निंदक तूं मत मरजे रे : दादा गुरुदेव ने एक अध्यात्म पद में निंदक के विषय में कहा है – निंदक तू मत मरजे रे, म्हारी निंदा करेगा कौन? निंदक राखजो आंगण काटे चणाय बिन साबु पाणि मेरो कर्म मेल कट जाए श्रीमद ने कहा कि निंदक को अपने पास ही रहने दें क्योंकि वह बिना साबुन एवं पानी, हमारे कर्म मैल को धो देता हैं, अर्थात हमारे स्वभाव को शुद्ध निर्मल बनाने में सहायक होता है।

राष्ट्रसंत चंद्रप्रभ जी: प्रार्थना और परोपकार से चमत्कार 0

राष्ट्रसंत चंद्रप्रभ जी: प्रार्थना और परोपकार से चमत्कार

प्रतिदिन करें प्रार्थना, परोपकार व प्रणाम आएंगे चमत्कारिक परिणाम – राष्ट्रसंत चन्द्रप्रभ मुंबई: मीरा रोड पूर्व कनकिया स्थित रश्मि विला में पूज्य आचार्य श्री पद्मसागर सूरि जी म., आचार्य श्री हेमचन्द्र सागर सूरिजी, आचार्य श्री विवेकसागर सूरिजी और राष्ट्रसंत श्रीललितप्रभ जी व राष्ट्रसंत श्री चंद्रप्रभ जी के साथ अनेक मुनि भगवंत और साध्वी भगंवतों का धर्म समागम समारोह आयोजित किया गया|आदिनाथ जैन मंदिर, भायंदर से धर्म जुलूस निकला जो मीरा रोड पहुंचकर धर्मसभा में बदल गया। इस दौरान गणिवर्य श्री प्रषांतसागरजी, पूज्य श्री नीति सागरजी, साध्वी श्री नलीनीयषाजी, श्रमण संघीय साध्वी श्री सोरभसुधाजी भी उपस्थित थे।धर्मसभा को संबोधित करते हुए पदमसागर सूरिजी ने कहा कि संत के दो धर्म है ज्ञान और ध्यान और गृहस्थ के दो धर्म है दान और पूजा, उन्होंने कहा कि इंसान केवल मेहनत और बुद्धि से आगे नहीं बढ़ता, मेहनत करने वाला मजदूर चार सौ रुपये कमाता है तो बुद्धि रखने वाला इंजिनियर चार हजार रुपये, पर कोई अगर प्रतिदिन लाखों रुपये कमा रहा है तो इसका मतलब उसकी पुण्याई प्रबल है। पुण्याई दान देने से बढ़ती है। प्रकृति में हर चीज लौटकर आती है, जो मानवता के नाम दस रुपये लगाता है भगवान उसे हजार गुना करके लौटाता है, उन्होंने कहा कि हर व्यक्ति जीवन में दान देने की आदत डाले, चाहे थोड़ा ही दो, पर रोज दो, जो करना है अपने हाथों से करके जाना, कल का कोई भरोसा नहीं है, हमारे पीछे हमारे नाम पर दान-पुण्य होगा इस बात पर भी भरोसा मत करना, उन्होंने कहा कि लक्ष्मी और सरस्वती की कृपा सदा वहाँ बरसती है जहाँ इनका सदूपयोग होता है, इस दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं कुछ खाकर खुश होते हैं तो कुछ खिलाकर, जो खाकर खुश होते हैं वे सदा औरों पर आश्रित रहते हैं, पर जो खिलाकर खुश होते हैं उनके भंडार प्रभु-कृपा से सदा भरे हुए रहते हैं। राष्ट्रसंत श्री चंद्रप्रभ जी ने कहा कि प्रतिदिन प्रणाम, प्रार्थना और परोपकार करें इससे जीवन में चमत्कारिक परिणाम आएगा, सुबह उठकर बड़ों को प्रणाम कर दुआएं लें। एक-दूसरे को प्रणाम करने से परिवार का वातावरण आनंदमय हो जाता है, जब से प्रणाम करने की आदत कम हुई है तब से परिवारों के टूटने और तलाक बढने की बाढ़-सी आ गई है, जिस घर में सुबह की शुरुआत प्रणाम से होती है वहाँ कभी कलह का वातावरण निर्मित नहीं हो सकता, संतप्रवर ने कहा कि धर्मस्थान में हम आधा घंटा-एक रहते हैं और घर में तेइस घंटे, इसलिए धर्म की शुरुआत मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे से नहीं घर से की जानी चाहिए, जो माता-पिता का न हो पाया वह भला परमात्मा का क्या हो पाएगा। संतप्रवर ने कहा कि जिस मंदिर को हमने बनाया हम उसकी तो पूजा करते हैं, पर जो माँ-बाप हमें बनाते हैं हम उसकी पूजा क्यों नहीं करते, अगर व्यक्ति केवल घर के सात-आठ लोगों के बीच रहने और जीने की कला सीख जाए तो उसका जीवन स्वर्ग बन जाए। सामूहिक प्रार्थना करने का मंत्र देते हुए संतप्रवर ने कहा कि अगर घर के सभी लोग सुबह उठकर सामूहिक प्रार्थना करेंगे तो पूरे घर का आभामण्डल ठीक रहेगा, अगर हमारे जीवन या घर पर ग्रह-गोचरों का नकारात्मक प्रभाव है तो वह भी प्रार्थना करने से दूर हो जाएगा। संतप्रवर ने उद्योगपतियों से कहा कि वे फेक्ट्री में भी सुबह-सुबह प्रार्थना करवाएं, एक माह बाद चमत्कार होगा, उत्पादन दुगुना हो जाएगा और फेक्ट्री का वातावरण मधुर बन जाएगा।कार्यक्रम का मंच संचालन विनीत गेमावत ने किया और आभार कार्यक्रम आयोजक पारस चपलोत ने किया, इस अवसर पर चपलोत परिवार का दिव्य सत्संग समिति एवं भायंदर जैन श्री संघ द्वारा अभिनंदन किया गया।

धार्मिक-सामाजिक-राष्ट्रीय कार्य के प्रहरी 0

धार्मिक-सामाजिक-राष्ट्रीय कार्य के प्रहरी

श्री बाबुलालजी धनराजरजी डोडिया गांधा श्री मोहनखेड़ा महातीर्थ में भगवान महावीर के मोक्ष कल्याणक तथा लब्धी प्रदाता श्री गौतमस्वामी के केवलज्ञान दिवस के अवसर पर आयोजित होने वाले पंचान्हिका महोत्सव का १० वर्ष से लाभ ले रहे परमगुरुभक्त श्री बाबुलाल धनराज जी डोडिया गांधी का परिचय ‘जिनागम’ के इस अंक में हम आपसे करवाते हैं।