
जीवन मोक्ष: सत्संग, समर्पण, और संत
सन्त और सत्संग के बिना यह दुर्लभतम मानव जीवन भी व्यर्थ है जो सन्तों की कीमत समझ लेते हैं, उनके भीतर से यह वचन निकलता है- ‘‘जो दिन साधु न मिले, वो दिन होय उपास’’ उन्हें सत्संग के बिना उपवास-सा महसूस होता है। सत्संग आत्मा की खुराक है। आत्मा की व्यवस्था सिर्फसंतकृपा से ही हो सकती है, अपितु जिस शरीर में भव्यात्मा विराजमान है, उस शरीर की व्यवस्था तो माँ-बहन, बेटी, पत्नी या बेटा कोई भी कर सकता है, जब हम संतों के समीप जाते हैं, उनके सत्संग में मन लगाकर बैठते हैं तो वे हमें ‘‘ज्ञानामृत भोजन’’ अर्थात् ज्ञान...
मन की रफ्तार
हमने अपने घर के वरिष्ठ सदस्यों के मुंह से सुना था, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन की गति को न पकड़ सका, राजा संत रईस।’’ जब भी रफ्तार का नाम लिया जाता है, कुछ बातें दिमाग में चली आती हैं। हवा की गति तेज होती है, सूर्य के प्रकाश की गति तेज होती है, ध्वनि की गति तेज होती है, इन सभी गतियों की तुलना मन के रफ्तार से नहीं की जा सकती। मन की गति को मापना संभव नहीं है। साथ-साथ भूखंड की ऊर्जाओं को मापने का प्रयास किया जाता है। ऊर्जा मापने के...
विवेक और जैन धर्म: जैन धर्म में विवेक की भूमिका
जैन धर्म किसी एक धार्मिक पुस्तक या शास्त्र पर निर्भर नहीं है, इस धर्म में ‘विवेक’ ही धर्म है | जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति सर्वोपरि है और दर्शन मीमांसा धर्माचरण से पहले आवश्यक है | देश, काल और भाव के अनुसार ज्ञान दर्शन से विवेचन कर, उचित- अनुचित, अच्छे-बुरे का निर्णय करना और धर्म का रास्ता तय करना | आत्मा और जीव तथा शरीर अलग-अलग हैं, आत्मा बुरे कर्मों का क्षय कर शुद्ध-बुद्ध परमात्मा स्वरुप बन सकता है, यही जैन धर्म दर्शन का सार है, आधार है | जैन दर्शन में प्रत्येक जीवन आत्मा को अपने-अपने कर्मफल अच्छे-बुरे स्वतंत्र...
ओजस्वी सन्त तरूण सागरजी
मध्यप्रदेश के दमोह के छोटे से ग्राम में जन्मा एक बालक कभी देश का इतना ओजस्वी व प्रखर वक्ता सन्त बन जायेगा, यह किसी की कल्पना में नहीं था। २६ जुन सन् १९६७ में जन्मा पवन कुमार जैन, अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही एक जैन सन्त का आध्यात्मिक प्रवचन सुनकर, मन से आन्दोलित हो गया एवं १४ वर्ष की उम्र में अपना घर छोड़ दिया, वह किशोर अगले ५-६ वर्ष अपनी ज्ञान-पिपासा की शान्ति एवं मानव जीवन का उद्देश्य पूर्ण सुख-शान्ति प्राप्ति हेतु गुरू की खोज करता रहा, अन्त में सन् १९८८ में २१ वर्ष की आयु में दिगम्बर...
आत्मविकास का अपूर्व अवसर : चातुर्मास
प्रत्येक क्रिया काल के अनुसार करनी चाहिए-मनुष्य श्रम करता है किन्तु उसका फल पाने के लिए ‘काल’ की उपयुक्तता /अनुकूलता जरुरी है, जैसे स्वास्थ्य सुधारने के लिए सर्दी का मौसम अनुकूल माना जाता है, वैसे धर्माराधना और तप: साधना के लिए वर्षावास,चातुर्मास का समय सबसे अधिक अनुकूल माना जाता है। संपूर्ण सृष्टि के लिए वर्षाकाल सबसे महत्वपूर्ण है, इन महीनों में आकाश द्वारा जलधारा बरसाकर धरती की प्यास बुझाती है, धरती की तपन मिटाती है और भूमि की माटी को नम्र, कोमल, मुलायम बनाकर बीजों को अंकुरित करने के लिए अनुकूल बनाती है इसलिए २७ नक्षत्रों से वर्षाकाल के १०...