Category: अक्टूबर-२०१८

श्रीफल भेट 0

श्रीफल भेट

दिगम्बर जैन समाज सामाजिक संसद इंदौर के नेतृत्व में मुनि प्रमाण सागरजी एवं विराट सागरजी को १३४१ श्रीफल भेट इंदौर से १७ बसों एवं ६५ कारों का काफिला रतलाम में विराजमान शंका समाधान प्रणेता प.पु. मुनि १०८ प्रमाण सागरजी,विराट सागरजी को इंदौर पधारने का निवेदन करने विशेष धर्म सेवा दल पहुंचा, जिसमें नवनिर्वाचित अध्यक्ष नरेंद्र वैद, विमल सोगानी सहित ७३ प्रमुख पदाधिकारी की उपस्थिति में गुरुदेव को इंदौर पधारने का विनम्र निवेदन किया गया। इस महोत्सव में प्रमुख रूप से प्रदीप बड़जात्या, सुरेंद्र बाकलीवाल, सौरभ पाटौदी, राहुल सेठी, डी. के. जैन, मुकेश टोंगिया, पिंकेश टोंगिया, शकुन्तला वैद, जेनेश झांझरी, सुदीप जैन, कमल रावका, महेंद्र निगोतिया आदि उपस्थित रहे, ऐसे महाकुम्भ के प्रमुख संयोजक मनोज अनामिका बाकलीवाल, राजीव जैन, मुकेश नीलम जैन, रमेश सुशीला सामरिया, नरेश अनीता सेठिया, निलय स्वेता जैन, राहुल सेठी, धर्मेंद्र संगीता गंगवाल, साधना दगड़े, प्रेम सामरिया सहित बसों के प्रमुख संयोजकों का सहयोग अविस्मरणीय रहा।मंगलाचरण चिंतन बाकलीवाल एवं रतलाम की २२ बालिकाओं ने प्रस्तुत किया। साथ ही पूज्य मुनिराजों की १३४१ दीपकों से आरती सम्पन की गई। महोत्सव का ससक्त संचालन अनामिका मनोज बाकलीवाल ने किया, आभार अशोक काला ने माना, साथ ही इंदौर से पधारे सभी सदस्यों का धन्यवाद मनोज बाकलीवाल ने सविनय अर्पित किया।

