नमन उन महामानव

गच्छ नायक बनकर त्रिस्तुतिक सिद्धांत को पुन: स्थापित करने वाले महान युग पुरुष

२०वीं शताब्दी के महान ज्योतिधर ‘श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा.’ जैसा क्रियोद्धारक प्रकांड मनीषी युग पुरुष इस धरती पर यदा-कदा ही अवतरित होते हैं। ऐसे युग पुरुष गुरुदेव की जन्मतिथि और देहलोक लीला सम्वसरण दोनों ही एक ही दिन पौष शुक्ला सप्तमी की हैं, इसे एक देवी संयोग ही कहा जायेगा जो अपने आप में विशिष्ट हैं।

संक्षिप्त जीवन सौरभ : जन्म : वि.सं. १८८३ पोष शुक्ल सप्तमी,
जन्म स्थान : भरतपुर, सांसारिक नाम : रत्नराज,
पिता : ऋषभदासजी,
माता : केशरदेवी,
गौत्र : पारेख,
दीक्षा : वि.सं. १९०४ उदयपुर,
गुरु : आचार्यश्री प्रमोदसूरिजी,
आचार्यपद : वि.सं. १९२३ आहोर (राज.),
क्रियोद्यार : वि.सं. १९२५ जावरा (मध्यप्रदेश),
स्वर्गवास : वि.सं. १९६३ पोष शुक्ला सप्तमी राजगढ (मध्यप्रदेश) समाधि स्थल : श्री मोहनखेडा तीर्थ राजगढ (म.प्र.),
आयु वर्ष : ८० वर्ष संयम पर्याय : ६० वर्ष

‘गुरु सप्तमी पर विशेष’ प्रतिवर्ष मोहनखेड़ा में गुरु सप्तमी समारोह पूर्वक मनाई जाती है लेकिन विचारणीय बात यह है कि पूज्यपाद की स्मृति में वहाँ मेला क्यों लगता है और समारोह पूर्वक क्यों सप्तमी मनाई जाती है? पूज्यपाद में ऐसी क्या विशेषता थी कि भक्तों ने सर्वत्र गुरु मन्दिर बनवाए और नित्य दर्शन पूजा आदि करते हैं। देश भर के श्रद्धालु इस पावन दिन को बड़ी धूमधाम के साथ गुरु सप्तमी के रुप में मनाते हैं। सर्द ऋतु में भी हजारों भक्त भक्तिभाव से प्रेरित होकर मोहनखेड़ा तीर्थ पहुँचते है।

गुण रत्नों की खान थे गुरुदेव राजेन्द्रसूरिजी: गुण रत्नों की खान श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. का जीवन प्रेरणा स्त्रोत हैं, वे संकल्प निष्ठा के कारण अपनों की विरोधाग्नि में जले-तपे लेकिन उन्होंने अपनी आचार सभ्यता नहीं छोड़ी और अपने विरोधियों एवं समस्त प्राणी मात्र में आत्मीय प्रेम की स्थापना कर सबको जोड़ने के लक्ष्य पर कायम रहे। गुरुदेव कोई जादुई चमत्कार नहीं करते थे, उनकी वाणी में चमत्कार था, उनके आचरण में चमत्कार था। गुरुदेव ने अपने जीवन में त्याग एवं तपश्चर्या के महत्व को समझकर उसे अंगीकार किया और अपने जीवन को त्याग एवं तपश्चर्या का साकार रुप देकर जैन दर्शन में वर्णित सच्चे साधु को धारण किया, अपने व्यक्तित्व तो इतना ऊँचा उठाया कि अन्य लोगों के लिए वे आदर्श बन गए।