यशस्वी राजस्थान के ऐतिहासिक जालोर जिले के धुम्बड़िया में आपका जन्म १६ फरवरी १९५५ को हुआ था। आपके पूज्य पिता श्री धनराजजी व माताजी श्रीमती कमलाबहन दादागुरुदेव के प्रति आस्थावान धर्मनिष्ठ थे और उन्होंने यही संस्कार अपने तीनों पुत्र सर्वश्री बाबुलालजी, मीठालालजी व सुमेरलालजी व पुत्री श्री विमला बहन को भी दिये। सन् १९७२ में आपका विवाह भीनमाल निवासी श्री दाड़मचंद जी फूलचंद जी का सुशीलाबहन से हुआ, जिन्होंने आपको सुकृत के लिए सदैव प्रेरित किया, आपके दो पुत्र श्री जयंत व श्री शैलेश जी एवं तीन पुत्रियां अंजना, मनीषा व नीशा हैं, पुत्रवधु ममता व मंदाकिनी है, आपके परिवार में कुशी, कियास, झील व क्रिश की किलकारियां गूंजती हैं। श्री बाबुलाल जी धुम्बड़िया ने अपनी धार्मिक निष्ठा व सामाजिक सरोकार के चलते अनेक सुकृत कार्य किये हैं, आप विभिन्न प्रसंगों पर लाभ लेने में सदैव अग्रणी रहे। आपने सं. २०४५ में अहमदाबाद के अमराईवाड़ी जैन श्रीसंघ के नूतन मंदिर की प्रतिष्ठा के समय शाश्वत ध्वजा का लाभ तथा अमराईवाड़ी के ही एक जिनालय व श्री राजेन्द्रसूरि गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा के समय भगवान के कलश व गुरुमंदिर की ध्वजा का लाभ लिया। श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में श्री धनचन्द्रसूरिजी व श्री भूपेन्द्रसूरिजी के मंदिर की ध्वजा के लाभार्थी आप बने। अहमदाबाद के पालडी क्षेत्र में वासना रोड पर नवनिर्मित दो माला वाले मंदिर में मूलनायक श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ भगवान प्रतिष्ठा आपने की। गुरु शताब्दी तीर्थ पालीताना में आप श्री हेमेन्द्रसूरिजी की देहरी के लाभार्थी बने। गुरु शताब्दी धाम पालीताना की प्रतिष्ठा के समय साधर्मी वात्सल्य, फलेचुंदडी आदि का लाभ आपने लिया। पालीताना के ही राजेन्द्र भवन में मुनिराज श्री न्यायविजयजी म.सा. की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कर नौकारसी आयोजित की। आपने मुनिराज श्री लेखेन्द्रविजय जी म.सा. की निश्रा में निकले विभिन्न छ:रिपालित संघों में सह संघपति बनने का लाभ लिया। संवत २००३ में शंखेश्वर से पालीताना संघ, संवत २००४ में शंखेश्वर से गिरनार संघ व संवत २००५ में शंखेश्वर से जैसलमेर संघ में साथ ही २००६ में मुनिश्री के पालिताना चातुर्मास में भी सह संघवी बने। बाकरा रोड से पालीताना श्रीपाल संघ में पालीताना में नौकारसी का लाभ, आचार्य श्री अभयदेवसूरि जी की निश्रा में वैसाख एकम दूज के दिन पालीताना में महामांगलिक व लगभग १५००० लोगों को साधर्मीवात्सल्य, अहमदाबाद में भी आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी की निश्रा में वर्षीतप के १००० तपस्वियों को बियासने करने का लाभ आदि कई सुकृत कार्य इस सूची में शामिल है। आपने अहमदाबाद, राजेन्द्र भवन पालीताना, शंखेश्वर तीर्थ बदनावर, काया तीर्थ उदयपुर आदि अनेक स्थानों पर अपनी स्वअर्जित लक्ष्मी का सदुपयोग किया। श्री बाबुलालजी धनराजजी अ.भा. जैन त्रिस्तुतिक संघ गुजरात के अध्यक्ष, श्री राजेन्द्र विद्याधाम ट्रस्ट सरोड एवं राजेन्द्र शांति विहार काया (उदयपुर) के कोषाध्यक्ष एवं राजेन्द्र भवन पालीताना तथा शंखेश्वरपुरम् तीर्थ बदनावर (म.प्र.) के ट्रस्टी एवं श्री मोहनखेड़ा तीर्थ के अध्यक्षीय मंत्रणा बोर्ड के सदस्य हैं। ‘जिनागम’ परिवार समस्त तीर्थंकर देव से विनंति करता है कि श्री बाबुलालजी धनराजजी डोडिया गांधी दिर्घायु हों और सामाजिक-धार्मिक कार्यों के साथ भारत की बनें राष्ट्रभाषा अभियान में सहयोग प्रदान कर राष्ट्र की पूर्ण आजादी के सिपाही बनें। -जिनागम भारत का अतीत सशक्त है भविष्य उज्जवल है संसार चक्र में होने वाली घटनाएँ भी मनुष्य के जीवन पर विशेष प्रभाव डालती हैं लेकिन विरले महापुरुष ही अपने जीवन प्रसंग में उन घटनाओं को बदलने में सक्षम होते हैं, जब हम किसी महापुरुष का मूल्यांकन करते हैं तो हमारे सम्मुख उसके जीवन की और उसकी समकालीन घटनायें होती हैं, उसने अपने युग के साथ क्या व्यवहार किया, उसे कितना मोड़ा,कितना सहा और कितना पहचाना, इसका लेखा-जोखा ही उसके व्यक्तित्व को प्रकट करता है, इस दृष्टि से जब हम राजेन्द्रसूरिजी के व्यक्तित्व की समीक्षा करते हैंं| तब हमें लगता है कि उनका व्यक्तित्व जागतिक था, वह किसी एक समाज या राष्ट्र तक सीमित नहीं थे वे खुले मन और मस्तिष्क के श्रमण थे, उनके कृतित्व में कोई ग्रन्थि नहीं थी, उनमें संकल्प की अद्वितीय अविचलता थी और वे जिस बात को भावी पीढ़ी के कल्याण में देखते थे, उसके करने-कराने में न तो कोई विलम्ब करते थे और ना ही कोई भय रखते थे, अभय उनके चरित्र का महत्वपूर्ण अंग था। राजेन्द्रसूरिजी कहा करते थे कि यदि साधन स्वस्थ, पावन, सम्यक और संतुलित हैं और उनका योजित उपयोग हुआ है तो फिर सिद्धि की कोई चिन्ता करनी ही नहीं चाहिए, वह तो मिलेगी ही, इस जीवन-दर्शन के साथ सूरिजी ने एक हद में अनहद काम किया, बिन्दु रहकर सिन्धु जितना काम, उन्हें तो कोई कीर्ति-कामना तो थी नहीं, वे निष्काम और अप्रमत्त चित्त थे, एक सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए सम्पूर्णत: व्यक्तित्व के रुप में हम ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरि जी’ को देख सकते हैं। सूरिजी को विश्वपुरुष के रुप में प्रतिष्ठित करने वाला एक तथ्य है उनकी क्रान्तिधर्मिता, एक आत्मार्थी साधु होने के बावजूद सूरिजी किसी पारम्परिक धातु से नहीं बने थे, वे जिस धातु से बने थे, वह खरी और कालसह्य थी। कथनी और करनी की एकता, जो उनके समकालीन भारतीय चारित्र में उन दिनोंं घट रहा