प्राचीन पुरातत्व तीर्थों की सुरक्षा आवश्यक- निर्मलकुमार सेठी जैन 0

प्राचीन पुरातत्व तीर्थों की सुरक्षा आवश्यक- निर्मलकुमार सेठी जैन

चिकलठाणा (महाराष्ट्र) : जैन धर्म अति प्राचीन धर्मों में से एक है तथा जैन धर्म केवल भारत में ही नहीं, विश्व के कोने-कोने में जैन धर्म फैला हुआ था। अफगानिस्थान से लेकर इरान, इराक, इथोपिया, युरोप, अमेरिका आदि अनेक स्थानों पर जैन धर्म का अस्तित्व था। पुरातत्व के धर्मो से, प्राचीन तीर्थं क्षेत्रों की ‘‘सुरक्षा’’ और संरक्षण होना आवश्यक है, ऐसे भावपूर्ण उद्गार भारतवर्षिय दिगम्बर जैन महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्मल कुमार सेठी ने औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में अध्यात्मयोगी राष्ट्रसंत आचार्य १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज के सानिध्य में हिराचंद कासलीवाल प्रांगण में भारतवर्षिय दिगम्बर जैन महासभा अधिवेशन में बोल रहे थे। संयुक्त मंत्री प्रशांत टोंग्या, महाराष्ट्र अध्यक्ष सुमेरचंद काला, डि.बी. कासलीवाल डि.यु. ठोले, देवेंद्र काला, प्रकाश पाटणी व जैन गजट के राष्ट्रीय प्रतिनिधी एम.सी. जैन आदि उपस्थित थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्मल कुमार सेठी ने कहा, ‘‘गिरनारजी भारतीय जैन समाज का सिद्ध क्षेत्र है, उस पर भी अन्य समाज कब्जा जमाया हुवा है, बहुत अड़चने होती हैं, इस पर ध्यान देना होगा, आचार्य विशुद्ध सागरजी ने कहा, ‘‘पुरातत्व की रक्षा होनी चाहिए और प्राचीन क्षेत्रों का अस्तित्व सुरक्षित के लिए समाज और युवकों को ध्यान रखना होगा। ‘‘राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्मल कुमार सेठी ने पत्रकार एम.सी. जैन के स्वास्थ्य के बारे में पुछा, हाल ही में पत्रकार एम.सी. जैन का एंजिओप्लास्ट’’ हुआ था, स्वास्थ्य की ओर पुरा ध्यान देने की बात सेठी जी ने कही। ललित पाटणी, रमेश बड़जाते, दिलीप कासलीवाल, अशोक गंगवाल, प्रकाश कासलीवाल, पं. शिवचरण लालजी, पं. कमलेश, पं. दिनेशजी आदि उपस्थित थे। ‘सेलो’ ग्रुप के चेयरमेन घीसूलाल बदामिया को दर्शन सागर अवार्ड मुंबई: ‘सेलो’ ग्रुप के चेयरमेन घीसूलाल बदामिया, धुलेवा ग्रुप के मोहन जैन और प्रमुख निर्यातक जयेश जैन को इस साल का दर्शन सागर अवॉर्ड मिला है। राष्ट्रसंत आचार्य चन्द्रानन सागर सूरीश्वर महाराज के सान्निध्य में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव रघुवीर सिंह मीणा एवं राजस्थान कांग्रेस के महामंत्री नीरज डांगी के हाथों नाकोडा दर्शन धाम में सम्मानित किया गया। दर्शन सागर अवॉर्ड समिति के प्रमुख प्रवीण शाह के अनुसार