भगवान महावीर की शिक्षा और आज का युग

jain mantra

आज हम विनाश और विकास के मोड़ पर हैं, विज्ञान और अज्ञान साथसाथ चल रहे हैं, मनुष्य चंद्रमा पर पहुँच गया, भारत का उपग्रह आर्यभट्ट आकाश में घूम रहा है। रुस का अंतरिक्ष यान शुक्र-धरातल को स्पर्श करेगा लेकिन मानव का शांति के लिये आक्रोश आक्रंदन जारी है। मानव कल्याण की सर्वोच्च घोषणा करने वाले युग में, पीड़ित मानवता की वेदना समाप्त नहीं हुई। विषमता और निर्ममता का साम्राज्य व्याप्त है। मनुष्य की आत्मा खो गयी सी लगती है, चेतना घुट गयी सी लगती है। ‘जवाहर लाल नेहरु’ पुरस्कार विजेता दार्शनिक ‘आंद्रे मालरो’ के यह विचार ‘वर्तमान विश्व में भारत की स्थिति कई दृष्टि में अद्वितीय है। भारतीय वस्तुस्थिती को विश्व के लिये गंभीरता से ग्रहण करने के सिवा कोई दूसरा चारा ही नहीं है, विश्व की महान शक्तियों को भारत के प्रति इष्र्यालु नहीं, सहभागी बनना होगा, साथ ही भारत को उन उपायों को खोजना होगा, जो संतप्त और संकटग्रस्त मानवता को शक्ति समवन्य और समृद्धी का वरदान दे सके

प्रश्न भी हमारे पास है उत्तर भी हमारे पास ही हैं, भगवान महावीर के पूर्व जो युग भारत में था उसमें वर्ण वर्चस्व प्रस्थापित पुरोहितों का, जन्म श्रेष्ठत्व माननेवाले हत्यारे राज्यकर्ताओं का और स्वर्गलोभ में हिंसाचार करने-कराने
वाले ढोंगी धार्मिकों का प्रभाव बढ गया था। राजनैतिक अधिकार और सत्ताप्राप्ति के लिये चलने वाले अश्वमेघ यज्ञ से लेकर, सभ्य संस्कृति के नाम पर हत्या करने वाले, ‘नरमेघ’ यज्ञ तक हो रहे थे, भारत के यज्ञ केवल धार्मिक उपचार नहीं थे जीवन व्यवस्था के आधार थे लेकिन कोई भी आदर्श व्यवस्था सामान्य स्तर पर स्वार्थी लोगों से बिगड़ जाती है। परोपजीवियों की ‘स्वार्थ साधना’ का द्वार खुल जाता है। समाज का स्वार्थी वर्ग अपने श्रेष्ठत्व की श्रेणी कायम रखना चाहता है फिर नये-नये भ्रामक सिद्धांत प्रचलित हो जाते हैं। जन्म श्रेष्ठत्व सिद्धांत इसी स्वार्थी वर्ग की उपज है, इस सिद्धांत से समाज को आसानी से दबाया जा सकता है।श्रमण संस्कृति के प्रसारक हमेशा जीवन को गहरी अनुभूतियों से रहस्य की खोज कर, समाज का दिशा निर्देश करते रहे हैं। क्रांति, करुणा और कर्मनिष्ठा पर आधारित ये विचारधाराएँ भारत की विश्व को युगांतरकारी देन है।

श्रम विभाजन जन्म से नहीं कर्म से सामाजिक व्यवस्था में श्रम विभाजन अनिवार्य था इसलिए अलग-अलग जतियों और वंशों के लोगों को चार श्रेणियों में विभाजित कर सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करने का प्रयत्न शुरु हुआ, परन्तु श्रेष्ठ योजना जब कार्याविन्त होती है तब समाज के स्वार्थी लोग उसे अपने हित में मोड़ लेने का प्रयास करते हैं यह श्रेणी विभाजन तक सीमित नहीं रहती- वह श्रमिकों का विभाजन बन जाती है, जिन गुणों व कर्म से व्यक्तित्व की सामाजिक प्रतिष्ठा थी उसका आधार कर्तव्य नहीं, जन्म माना गया और जन्म श्रेष्ठत्व के अहंकार से उच्च ब्राह्मण वर्ग सभी वर्गों को अपनी सेवा में रखने लगा- वह सर्वेसर्वा हो गया, उसने अपने पास ‘भूदेव’ का गौरव खड़ा किया, परमात्मा की प्राप्ति में उसकी सहमति आवश्यक हो गयी। ‘यज्ञ’ जो समाज धारण का साधन था, हिंसा का स्वादिष्ट आयोजन हो गया। ज्ञान की आराधना रुक गई और मात्र जन्म ही जीवन की कसौटी हो गयी, इस समय श्रमण संस्कृति के उद्बोधकों ने इस व्यवस्था को ललकारा, भगवान महावीर की वाणी ने सिंह गर्जना की- ‘कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तिहो वईसो कम्मुणा होई, सुदो हवई कम्मुणा

मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता है, कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है। वैश्य भी कर्मों से और कर्म से शूद्र होता है, जीवन की कसोटी जन्म नहीं कर्म है। यही तो है पशु से प्रभु तक पहुँचने का मार्ग। जन्म श्रेष्ठत्व के वर्ण वर्चस्ववादी सिद्धान्त ने मनुष्य की मुक्ति को मुहर लगा दी थी, भगवान महावीर की यह घोषणा आज भी नितांत सार्थक है। भारत के संविधानकर्ता, बोधिसत्व डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर ने अपना मुक्ति आंदोलन इन्हीं धारणाओं से किया- जन्म शूद्रत्व से, जिन्हें ज्ञान साधना की मनाही थी- वहीं अपने पुरुषार्थमयी पराक्रम से ज्ञान तपस्वी बन गया और उन्होंने श्रमण संस्कृति को स्वीकार किया। श्रमण संस्कृति सभी पीड़ित मानवता का आश्रय स्थल ही नहीं बल्कि सभी चेतनाओं का मुक्तिपथ है।‘‘जर्रा मरण वेरेण बुज्झमाणा पार्णिय धम्मो दियो पईठ्ठा य गई सरण मुत्ताम’’ हमारा जीवन एक अखंड महायात्रा है और महावीर उसे सार्थ दिशा देते हैं ‘वार्धक्य और मरण इस अतिशय आवेगमयी प्रवाह में नहाने वाले जीवों का धर्म ही एक द्वीप है, धर्म ही एक प्रतिष्ठा है, गति है’ कौन सा धर्म! वस्तुत: महावीर की वाणी किसी पंथ विशेष की आग्रही नहीं है,

उनका धर्म तो सभी जीवों पर विचार करना है, जहाँ सभी प्रचलित पंथों का रुप विराट बन जाता है। धर्म ‘धम्म’ जैसे सुविधा के लिए हम पानी को अलग-अलग भाषा में अलग-अलग नाम से पुकारते हैं, जैसे हम पानी पीते हैं, अंग्रेज वॉटर पीते हैं, या कोई आब कहते हैं लेकिन जलतत्व में कोई अंतर नहीं आता, इसलिये महावीर वैज्ञानिक रुप से धर्म की व्याख्या करते हैं। विश्व के इतिहास में धर्मों के नाम पर जितना रक्तपात हुआ है उतनी हिंसा किसी और कारण से नहीं हुई। धर्म के नाम पर होने वाली हत्याएं जो पवित्र मान ली गई थी परन्तु अपने भीतर एक सत्ता की पीपासा लिये हुए थी, राजाओं ने, वरदारों ने, इन धर्मशुद्धों में पूरी शक्ति से सहभाग लिया और धर्म को राजनीति का शास्त्र बना लिया, इस माध्यम से वे अपनी सत्ता प्रस्थापित करना या सत्ता प्रतिष्ठित करना चाहते थे।भगवान महावीर सत्य की खोज में सत्ता का त्याग करते हैं और प्रकृति की विराट सत्ता में धर्म की खोज करते हैं। भगवान महावीर का विचार लौकिक दृष्टि से सर्वत्र पैâला हुआ नहीं दिखाई देता, उनके अनुयायियों की संख्या भी दूसरों की मात्रा में कम है इसका कारण यही है कि उनका दर्शन सत्ता की आकांक्षा पूर्ति नहीं करता, किसी के अधिकारों को दबाना नहीं चाहता और राजनीति में जब तक कोई किसी को अंकुश के नीचे नहीं रखता तब-तब सत्ता के उपभोग का आनंद प्राप्त नहीं हो सकता। मैं, मेरी आत्मा जिस स्वतंत्रता को पुरस्कृत करती है, जिस प्रतिष्ठा को स्वीकार करती है वह प्रतिष्ठा पाने का अधिकार दूसरे जीवों को भी है,