था, सूरिजी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण अंश था। उन्होंने जब यति क्रान्ति के लिए अपनी ’नौ सूत्रीय’ योजना घोषित की तो पहले अपने जीवन में उसे ‘‘सम्पूर्ण क्रियोद्धार’’ के रुप में लागू किया, उनका जीवन एक खुला ग्रन्थ था, वहाँ कोई तथ्य प्रच्छन्न नहीं था, जब वे स्वयं पालखी से नीचे आ गये, तब उन्होंने यतियों को पालखी से उतर कर जीने की बात कही, उनकी क्रान्तिधर्मिता कोई बकवास नहीं थी, वह तो चारित्रिक थी। सूरिजी की क्रान्ति का सबसे जीवन्त पक्ष चरित्र है, धर्म के क्षेत्र में जिस चरित्र रचना पर सूरिजी ने बल दिया, नयी समाज-रचना के सन्दर्भ में उतना ही बल उनके समकालीनों ने भी दिया, सूरिजी ने उन यतियों को, जो चारित्र, सम्यकत्व और औचित्य से स्खलित थे, स्थिरीकृत किया और आगामी क्रान्ति के लिए लोकमन और मस्तिष्क की रचना की, सूरिजी का चरित्र अचन्चल, गहन और अडिग था, वे प्रतिक्षण अप्रमत्त और सावधान संत थे, सूर्इं की नोंक तो बड़ा परिमाण है, वे कहीं भी चंचल नहीं थे। गाम्भीर्य और ‘जो कहना-वह करना’ उनके व्यक्तित्व के प्रधानअंश थे। धर्म और समाज के हर मोर्चे पर सूरिजी की सफलता का कारण उनका लौह व्यक्तित्व ही था, सूरिजी का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने भारतीय लोकजीवन में अतीत को,जो उखड़ने लगा था, पुन: प्रतिष्ठित किया और उनकी उज्ज्वलताओें को न केवल भारतीयों के समक्ष वरन् विदेशियों के समक्ष भी सप्रमाण प्रस्तुत किया, उन्होंने अपने समकालीन जीवन में यत्र-तत्र सेंध डालकर यह हुंँकार भरी कि अतीत को जो नकारा जा रहा है, वह व्यर्थ है, भ्रामक है, भारत का अतीत सशक्त है, उज्ज्वल है प्रेरक और सार्थक है, वह केवल देश के बुझते हुए दीयों में ही नहीं, वरन् विदेशों के निष्प्राण दीपों में भी जान डाल सकता है। सूरिजी ने इस पर कि कौन-कहाँ-क्या कर रहा है? बिना ध्यान दिये अपना कत्र्तव्य किया और चारित्रिक प्रामाणिकता और शुचिता को लाने के अपने मिशन में वे पूरी ताकत से जुटे रहे। ‘‘तीनथुई-क्रान्ति,’’ जो है धार्मिक, किन्तु वह भी उनकी इसी व्यापक क्रान्ति का एक महत्वपूर्ण भाग है, इसके द्वारा उन्होंने लोगों को तर्वâसंगत बनाया और उन्हें अन्धविश्वासों से मुक्त करवाया, उनका कहना था कि भारतीय संस्कृति ने जितनी विविधताओेें को पचाया और आत्मसात किया है, संसार की ऐसी कोई संस्कृति नहीं है जो इस तरह विषपायी व अमृतवर्षी हो, उन्होंने जहर पिया, अमृत बाँटा,कांँटे सहे और फूल दिये, यही उनके मृत्युंजयी होने का एक बहुत बड़ा कारण रहा। श्रमण संस्कृति के उज्ज्वल ओर जीवंत प्रतीक के रूप में सूरिजी ने विश्व संस्कृति को जो दिया है, वह अविस्मरणीय है और रहेगा। सूरिजी के समग्र जीवन ने अपने तपोनिष्ठ आचरण से शास्त्रकारों को शास्त्रगारों में बदला हो, संचार और यातायात की असुविधाओें के होते हुए भी जिसने अपनी चारित्रिक निर्मलताओें से अन्धविश्वासों, अरक्षाओं,रूढ़ियों और अन्धी परम्पराओें घटती मानवता को पैदल घूम-घूमकर निर्मल और निष्कलंक बनाया हो,उसके प्रति यदि वन्दना में हमारी अंजलियाँ नहीं उठती हैं और उनके जीवन से यदि हम प्रेरणा नहीं लेते हैं तो हम से बड़ा कोई कृतघ्न होगा और न कोई होगा अभागा।

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आचार्य विजय राजेन्द्र सूरि: जीवन और परिवार

जन्म स्थान एवं माता-पिता-परिवार श्रीराजेन्द्रसूरिरास’ एवं ‘श्री राजेन्द्रगुणमंजरी’ के अनुसार वर्तमान राजस्थान प्रदेश के भरतपुर शहर में दहीवाली गली में पारिख परिवार के ओसवंशी श्रेष्ठि रुषभदास रहते थे। आपकी धर्मपत्नी का नाम केशरबाई था जिसे अपनी कुक्षि में श्री राजेन्द्र सूरि जैसे व्यक्तित्व को धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रेष्ठि रुषभदासजी की तीन संतानें थी, दो पुत्र : बड़े पुत्र का नाम माणिकचन्द एवं छोटे पुत्र का नाम रतनचन्द था एवं एक कन्या थी जिसका नाम प्रेमा था, यही ‘रतनचन्द’ आगे चलकर आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि नाम से प्रख्यात हुए। वंश : पारेख परिवार की उत्पत्ति :- आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरि के अनुसार वि.सं. ११९० में आचार्यदेव श्री जिनदत्तसूरि महाराज के उपदेश से राठौड़ वंशीय राजा खरहत्थ ने जैन धर्म स्वीकार किया, उनके तृतीय पुत्र भेंसाशाह के पांच पुत्र थे, उनमें तीसरे पुत्र पासुजी आहेड्नगर (वर्तमान आयड-उदयपुर) के राजा चंद्रसेन के राजमान्य जौहरी थे, उन्होंने विदेशी व्यापारी के हीरे की परीक्षा कर बताया कि यह हीरा जिसके पास रहेगा उसकी स्त्री मर जायेगी, ऐसी सत्य परीक्षा करने से राजा पासुजी के साथ ‘पारखी’ शब्द का अपभ्रंश ‘पारिख’ शब्द बना। पारिख पासुजि के वंशज वहाँ से मारवाड़, गुजरात, मालवा, उत्तरप्रदेश आदि जगह व्यापार हेतु गये, उन्हीं में से दो भाईयों के परिवार में से एक परिवार भरतपुर आकर बस गया था। जन्मविषयक निमित्तसूचक स्वप्नदर्शन :- ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि आचार्य श्री के जन्म के पहले एक रात्रि उनकी माता केशरबाई ने स्वप्न में देखा की एक तरुण व्यक्ति ने प्रज्ज्वल कांति से चमकता हुआ रत्न केशरबाई को दिया – ‘गर्भाधानेड्थ साडद्क्षीत स्वप्ने रत्नं महोत्तम्म’ निकट के स्वप्नशास्त्री ने स्वप्न का फल भविष्य में पुत्ररत्न की प्राप्ति होना बताया। जन्म समय – आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरी के अनुसार वि.