देश भर में शिक्षा, चिकित्सा, जीवदया और समाजसेवा के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य के लिए राष्ट्रीय स्तर पर दिया जाने वाला यह प्रतिष्ठित सम्मान है। अवॉर्ड समिति के सदस्य मोती सेमलानी एवं निरंजन परिहार ने समारोह में मुख्य अतिथि रघुवीर सिंह मीणा एवं कांग्रेस महामंत्री नीरज डांगी का स्वागत किया। नाकोडा दर्शन धाम में आयोजित इस समारोह में ट्रस्ट मंडल के अध्यक्ष कांतिलाल शाह ने सभी का आभार जताया। आदिवासी महिलाओं को स्वावलंबी बनाने हेतु ट्रस्ट मंडल की ओर से सिलाई मशीनें वितरित की गर्इं। नाकोडा दर्शन धाम में आयोजित इस समारोह में देश के कई राज्यों से आए करीब डेढ़ हजार दर्शन भक्तों की उपस्थिति में मेरे गुरूवर दर्शन सागर ग्रंथ एवं भक्ति संगीत की सीडी का विमोचन भी हुआ, अवॉर्ड समिति के प्रमुख प्रवीण शाह के मुताबिक समारोह में मीरा-भायंदर की पूर्व महापौर गीता जैन सहित उद्योग, व्यापार जगत के कई प्रमुख लोग उपस्थित थे। समारोह का संचालन ओजस्वी वक्ता ओम आचार्य ने किया एवं संगीतकार नरेंद्र वाणीगोता ने भक्ति रस से सराबोर संगीत का संयोजन किया। सागर समुदाय के गच्छाधिपति रहे आचार्य दर्शन सागर सूरीश्वरजी महाराज की पुण्यतिथि पर पिछले तेरह सालों से हर साल दिया जानेवाले राष्ट्रीय स्तर के अवॉर्ड समारोह का समापन राष्ट्रसंत आचार्य चन्द्रानन सागर सूरीश्वर महाराज के महामांगलिक प्रवचन से हुआ। खजुराहो में आयोजित होगा सद्भावना सम्मेलन, १४ अक्टूबर को होगा आयोजन जरूर देखें मार्गदर्शन करें खजुराहो : संत शिरोमणि आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में हथकरघा के प्रचार-प्रसार के लिए पहली बार सम्मेलन का आयोजन हो रहा है, जिसका नाम ‘सद्भावना सम्मेलन’ दिया गया है। १४ अक्टूबर को आयोजित होने वाले इस सम्मेलन की तैयारी जोरों पर है, इस आयोजन के लिए सम्पूर्ण विश्व से हज़ारों श्रद्धालुओं के शामिल होने का अनुमान जताया जा रहा है, कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण होगा प्रातःकालीन पूजा जिसमें सभी हथकरघा निर्मित वध्Eा पहनेंगे। दोपहर में राष्ट्रीय स्तरीय हथकरधा वेशभूषा प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें भारत के सभी राज्यों से प्रतिभागी भाग ले रहे हैं। आचार्य श्री के मंगल प्रवचन एवं केंद्रीय जेल सागर के कैदियों द्वारा भव्य नाटिका का भी मंचन होगा एवं प्रज्ञाचक्षु कलाकारों द्वारा भव्य भजन संध्या का भी आयोजन किया गया है, अधिक जानकारी के लिये संपर्क करें- -रेखा जैन भ्रमणध्वनि: ७०००७३९३५१, ९६५०७१२८८० ध्रुव आर. जैन, आगरा (सद्भावना सम्मेलन की ओर से प्रतिनिधि)