नव कलमनामा : कथनी और करनी की एकरुपता गुरुदेव के व्यक्तित्व का हिस्सा थी, उनके जीवनकाल में उच्च आदर्श जीवन देखकर शिथिलाचारी उनसे घबराने लगे, उन्होंने नव कलमनामा (नौ सूत्रीय) घोषित कर अमल करवाई, नव कलमनामा की मूल प्रतिलिपि आहोर-जावरा-रतलाम के ज्ञान भंडार में आज भी पूरी तरह से सुरक्षित है। गुरुदेव ने उनकी समस्त शंकाओं का निवारण कर उन्हें आत्मकल्याण की सही दिशा दिखलाई, गुरुदेव का जीवन एक खुला ग्रंथ था, वहाँ कोई तथ्य प्रच्छन्न नहीं था, जब वे स्वयं पालखी से नीचे आ गये तब उन्होंने यतियों को पालखी से उतरकर जीने की बात कही, उनकी क्रांति-धार्मिकता कोई बकवास नहीं थी, वह ठोस चारित्रिक थी, उनका कहना था कि बिना सम्यक चारित्र के व्यक्ति का कल्याण हो ही नहीं सकता, केवल चाहने से वीतराग नहीं हो जाता, यह वीतरागत्व तो व्यक्ति को जीवन की कठिन साधनाओं से ही उपलब्ध हो पाता है। जैन दर्शन का अध्ययन कर अपने सांगोपांग पर विस्मृत त्रिस्तुतिक संघ का पुन: गठन किया, उस समय के कई आचार्यों से इस विषय में चर्चा वार्ताएं हुई, उसमें उनकी जय विजय हुई, अपने जीवन काल में ही आपने त्रिस्तुतिक संघ में एक लाख नए श्रावक बनाए, यह वृहत कार्य उनके त्याग एवं तपमय जीवन में उग्रविहार करके सच्चे साधु-जीवन का एक ज्वलंत उदाहरण है जो अभिनंदनीय एवं अनुकरणीय है।

‘गुरु वही जो जीवन में आलोक भरे’ : किसी ने सही कहा है कि दुनिया को राह दिखाने वाले महान सिद्ध संत कभी मरते नहीं, वे केवल अपना काम पूरा कर लेने के बाद सांसारिक काया का निग्रह करते हैं, भगवान की तरह ही अपने दिव्य कर्मों से वे भी अमर हो जाते हैं, उनके संदेश संसार में भटकने वालों का मार्गदर्शन करते हैं।

साहित्य रचना में ‘अभिधान राजेन्द्र’ जैसे गंभीर ग्रंथ : साहित्य रचना में भी आपने आदर्श स्थापित किया, अल्पायु में ही गंभीर साहित्य सृजन का काम आरंभ कर दिया था, ऐसे विलक्षण संयोग देव प्रतिमाओं में ही देखने को मिलते है, इसमें दो राय नहीं कि जैन धर्म दर्शन विशाल धर्म दर्शन हैं, इनमें प्रयुक्त होने वाले पदों व शब्दों की व्याख्या आसान नहीं, ऐसे में अल्पायु बालक में इन शब्दों व पदों के पारिभाषिक शब्द कोष के निर्माण के लिए रुचि पैदा होना अपने आप में एक दैव्य चमत्कार था, उनमें बचपन से ही एक दैव्य संकल्प शक्ति थी जो हर एक में दिखाई नहीं देती, वृद्धावस्था भी उन्हें पराजित नहीं कर सकी। ६० वर्ष की आयु में उन्होंने ‘अभिधान राजेन्द्र’ जैसे गंभीर ग्रंथ के लेखन का कार्य किया। गुरुदेव वर्षावास के अतिरिक्त किसी भी स्थान पर अधिक दिन रुकते नहीं थे, इसके साथ ही अपेक्षित ग्रंथ की उपलब्धि भी कम ही थी, क्योंकि ग्रंथ या तो बड़े-बड़े ग्रंथालयों में उपलब्ध थे या किसी व्यक्तिगत की पूंजी थी, फिर भी जितने ग्रंथ उन्हें उपलब्ध हो सके, उनके तथा अपनी श्रुति (सुनी हुई तत्व चर्चा) और स्मृति (याद) के आधार पर सात विशाल भागों में (दस हजार पृष्ठों में) ‘अभिधान राजेन्द्र’ जैसे अप्रतिम ग्रंथ की रचना की। राजेन्द्र कोष आज संसार के कई विश्वविद्यालयों में उपलब्ध है, इस कोष की माँग आज भी पाश्चात्य देशों में बहुत हो रही है, इसलिए वे विश्व पूज्य कहलाये।