सं. १८८३ पौष सूदि सप्तमी गुरुवार, तदनुसार ३ दिसम्बर ईस्वी सन् १८२७ को माता केशरबाई ने देदीप्यमान पुत्ररत्न को जन्म दिया। पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार माता-पिता एवं परिवार ने मिलकर नवजात पुत्र का नाम ‘रतनचंद’ रखा। व्यवहारिक शिक्षा – आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरी एवं मुनि गुलाबविजय के अनुसार योग्य उम्र में पाठशाला में प्रविष्ट हुए मेधावी रतनचंद ने केवल १० वर्ष की अल्पायु में ही समस्त व्यवहारिक शिक्षा अर्जित की, साथ ही धार्मिक अध्ययन में विशेष रुचि होने से धार्मिक अध्ययन में प्रगति की, अल्प समय में ही प्रकरण और तात्विक ग्रंथों का अध्ययन कर लिया। तीव्र क्षयोपशम के कारण प्रखरबुद्धि बालक रत्नराज १३ वर्ष की छोटी सी उम्र में अतिशीघ्र विद्या एवं कला में प्रविण हो गए। श्री राजेन्द्रसूरि रास के अनुसार उसी समय विक्रम संवत् १८९३ में भरतपुर में अकाल पड़ने से, कार्यवश माता-पिता के साथ आये, रत्नराज का उदयपुर में आचार्य श्री प्रमोदसूरिजी के प्रथम दर्शन एवं परिचय हुआ, उसी समय उन्होंने रत्नराज की योग्यता देखकर ऋषभदासजी ने रत्नराज की याचना की, लेकिन ऋषभदास ने कहा कि ‘अभी तो बालक है, आगे किसी अवसर पर जब यह बड़ा होगा और उसकी भावना होगी तब देखा जायेगा।’ यात्रा एवं विवाह विचार – जीवन के व्यापार-व्यवहार के शुभारंभ हेतु मांगलिक स्वरुप तीर्थयात्रा कराने का परिवार में विचार हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर बड़े भाई माणेकचंद के साथ धुलेवानाथ – केशरियाजी तीर्थ की पैदल यात्रा करने हेतु प्रयाण किया, पहले भरतपुर से उदयपुर आये, वहाँ से अन्यत्र यात्रियों के साथ केशरियाजी की यात्रा प्रारंभ की, तब रास्ते में पहाड़ियों के बीच आदिवासी भीलों ने हमला कर दिया, उस समय रत्नराज ने यात्रियों की रक्षा की, साथ ही नवकार मंत्र के जाप के बल पर जयपुर के पास अंब ग्राम निवासी शेठ शोभागमलजी की पुत्री रमा को व्यंतर के उपद्रव से मुक्ति भी दिलायी, सभी के साथ केशरियाजी की यात्रा कर वहाँ से उदयपुर, करेडा पाश्र्वनाथ एवं गोडवाड के पंचतीर्थों की यात्रा कर वापिस भरतपुर आये। ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि शेठ सोभागमलजी ने रत्नराज के द्वारा पुत्री रमा को व्यंतर दोष से मुक्त किये जाने के कारण रमा की सगाई रत्नराज के साथ करने हेतु बात की थी लेकिन वैराग्यवृत्ति रत्नराज ने इसके लिए इंकार कर दिया। व्यापार – रत्नराज के पिता श्रेष्ठि ऋषभदास का हीरे-पन्ने आदि जवेरात एवं सोने-चांदी का वंश परम्परागत व्यापार था, रत्नराज ने भी १४ साल की छोटी सी उम्र में चैत्र सुदि प्रतिपदा के दिन परम्परागत हीरा-पन्ना आदि का व्यापार शुरु किया और केवल दो महिने में ही व्यापार का पुरा अनुभव प्राप्त कर लिया, उसके बाद व्यापार हेतु बड़े भाई के साथ भरतपुर से पावापुरी, समेतशिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा कर कलकत्ता पहुँचे, थोड़े समय तक वहाँ व्यापार कर वहाँ से जलमार्ग से व्यापार हेतु सीलोन (श्रीलंका) पहुँचे, वहाँ ढाई से तीन साल तक व्यापार कर न्याय-नीतिपूर्वक कल्पनातीत धन उपार्जन किया। व्यापार में अत्याधिक व्यस्तता एवं मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेटकर वापिस कलकत्ता होकर भरतपुर आ गये। रत्नराज के पिता श्रेष्ठि ऋषभदास का हीरे-पन्ने आदि जवेरात एवं सोने-चांदी का वंश परम्परागत व्यापार था, रत्नराज ने भी १४ साल की छोटी सी उम्र में चैत्र सुदि प्रतिपदा के दिन परम्परागत हीरा-पन्ना आदि का व्यापार शुरु किया और केवल दो महिने में ही व्यापार का पुरा अनुभव प्राप्त कर लिया, उसके बाद व्यापार हेतु बड़े भाई के साथ भरतपुर से पावापुरी, समेतशिखरजी आदि तीर्थों की यात्रा कर कलकत्ता पहुँचे, थोड़े समय तक वहाँ व्यापार कर वहाँ से जलमार्ग से व्यापार हेतु सीलोन (श्रीलंका) पहुँचे, वहाँ ढाई से तीन साल तक व्यापार कर न्याय-नीतिपूर्वक कल्पनातीत धन उपार्जन किया। व्यापार में अत्याधिक व्यस्तता एवं मुनाफा होने के बावजूद भी माता-पिता के वृद्धत्व एवं गिरते स्वास्थ्य का समाचार पाकर दोनों भाई व्यापार समेटकर वापिस कलकत्ता होकर भरतपुर आ गये। वैराग्यभाव – माता-पिता की वृद्धावस्था एवं दिन-प्रतिदिन गिरते स्वास्थ्य के कारण दोनों भाई माता-पिता की सेवा में लग गए, रत्नराज ने उनको अंतिम आराधना करवाई एवं एक दिन के अंतर में माता-पिता दोनों ने समाधिभाव से परलोक प्रयाण किया। माता-पिता के स्वर्गवास के पशुचात उदासीन रत्नराज आत्मचिंतन में लीन रहने लगे, नित्य अर्ध-रात्रि में, प्रात:काल में कायोत्सर्ग, ध्यान, स्वाध्याय, चिंतन-मनन आदि में समय व्यतीत करते रहे, सुषुप्त वैराग्यभावना के बीज अंकुरित होने लगे, इतने में उसी समय (वि.