चातुर्मास संदेश 0

चातुर्मास संदेश

प्रति वर्ष की भांति वर्षावास जारी है। भगवान महावीर से लेकर वर्तमान तक सभी साधु-साध्वी वृन्द चातुर्मास में चार माह एक स्थान पर रहकर आराधना में रत रहते हैं। विहरमान अरिहंत परमात्मा भी चार माह के चातुर्मास करते हैं, इस काल में एक स्थान पर रहकर त्रिगुप्ति की विशेष आराधना की जाती है। आवश्यक प्रवृति समितिपूर्वक करें क्योंकि इस काल में वातावरण के अन्तर्गत अत्याधिक त्रास व स्थावर जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, उनकी रक्षा व आत्म-साधना का अवसर है चातुर्मास, देश भर में सभी साधु-साध्वियों के आध्यात्मिक चातुर्मास पर हार्दिक मंगलभावना यह है कि आप सभी का यह चातुर्मास वीतराग-धर्म को फैलाने में सार्थक हो, हर तरफ आनंद, शांति, सुख, समृद्धि का वातावरण बनें, पूरे विश्व में भगवान महावीर की वीतरागता का प्रचार हो। चतुवर्ध संघ इस वर्ष को अपरिग्रह वर्ष के रूप में मना रहा है, श्रावक वर्ग व्यक्ति, वस्तु एवं स्थान से ममत्व छोड़ने हेतु पुराना जो भी परिग्रह है, उसमें से यथाशक्ति सहधर्मी बन्धुओं के सहयोग, शिक्षा, सेवा हेतु अपने धन का उपयोग करें, आवश्यकता से ज्यादा संग्रह न करें, जो है उसके प्रति तथा शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करते हुए भेद-ज्ञान की साधना में आत्मा को महत्व दें। चतुवर्ध संघ के लिए निर्देश है कि सभी अधिकांश समय साधना को दें। भगवान ने स्वयं साढ़े बारह वर्ष मौन-ध्यान साधना में व्यतीत किये तथा भगवान महावीर के दस श्रावकों ने भी साधना को प्रमुखता दी। आत्मा के ऊपर अनन्त कर्म का परिग्रह लगा है, उसकी सफाई करनी है। प्रत्येक साधक कत्र्ताभाव का त्याग करे, इस चातुर्मास में हम आत्मदृष्टि को प्राप्त करते हुए अपना मोक्ष मार्ग प्रशस्त करें। आप सबका चातुर्मास आध्यात्मिक हो, मंगलमय हो, सभी कर्म-निर्जरा करते हुए सिद्धालय की ओर बढ़ें, यही हार्दिक मंगल कामना है! वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चातुर्मास एक सामाजिक रूप लेता जा रहा है, इस काल में साधु-साध्वियों के दर्शनार्थ पूरे देश में हजारों की संख्या में धार्मिक बंधु यात्रा करने लग गये हैं, हर चातुर्मास स्थल एक तीर्थ क्षेत्र बन जाता है। स्थानीय समाज सहधर्मी बंधुओं की सेवा में उत्कृष्ट भावनाओं से सेवारत रहता है और आतिथ्य सेवा कर प्रमोद भावना से भावित होता है, यह समाज में सेवा, भावना का उत्कृष्ट उदाहरण है किन्तु इसमें कई जगहों पर विकृतियां भी आती जा रही हैं, एक संघ दूसरे संघ से अपना नाम बड़ा करने में अपने क्षेत्र में कुछ विशेष करना चाहता है, इस प्रतिस्पर्धा में समाज में फिजूलखर्ची बढ़ती जा रही है, सात्विक भोजन, राजसी भोजन का रूप लेता जा रहा है, शिकायत भाव भी बढ़ता जा रहा है, तीर्थयात्री विशेष अतिथि की तरह विशेष सुविधाओं की मांग करने लगे हैं, भोजन करने एवं संघ की अतिथि सेवा के बदले दान की वृत्ति लुप्त होती जा रही है, ऐसे समय में समाज अपनी प्रवृत्ति पर ध्यान दे। चातुर्मास के लिए विशेष संदेश – प्रत्येक साधक आत्मार्थ को मुख्यता दे, आत्र्त व रौद्र ध्यान को त्यागें अर्थात् अहंकार वाले ‘मैं’ को अज्ञानवश मानते हुए ‘मेरे’ का ध्यान छोड़कर, ‘स्व’ स्वरूप का ध्यान कर आनंद, शान्ति, ज्ञान की आराधना करें, अन्तत: सभी नकारात्मक व सकारात्मक भावों का निपटारा कर शुक्ल ध्यान की ओर बढ़ें, आने वाले आश्रवों को रोकने के लिए संवर अर्थात् जिनशासन की मर्यादाओं का उत्कृष्ट भावना से पालन कर बाह्य व आभ्यांतर तप की साधना के द्वारा मुक्ति की ओर अग्रसर हों। ज्ञाता-दृष्टा भाव में रहकर होषपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए भगवान महावीर की वीतरागता को जीवन में लाकर, अपने जीवन को आनन्दित करें। – आचार्य श्री शिवमुनि