मेरी स्वतंत्रता किसी की स्वतंत्रता का कारागार न बने यह देखना मेरा प्रथम कर्तव्य हो जाता है, इसलिये विश्व में कोई जीव पूर्ण स्वतंत्र नहीं, स्वतंत्रता का अस्तित्व नहीं है- परस्पर तंत्रता का नियम है। मनुष्य केवल अपने अंतर्जगत में पूर्ण रुप से स्वतंत्र हो सकता है। बाह्य जगत की स्वतंत्रता को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक सभी बंधन होंगे, इसलिये वार्धक्य और मरण के इस अति आवेगमयी प्रवाह में बहने वाले जीवों का धर्म ही एक द्वीप है।अपरिग्रह आज की प्रधान आवश्यकता- भारत जैसे विकासशील देश में उत्पादन वृद्धि अत्यंत आवश्यक है क्योंकि दरिद्रता से हमारा जीवन ध्वस्त सा हो गया है|जितना उत्पादन होता है अगर वही थोड़ा-थोड़ा हर जगह संग्रहीत होता है तो जीवनाश्यक वस्तुओं का अकाल नहीं रहेगा और जनता के कष्ट का कोई पारावार भी नहीं रहेगा अपनी आवश्यकता से अधिक किसी भी वस्तु का संग्रह सामायिक दु:खों का कारण बन जाता है। परिग्रही व्यक्ति ‘स्वान्त सुखाय’ के लिये- सर्वान्त सुखाय की बलि दे देता है, एक अर्थ में परिग्रही व्यक्ति परम स्वार्थी है यह परिग्रह केवल निजी जीवन में ही नहीं होता, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जीवन में भी उसका आतंक दिखायी देता है। संसार के शक्तिशाली राष्ट्र शस्त्रों का संग्रह करने लगे हैं प्राकृतिक वस्तुओं का परिग्रह कर अर्थव्यवस्था पर चोट पहुँचा रहे हैं, इन सभी कारणों से आज अंतरराष्ट्रीय तनाव पैदा हो गया है,

इस पृथ्वी को बीसीयों बार नष्ट करने का शस्त्र सामथ्र्य आज मौजूद है। विश्व ने दो महायुद्धों की विभिषिका देखी है उसके परिणाम देखे हैं, अणुशास्त्रो से किया हुआ विनाश भी देखा है, यह सब परिग्रही प्रवृति का परिणाम है जबकि आज अपरिग्रह की नितांत आवश्यकता है। भारत के लोकजीवन में अतिवादी संगठन भी बाधाएँ उपस्थित करते रहे हैं, अपने अहंकारी आग्रह के आगे दुसरों की भावनाओं को कुचल देना, जहाँ तक अपने ही संगठन में मतभेद कर अपने सदस्यों की हत्या कर, खोपड़ियों का संग्रह करने में वे नहीं हिचकते थे।कहते हैं आल्बर्ट आईन्स्टीन से किसी ने पूछा कि तीसरे महायुद्ध के विषय में आपका क्या विचार है? आइन्स्टीन ने कहा ‘तीसरे महायुद्ध के संबंध में मैं यह कह सकता हूँ कि इस पृथ्वी पर चौथा महायुद्ध पत्थरों से होगा, हमने पाषाण युग से आरंभ किया था और आज की शस्त्र स्पर्धा पाषाण युग में अंत होगी। आज भगवान महावीर की अिंहसा, सत्य, अपरिग्रह-अचौर्य, अनेकान्त की जितनी आवश्यकता है उतनी संभवत: पहले कभी नहीं थी। भगवान महावीर की वाणी हमें दीप स्तंभ सी पथ प्रदर्शन करे, क्योंकि गत महायुद्धों में शरीर जलकर राख हो गये थे लेकिन अब युद्ध में आत्माएँ जल जाएगी- चेतनाएंँ झुलस जायेंगी, वैर से वैर का कभी अंत नहीं होता, महावीर की वाणी इस तप्त, संतप्त और अभिशप्त संसार पर प्रेम की अमृत वर्षा करे यही मनोकामना, ‘जिनागम’ परिवार की है।

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