सं. १९०२) में पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी का चातुर्मास भरतपुर में हुआ। आपका तप-त्याग से भरा वैराग्यमय जीवन एवं तत्वज्ञान से ओत-प्रोत वैराग्योत्पादक उपदेशामृत ने रत्नराज के जिज्ञासु मन का समाधान किया, जिससे रत्नराज के वैराग्यभाव में अभिवृद्धि हुई, फलस्वरुप उनकी दीक्षा-भावना जागृत हुई और वे भागवती दीक्षा (प्रवज्या) ग्रहण करने हेतु उत्कंठित हो गये। दीक्षा – दीक्षा को उत्कंठित रत्नराज में उत्पादन उछल रहा था, केवल निमित्त की उपस्थिति आवश्यक थी। निमित्त का योग वि.सं. १९०४ वैशाख सुदि ५ (पंचमी) को उपस्थित हो गया और इस प्रकार अपने बड़े भ्राता माणिकचंदजी की आज्ञा लेकर रत्नराज ने उदयपुर (राज.) में पिछोला झील के समीप उपवन में आम्रवृक्ष के नीचे श्रीपूज्य श्री प्रमोदसूरिजी से यति दीक्षा ग्रहण की, इस प्रकार आपके दीक्षा गुरु आचार्य श्री प्रमोद सूरिजी थे, अब नवदीक्षित मुनिराज मुनि श्री रत्नविजयजी के नाम से पहचाने जाने लगे। अध्ययन – ‘पढमं नाणं तओ दया’ अर्थात ज्ञान के बिना संयम जीवन की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं है, इस बात को निर्विवाद सत्य समझकर गुरुदत्त ग्रहण शिक्षा के साथ-साथ मुनिश्री रत्नविजयजी ने दत्तवित्त होकर अध्ययन प्रारंभ किया। व्याकरण, काव्य, अलंकार, न्याय, दर्शन, ज्योतिष, वैद्यक, कोश, आगम आदि विषयों का सर्वांगीण अध्ययन आरंभ किया। मुनि रत्नविजयजी ने गुरु आज्ञा से खरतगच्छीय यति श्री सागरचंदजी के पास व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि का अध्ययन किया (वि.सं. १९०६ से १९०९) तत्पश््चात निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि पंचागी सहित जैनागमों का विशद अध्ययन वि.सं. १९१०-११-१२-१३ में श्री पूज्य श्री देवेन्द्रसूरि के पास किया, आपकी अध्ययन जिज्ञासा और रुचि देखकर श्री देवेन्द्रसूरि ने विद्या की अनेक दुरुह और अलभ्य आमनायें प्रदान की, श्री राजेन्द्रसूरि द्वारा (पूर्वाद्र्ध) के लेखकरायचन्दजी के अनुसार मुनि रत्नविजय ने ज्योतिष का अभ्यास जोधपुर (राजस्थान) में चंद्रवाणी ज्योतिषी के पास किया। बड़ी दीक्षा – वि.सं. १९०९ में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि तीज) के दिन श्रीमद् विजय प्रमोद सूरिजी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको बड़ी दीक्षा दी, साथ ही श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी एवं श्री देवेन्द्रसूरिजी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया। वि.सं. १९०९ में अक्षय तृतीया (वैशाख सुदि तीज) के दिन श्रीमद् विजय प्रमोद सूरिजी ने उदयपुर (राजस्थान) में आपको बड़ी दीक्षा दी, साथ ही श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी एवं श्री देवेन्द्रसूरिजी ने आपको उस समय पंन्यास पद भी दिया। अध्यापन – आपकी योग्यता और स्वयं की अंतिम अवस्था ज्ञातकर श्रीपूज्य श्री देवेन्द्रसूरि ने अपने बाल शिष्य धरणेन्द्रसूरिजी (धीर विजय) को अध्ययन कराने हेतु मुनिश्री रत्नविजय जी को आदेश दिया। गुरु आज्ञा व श्रीपूज्यजी के आदेशानुसार आपने वि.सं. १९१४ से १९२१ तक धीरविजय आदि ५१ यतियों को विविध विषयों का अध्ययन करवाया और स्व-पर दर्शनों का निष्णांत बनाया। श्री पूज्यश्री धरणेन्द्रसूरि ने भी विद्यागुरु के रुप में सम्मान हेतु आपको ‘दफ्तरी’ पद दिया। दफ्तरी पद पर कार्य करते हुए आपने वि.सं. १९२० में रणकपुर तीर्थ में चैत्र सुदि १३ (महावीर जन्मकल्याणक) के दिन पाँच वर्ष में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह किया। वि.सं. १९२२ का चातुर्मास प्रथम बार स्वतंत्र रुप से २१ यतियों के साथ जालोर में किया, इसके बाद वि.सं. १९२३ का चातुर्मास श्री धरणेन्द्रसूरिजी के आग्रह से ‘घाणेराव’ में उन्हीं के साथ हुआ। आचार्य पद पर आरोहण : पृष्ठभूमि और प्रक्रिया : ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है कि वर्षाकाल में ही घाणेराव में ‘इत्र’ के विषय में मुनि रत्नविजय का श्री धरणेन्द्रसूरिजी से विवाद हो गया, श्री रत्नविजय जी साधुचर्या के अनुसार साधुओं को ‘इत्र’ आदि उपयोग करने का निषेध करते थे जबकि धरणेन्द्रसूरि एवं अन्य शिथिलाचारी यति इत्र आदि पदार्थ ग्रहण करते थे। कल्पनासूत्रार्थ प्रबोधिनी के अनुसार वि.सं. १९२३ के पर्युषण पर्व में तेलाधार के दिन शिथिलाचारी को दूर करने के लिये मुनि रत्नविजय ने तत्काल ही मुनि प्रमोदरुचि एवं धनविजय के साथ घाणेराव से विहार कर नाडोल होते हुए आहोर शहर आकर अपने गुरु श्री प्रमोदसूरिजी से संपर्क  किया और बीती घटना की जानकारी दी, साथ ही अनेक अन्य विद्वान यतियों ने भी श्री पूज्य श्री प्रमोदसूरिजी शिथिलाचार का उपचार करने हेतु लिखा, तब मुनि रत्नविजय ने आहोर में अट्ठम तप कर मौन होकर ‘नमस्कार महामंत्र’ की एकान्त में आराधना की, आराधना के पशुचात श्री प्रमोदसूरिजी ने रत्नविजय से कहा- ‘रत्न! तुमने क्रियोद्धार करने का निश्चय किया सो योग्य है, मुझे प्रसन्नता भी है, परंतु अभी कुछ समय ठहरो, पहले इन श्री पूज्यों और यतियों से त्रस्त जनता को मार्ग दिखाओ फिर क्रियोद्धार करो, तत्पश्चात गुरुदेव प्रमोदसूरिजी से विचार विमर्श कर मुनि रत्नविजय ने अपनी कार्य प्रणाली निश्चित की। वि.