शस्त्र को शास्त्र में बदला गुरुदेव ने : संसार चक्र में होने वाली घटनाएं मनुष्य के जीवन पर विशेष प्रभाव डालती है लेकिन विरले महापुरुष ही अपने जीवन प्रसंग में उन घटनाओं को बदलने में सक्षम होते हैं, जब हम किसी महापुरुष का मूल्यांकन करते हैं तो हमारे सन्मुख उनके जीवन की ओर उसकी समकालीन घटनाएं होती है। जालोर दुर्ग में प्रभु मन्दिरों के अन्दर अस्त्र-शस्त्र पड़े देखकर और मन्दिरों एवं प्रभु की घोर आशातना देखकर उन्होंने उन मन्दिरों के जीर्णोद्धार का संकल्प कर अट्ठाई के पारणे, अट्ठाई का तप करना शुरु किया। प्रचण्ड वीर्योल्लास, ध्यान, साधना एवं तप-त्याग के द्वारा ऐसा आत्मबल पैदा किया जिसके आगे जोधपुर नरेश को झुकना पड़ना। उन्हें प्रेरित कर जालोर दुर्ग के मन्दिरों से शास्त्रों को हटवा कर, शास्त्रों को रखवाकर पाँचों मन्दिरों का जीर्णोद्धार व प्रतिष्ठा सानंद करवाने के बाद ही गुरुदेव ने चैन की सांस ली।

पाट गादी आहोर एवं भव्य ५२ जिनालय प्रतिष्ठा महामहोत्सव : खोखली भौतिकसुख सुविधाओं में लिप्त होने से श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरिजी ने इत्र की शीशी पू. श्री रत्नविजयजी म.सा. (राजेन्द्रसूरिजी) की और आगे बढाते हुए कहा, कैसे है? उन्होंने कहा ‘इत्र या मूत्र’ में कोई अन्तर नहीं, साधुओं को इनसे दूर रहना चाहिए। सिंह गर्जित चेतावनी का कोई अनुकूल असर न होने पर श्री रत्नविजयजी म.सा. बोले यति मण्डल को जिस शिथिलता रुपी रोग से ग्रस्त किया है उसका ईलाज में स्वयं करुँगा। आप तैयार रहियेगा, इतना कहकर वे वहाँ से तत्काल लौट पड़े, श्री रत्नविजयजी ने अपने गुरुदेव श्री प्रमोदसूरिश्वरजी म.सा. के पास पहुँचकर उपरोक्त वृतांत सुनाया। श्री प्रमोदसूरिश्वरजी म.सा. स्वयं यति मंडल में व्याप्त शिथिलाचार से पूर्ण रुप से परिचित थे, अत: उन्होंने श्री रत्नविजयजी म.सा. तो अपने कार्य में पूरी तरह दक्ष एवं सुयोग्य शिष्य को परखकर श्री पूज्यपद प्रदान करने का आदेश दिया। तदनानसार मारवाड़ के आहोर नगर में वि.सं. १९२३ में चतुर्विध संघ की विशाल जनमेदिनी की उपस्थिति में सूरिमंत्र सहित श्री रत्नविजयजी को आचार्य पद प्रदान किया और श्रीमद् राजेन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. नाम घोषित किया, इस आचार्य पद प्रदान महामहोत्सव से मरुधरा की पुण्यभूमि ‘आहोर नगर’ को श्री पाट-गादी नगर के अलंकरण की ख्याति प्राप्त हुई। गुरुदेव ने तीन हजार जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका करवाई जिसमें आहोर श्री गोडी पाश्र्वनाथ ५२ जिनालय मन्दिरजी की प्रतिष्ठा के समय ९९९ जिन बिम्बों की अंजनशलाका महत्वपूर्ण है। गुरुदेव आहोर के श्री गोडी पाश्र्वनाथ बावन जिनालय की प्रतिष्ठा करवा रहे थे, उसी समय यतियों के सम्मेलन में तय हुआ कि इस प्रतिष्ठा को नहीं होने दिया जाएगा, परन्तु उनके त्याग सौहार्द एवं सहनशीलता के आगे यतियों को झुकना पड़ा। ‘आहोर’ की प्रतिष्ठा यथा समय बड़े समारोह के साथ निर्विघ्नता पूर्वक सम्पन्न हुई।

निंदक तूं मत मरजे रे : दादा गुरुदेव ने एक अध्यात्म पद में निंदक के विषय में कहा है – निंदक तू मत मरजे रे, म्हारी निंदा करेगा कौन? निंदक राखजो आंगण काटे चणाय बिन साबु पाणि मेरो कर्म मेल कट जाए श्रीमद ने कहा कि निंदक को अपने पास ही रहने दें क्योंकि वह बिना साबुन एवं पानी, हमारे कर्म मैल को धो देता हैं, अर्थात हमारे स्वभाव को शुद्ध निर्मल बनाने में सहायक होता है।

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