सं. १९२३ में इत्र विषयक विवाद के समय ही प्रमोदसूरि जी ने मुनि रत्नविजय को आचार्य पद एवं श्रीपूज्य पदवी देना निश्चित कर लिया था। ‘श्री राजेन्द्रगुणमंजरी’ आदि में उल्लेख है कि वि.सं. १९२४, वैशाख सुदि पंचमी बुधवार को श्री प्रमोदसूरिजी ने निज परम्परागत सूरिमंत्रादि प्रदान कर श्रीसंघ आहोर द्वारा किये गये महोत्सव में मुनि श्री रत्नविजय जी को आचार्य पद एवं श्री पूज्य पद प्रदान किया और मुनि रत्नविजय का नाम ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि रखा गया, आहोर के ठाकुर यशवंतसिंह जी ने परम्परानुसार श्रीपूज्य – आचार्य श्रीमद्जय राजेन्द्रसूरि को रजतावृत्त चामर, छत्र, पालकी, स्वर्णमण्डित रजतदण्ड, सूर्यमुखी, चंद्रमुखी एवं दुशाला (कांबली) आदि भेंट दिये, इस प्रकार बालक रत्नराज क्रमश: मुनि रत्नविजय, पंन्यास रत्नविजय और अब श्रीपूज्य एवं आचार्य पद ग्रहण करने के बाद आचार्य ‘श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि नाम से पहचाना जाने लगा। आचार्य पद ग्रहण कर आप मारवाड़ से मेवाड़ की और विहार कर शंभूगढ़ पधारे, वहाँ के राणाजी के कामदार फतेहसागरजी ने पुन: पाटोत्सव किया और आचार्यश्री को शाल (कामली) छड़ी, चँवर आदि भेंट किये। आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि ने शम्भूगढ से विहार करते हुए वि.सं. १९२४ का चातुर्मास जावरा में किया। आचार्य पद पर आरोहण के पशुचात आपका यह प्रथम चातुर्मास था। जावरा चातुर्मास के बाद वि.सं. १९२४ के माघ सुदि ७ को आपने नौकलमी कलमनामा बनाकर श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि द्वारा भेजे गये मध्यस्थ मोतीविजय और सिद्धिकुशलविजय – इन दो यतियों के साथ भेजकर श्री धरणेन्द्रसूरि आदि समस्त यतिगण से अनुमत करवाया। क्रियोद्धार का बीजारोपण : श्री राजेन्द्रसूरिरास (पूर्वाद्र्ध) के अनुसार दीक्षा लेकर वि.सं. १९०६ में उज्जैन पधारे तब गुरुमुख से उत्तराध्ययन सूत्र के अन्तर्गत भृगु पुरोहित के पुत्रों की कथा सुनकर मुनि रत्नविजयजी के भावों में वैराग्य वृद्धि हुई और आप क्रियोद्धार करने के विषय में चिंतन करने लगे। श्री राजेन्द्रसूरिरास के अनुसार पंन्यास श्रीरत्नविजयजी जब विहार करते हुए वि.सं. १९२० में राजगढ थे तब वहाँ यति मांविजय ने उनको अपने गुरु की खाली गादी पर श्री पूज्य बनकर बैठने को कहा, तब आपने कहा कि मुझे तो क्रियोद्धार करना है – ऐसा कहकर श्रीपूज्य की गादी पर बैठने से मना कर दिया। क्रियोद्धार का अभिग्रह : वि.सं. १९२० में ही पं. रत्नविजयजी अन्य यतियों के साथ विहार करते हुए चैतमास में राणकपुर पधारे तब भगवान महावीर के २३८९ कल्याणक के उपलक्ष में रत्नविजयजी ने अट्ठम (तीन उपवास) तप कर राणकपुर में परमात्मा आदिनाथ की साक्षी से पाँच वर्षों में क्रियोद्धार करने का अभिग्रह लिया था, वहीं पारणा के दिन प्रात:काल में मुनि रत्नविजयजी मन्दिर से दर्शन कर बाहर जिनालय के सोपान उतर रहे थे तब अबोध बालिका ने आकर कहा:- नमो आयरियाणं -आयरियाणं-महाराज साहब, तेला (अट्ठम तप) सफल हो गया, आप पारणा करो। (क्रियोद्धार) बासठ महीनों में करना – ऐसा कहकर व बालिका दौड़कर मन्दिर में लुप्त हो गई, इस प्रकार उन्हें दिव्य शक्ति के द्वारा क्रियोद्धार करने का संकेत भी मिला। इसके बाद वि.सं. १९२२ में जालोर (राजस्थान) चातुर्मास में भी आपको क्रियोद्धार करने की तीव्र भावना हुई। यति महेंद्रविजयजी, धनविजयजी आदि ने भी क्रियोद्धार करने में अपनी सहमति बताई। वि.सं. १९२३ में भी जब आप घाणेराव से आहोर पधारे थे तब भी आपने आहोर में एक महिना तक अभिग्रह धारण कर शुद्ध अन्न-पानी ही उपयोग में लिये, इतना ही नहीं अपितु राजेन्द्रसूरिरास में तो स्पष्ट उल्लेख है कि श्रीपूज्य पद ग्रहण करने के पश्चात आपने अपने गुरुश्री प्रमोद्सूरिजी से भी क्रियोद्धार हेतु विचार -विमर्श कर आज्ञा भी प्राप्त की थी, अत: उत्कृष्ट तप-त्यागमय शुद्ध साधु जीवन का आचरण एवं वीरवाणी के प्रचार के लिए एक मात्र ध्येय की पूर्ति हेतु पूर्वोत्कारनुसार धरणेन्द्रसूरि आदि के द्वारा नव कलमनामा अनुमत होने के बाद आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वर जी ने वि.सं. १९२५ में आषाढ वदि दशमी शनिवार/सोमवार, रेवती नक्षत्र, मीन राशि, शोभन (शुभ) योग, मिथुन लग्न में तदनुसार दिनांक १५-६-१८६८ में क्रियोद्धार कर शुद्ध जीवन अंगीकार किया, उसी समय छड़ी, चामर, पालखी आदि समस्त परिग्रह श्री ऋषभदेव भगवान के जिनालय में श्री संघ जावरा को अर्पित किया, जिसका ताड़पत्र पर उत्कीर्ण लेख श्री सुपाश्र्वनाथ के गर्भगृह के द्वार पर लगा हुआ है। क्रियोद्धार के समय आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिजी ने अट्ठाई (आठ उपवास) तप सहित जावरा शहर के बाहर (खाचरोद की ओर) नदी के तट पर वटवृक्ष के नीचे नाण (चतुर्मुख जिनेश्वर प्रतिमा) के समक्ष केशलोंच किया, पंच महाव्रत उच्चारण किये एवं शुद्ध साधु जीवन अंगीकार कर सुधर्मा स्वामी जी की ६८वीं पाट परम्परा पर आचार्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी नाम से प्रख्यात हुए, तत्कालीन शिष्यरत्न, राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेन सूरिश्वरजी के उपदेश से खीमेल (राजस्थान) निवासी किशोरमलजी वालचंदजी खीमावत परिवार के सहयोग से श्री संघ जावरा द्वार क्रियोद्धारस्थली श्री राजेन्द्रसूरि वाटिका – जावरा (म.प्र.) में एक सुरम्य गुरुमन्दिर का निर्माण किया गया है।

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भारतीय भाषा सम्मान यात्रा पर निकले भाषायी सैनिकों का भव्य स्वागत

आगामी आगामी २५ दिसम्बर,२०१८ से ४ जनवरी २०१९ तक भारतीय भाषा सम्मान यात्रा का आयोजन भारतीय भाषा अपनाओ अभियान के संस्थापक अध्यक्ष, वरिष्ठ पत्रकार एवं सम्पादक बिजय कुमार जैन के नेतृत्व में किया जा रहा है।यह यात्रा ५०० राष्ट्रप्रेमी और हिंदी प्रेमी सेवकों के साथ कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि स्थानों पर होती हुई ४ जनवरी २०१९ को दिल्ली पहुंचेगी तथा हिंदी को देश की राष्ट्रभाषा का संवैधानिक द़र्जा दिलाने के सम्बन्ध में ४ जनवरी २०१९ को अपरान्ह २.३० बजे भारत के महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोंविद को तत्सम्बधी ज्ञापन दिया जाएगा। इस निर्धारित यात्रा की पूर्ण व्यवस्था हेतु २१ नवम्बर २०१८ एक दल श्री बिजय कुमार जैन के सानिध्य में प्रात: ९ बजे विभिन्न गन्तव्य स्थलों के लिए रवाना हुआ। रवाना होने के पूर्व अंधेरी में जे.बी.नगर के प्रांगण में स्थित लक्ष्मी नारायण मंदिर में सुप्रसिद्ध पंडित दिलीप जी के कर-कमलों द्वारा पूजा अर्चना करवाई गई। भाषा यात्रा के संस्थापक अध्यक्ष एवं अग्रणी सैनिक बिजय कुमार जैन वीरेन्द्र जैन, आकाश कुंभार, मंगेश चव्हाण व भारत विकास परिषद के अध्यक्ष ओम प्रकाश तोदी के साथ कई राष्ट्रप्रेमियों को यात्रा का शुभारंभ कर आशीर्वाद दिया श्री जैन ने कहा कि ४ जनवरी २०१९ को भारत के महामहिम राष्ट्रपतिजी पुणेसातारासे देश के १३५ करोड़ भारतीयों की भावना को अभिव्यक्त किया जाएगा कि सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान बढ़े तथा भारत की एक राष्ट्रभाषा घोषित हो। इस यात्रा के प्रथम पड़ाव में २१ नवम्बर २०१८ पुणे में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, साधना सदन, पुणे में सभी हिंदी सेवियों का सम्मान किया गया तथा वहां के समाज सेवियों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा दिलाने का पूरजोर समर्थन करते हुए हर संभव सहयोग का विश्वास दिलाया। इस अभियान में पुणे के विजयकांत कोठारी, रमेश ओस्तवाल एवं मनीष जैन का उल्लेखनीय सहयोग रहा। सातारा में श्री राजन मामणीय, मांगीलालजी कोठारी, सचिन दोषी, चन्द्रकांत भाटे, जवानमल जैन की उपस्थिति में हिन्दी सेवियों का स्वागत किया गया।२४ नवम्बर २०१८ की संध्या को यह यात्रा कालीकट पहुंची। कालीकट में गुजराती महाविद्यालय की अध्यक्ष रमाबेन ने उत्साहपूर्वक हिन्दी सेवियों का स्वागत किया। इस अवसर पर कार्यकारिणी के सदस्य तथा सभी सहयोगी उपस्थित थे। महाविद्यालय के अध्यक्ष रमाबेन ने इस राष्ट्रीय अभियान के प्रति प्रसन्नता व्यक्त करते हुये, कहा की हम भी सहर्ष इस राष्ट्रीय अभियान में आपना सहयोग देंगे, हिंदी सेवी २४ नवम्बर २०१८ को सांय. ७ बजे कालीकट से कोयंबटूर पहुंचे, यहां श्वेतांबर जैन मंदिर के अध्यक्ष बाबूलालजी तथा जैन महासंघ के अध्यक्ष चंपालालजी बाफना से भेंट हुई। उन्होंने गुजराती समाज, राजस्थानी समाज तथा अन्य महासंघों के संयोग से इस यात्रा को पूरा समर्थन देने का आश्वासन दिया। २६ नवम्बर २०१८ को कर्नाटक स्थित निपानी में भारतीय भाषा सम्मान यात्रा के लिए आये हुये राष्ट्रभाषा प्रेमियों का जोरदार स्वागत किया गया। और निपानी समाज के ओर से इस यात्रा में सम्मिलित राष्ट्रभाषा प्रेमियों के लिए दोपहर के भोजन की व्यवस्था का आश्वासन दिया। इस अवसर पर बालासाहेब मकदुम, महावीर पाटील, अक्षय पुरंथ, श्रीधर माकलकी, नीलेश शेट्ये, अमर उत्तुरे, सचिन देशमाने, श्रीमती अलका पुरन्त, आशीष खोडबोले, आदि अनेक गणमान्य उपस्थित थे। सभी ने बड़े हर्षोल्लास के साथ ‘हिन्दी’ बने राष्ट्रभाषा अभियान का पुरजोर समर्थन किया। २७ नवम्बर को कुमटा समाज द्वारा हिंदी सेवियों का भव्य स्वागत किया गया। इस अवसर पर श्री एस. आर. पटेल, विरामराव जी पटेल, देवजी पटेल, अशोक पटेल, आर. पटेल, के. आर. पटेल, बगताराम एम. पटेल, सुरेश कुमार सुथार, बाबूराम देवासी, हमीरराम देवासी, टीकारामजी, रमेशसिंह आदि गणमान्य उपस्थित थे। सभी ने एक स्वर में हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने तथा इस अभियान में पूर्ण सहयोग करने का आश्वासन दिया। २८ नवम्बर २०१८ को हिंदी सैनिक हैदराबाद और उसके बाद अदिलाबाद पहुंचे। अदिलाबाद में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का चुनावी कार्यक्रम था। इसलिए सीधे रास्ते से अदिलाबाद नही जाने दिया। तब कच्चे रास्ते से अदिलाबाद पहुंचे जहा मारवाड़ी धर्मशाला में हिंदी सेवियों का जोरदार स्वागत किया गया। इस अवसर पर श्री अजय जैन, श्री बजरंग लालजी, मनिष जी आदि ने अदिलाबाद के ओर से पूर्ण सहयोग देने तथा १ जनवरी २०१९ को यहा एक विशाल सभा आयोजित करने का कार्यक्रम निर्धारित किया। हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए यहां के लोगों का उत्साह उल्लेखनिय था। २८ नवम्बर को हिंदी सेवी नागपूर पहुंचे, जहाँ खंडेलवाल, दिगम्बर जैन सभा छात्रावास में एक सभा आयोजित की गयी, इस अवसर पर श्री नरेश पाटणी, हस्सीमलजी कटारिया आदि से विस्तृत विचार विमर्श हुआ, तथा आरएसएस प्रमुख श्री मोहन भागवत से भी संपर्क साधने पर चर्चा हुई। यह निश्चय किया गया कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए श्री मोहन भागवत का सहयोग भी लिया जायेगा। साथ ही यह भी निश्चय किया गया कि नागपुर में १ जनवरी २०१९ को नूतन वर्षाभिनंदन के साथ-साथ एक विशाल सभा का भी आयोजन किया जायेगा। हिंदी सेवी नागपुर से २९ नवम्बर २०१८ को नरसिंहपुर के लिए प्रस्थान कर गये।भारतीय भाषा सम्मान यात्रा के सेनानी ३० नवम्बर को प्रात: आचार्य विद्यासागर जी के दर्शन करने ललितपुर पहुंचे, वहां उनके दर्शन हुए, उन्हें भारतीय भाषा सम्मान यात्रा की पूरी जानकारी दी गयी तो उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता जाहिर की और कहा कि यह बहुत ही अच्छा काम है, राष्ट्रहित के लिए है, मेरा पूरा आशीर्वाद है, आगे बढ़ो सफलता जरूर मिलेगी। ललितपुर से भाषायी सैनिक ३० नवम्बर को ग्वालियर पहुंचे। तथा स्वर्ण मंदिर में दर्शन कर भगवान महावीर का आशीर्वाद लिया, ग्वालियर में उपस्थित हिंदी प्रेमियों ने भाषायी सैनिकों का सम्मान किया। तथा विश्वास दिलाया कि न केवल ग्वालियर के लोग अपितु समूचा देश हिंदी को राष्ट्रभाषा द़र्जा दिलाने में आपके साथ होगा। ये सेनानी ३० नवम्बर को ग्वालियर से आगरा पहुंचे, आगरा की व्यवस्था यहां के जैन समाज ने ले ली तथा आश्वासन दिया कि आप आगे बढ़ें हम सभी आपके साथ हैं, इस अवसर पर आगरा जैन परिषद के अध्यक्ष एडवोकेट अशोक जैन, बेलनगंज धर्मशाला के ट्रस्टी एडवोकेट राजेन्द्र कुमार जैन, श्री सुंदरलाल जैन धर्मशाला के अध्यक्ष ट्रस्टी मनोजकुमार जैन, श्री दिगम्बर जैन शिक्षा समिति के उपाध्यक्ष कमल जैन, सुनिल भैया जैन, राजेश कुमार जैन, राजकुमार जैन उपस्थित थे। १ दिसम्बर २०१८ को भाषायी सैनिक दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में मारवाड़ी पुस्तकालय में राजनारायण सराफ जी की अध्यक्षता में एक सभा हुई जिसमें महेश चंद गुप्त जी, डॉ. अनिल जैन, विजयराज सुराणा, अमरजीत जी, राहुल जी आदि कई राष्ट्रभाषा प्रेमी एवम बुद्धिजीवी लोग उपस्थित थे, सभी ने एकमत होकर सभी भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने, हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा घोषित करने तथा इंडिया को भारत के नाम से सम्बोधित करने प्रस्ताव का स्वागत व समर्थन किया। दिल्लीवासियों ने इस अभियान में पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया, दिल्ली से ये भाषायी सैनिक जयपुर होते हुए मुंबई के लिए रवाना हो गए।१ दिसम्बर २०१८ को भाषायी सैनिक दिल्ली से जयपुर पहुंचे, जयपुर में रहने की व्यवस्था श्री राजेन्द्र जी गोधा ने की। यहां पर समाज के कई प्रभावशाली लोगों से भट्टारक जी की नसिया में परिचय हुआ, जिनमें विशेषकर विनोद जी जैन, सुभाष जी जैन, राकेश जी गोधा, प्रदीप जी गोधा आदी प्रमुख थे, उपस्थित महानुभावों में ‘भारतीय भाषा सम्मान यात्रा’ की दिल्ली से वापसी के समय ४ जनवरी २०१९ को जयपुर में संपूर्ण व्यवस्था के लिए निवेदन किया गया। २ दिसम्बर २०१८ को भाषायी सैनिक जयपुर से भीलवाड़ा पहुंचे, यहां सौभाग्य मुनि जी का प्रवचन सुना, उन्होंने कहा कि आज सकल जैन समाज में एकता की आवश्यकता है, ‘जिनागम’ पत्रिका पिछले २२ वर्षों से जैन एकता के लिए प्रयास कर रही है, साथ ही यह विचार भी बांट रही है कि हम न दिगम्बर है, न श्वेताम्बर, हम केवल जैन हैं, भगवान महावीर के अनुयायी है, हमारा एक ही नवकार मंत्र है। उपस्थित जनसमुदाय ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करवाने के प्रयास की प्रशंसा की, इसमें पूरा सहयोग देने का आश्वासन भी दिया, तथा ५ जनवरी २०१९ को प्रात: भारतीय भाषा सम्मान यात्रा के यात्रियों की व्यवस्था के लिए विचार करने। यहां से हिंदी सेवी बांसवाड़ा पहुंचे, यहां के दिगम्बर जैन भवन में एक सभा का आयोजन किया गया, यहां उपस्थित सभी बुद्धिजीवियों ने एक स्वर में ‘हिंदी’ को राष्ट्रभाषा बनाने संबधी अभियान में पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। ३ दिसम्बर २०१८ को प्रात: सभी भाषायी सैनिक बड़ौदा पहुंचे, यहां श्री दिगम्बर जैन मंदिर नवग्रह के अतिथि गृह के अध्यक्ष महेश भाई से ६ जनवरी २०१९ को अपरान्ह यात्रा सेनानियों के भोजन की व्यवस्था बड़ौदा समाज द्वारा करवाने का निवेदन किया गया, इस अवसर पर श्री जतिन शाह, वीरेंदर शाह, जगदीशचंद्र शाह, हसमुखलाल शाह आदि उपस्थित थे। बड़ौदा से भाषायी सैनिक सूरत पहुंचे, सूरत में दिगम्बर जैन मंदिर कतार गांव के अध्यक्ष रमेश भाई से हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हुई, उन्होंने इस अभियान में पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया, सूरत से भाषायी सैनिक ३ दिसम्बर २०१८ को रात्रि ८.३० बजे जे.बी.नगर स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुंचे। यहां दिलीप जी पंडित ने सम्मान किया और भावी यात्रा के लिए शुभकामनाएं की, उन्होंने कहा एक दिन पूरा भारत आपके साथ होगा। प्रस्तुति- प्रो. मिश्रीलाल मांडोत