आचार्य अनेकांत सागर जी महाराज ससंघ की शोभा यात्रा 0

आचार्य अनेकांत सागर जी महाराज ससंघ की शोभा यात्रा

इंदौर के धर्म प्रेमी समाज ने शानदार गुरु भक्ति का परिचय दिया। समाज जनों के अविस्मरणीय सहयोग से पुलक मंच परिवार ने एक नया इतिहास रचा। चारित्र चक्रवर्ती परम् पुज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की अक्षुण परम्परा के सप्तम पट्टाचार्य परम् पुज्य आचार्य श्री अनेकान्त सागर जी महाराज ससंघ, तीन मुनिराज, पांच माताजी, एक क्षुल्लक जी आदि ९ पिच्छी धारी साधु-संतों का माँ अहिल्या की नगरी इंदौर शहर में अखिल भारतीय पुलक जन चेतना मंच एवम राष्ट्रीय जैन महिला जागृति मंच, इंदौर के तत्वावधान एवम आचार्य ससंघ के पावन सानिध्य में माणक चोक मन्दिर राजवाड़ा से भव्य विशाल शोभा यात्रा निकली जो कि खजूरी बाजार, गोराकुण्ड, मल्हारगंज, मोदी जी की नसिया, बड़े गणपति होती हुई नरसिंह वाटिका परिसर, रामचन्द्र नगर एरोड्रम रोड पर पहुंच कर विशाल धर्म सभा में परिवर्तित शोभा यात्रा की लंबाई इतनी बड़ी थी कि एक सिरा राजवाड़ा तो दूसरा सिरा गोराकुण्ड से आगे तक पहुंच गया, समाजजनों में बहुत ही गजब का उत्साह था। जुलुस मार्ग में सैकड़ों जगह आचार्य श्री का पाद पक्षालन एवम आरती कर समाजजन गदगद हुए। शोभा यात्रा में इंदौर से बाहर खण्डवा पुणे सहित राजस्थान एवम महाराष्ट्र के अनेक शहरों के गुरु भक्त उपस्थित हुए। शोभा यात्रा में पुलक मंच परिवार ने मंच की गौरवशाली ड्रेस कोड में उपस्थित होकर मंच की एकता एवम् समर्पण का परिचय दिया। इंदौर महिला मंच परिवार ने बहुत ही शानदार उपस्थिति दर्ज करवाकर मंच का नाम गौरान्वित किया, महिला संघटन सोशल गु्रप एवम मन्दिर क्षेत्रों के सदस्यों ने बहुत ही शानदार प्रस्तुति देकर गुरु भक्ति का परिचय दिया। बालिका मंचों की प्रस्तुति एवम अन्य कई आकर्षणों को देखकर समाजजन चकित रह गए। क्षेत्रीय विधायक सुदर्शन गुप्ता, विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष हुकम चन्द सावला सहित इंदौर समाज के लगभग सभी समाज श्रेष्ठियों ने आचार्य संघ की भव्य आगवानी की। बैंड-बाजे, घोड़े डी जे सेट से सजी इस शोभा यात्रा में हजारों समाजजनों ने उपस्थित होकर शानदार गुरु भक्ति का परिचय दिया। हम नहीं दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरह पंथी हम एक पंथ के अनुयायी एक देव के विश्वासी श्री जैन श्वेताम्बर खतरगच्छ श्री संघ के तत्वाधान में महावीर बाग एरोड्रम रोड इंदौर परिसर में शहर में विराजित समग्र जैन समाज के सन्तों के पावन सानिध्य में स्वाधीनता, दिवस पर बहुत ही भव्यता के साथ मनाया गया, इस अवसर पर दिगम्बर जैन आचार्य श्री अनेकांत सागर जी महामुनिराज ससंघ एवम श्वेताम्बर जैन आचार्य श्री जिनमणिप्रभ सुरि जी, श्री गौतम मुनि जी, श्री शांतिमुनि जी, मुनि श्री मुक्ति सागर जी एवम साध्वी मयणा श्रीजी सहित अनेक पुज्य साधु-साध्वी उपस्थित थे, इस अवसर पर श्वेताम्बर जैन समाज एवम संस्थायें, दिगम्बर जैन समाज, दिगम्बर जैन सामाजिक संसद अध्यक्ष नरेन्द्र वेद, पुलक मंच परिवार, महासमिति के पदाधिकारियों सदस्यों सहित हजारों समाजजनों ने उपस्थित होकर कार्यक्रम का गौरव बढ़ाया, इस ऐतिहासिक कार्यक्रम के आयोजक समिति के ललित जैन एवम् प्रदीप चौधरी सहित पूरी समिति को बहुत-बहुत बधाई।

जैन श्रावकाचार की सामाजिक प्रासंगिकता 0

जैन श्रावकाचार की सामाजिक प्रासंगिकता

भगवान महावीर के आचार दर्शन का आधार समता है, आयारों में कहा गया-‘समियाए धम्मे’, अर्थात् समता से भिन्न धर्म नहीं हो सकता, जो समतावान् होता है वह पापकारी प्रवृत्ति नहीं कर सकता, वास्तव में रागद्वेष रहित कर्म ही आचार है, जिस व्यक्ति के व्यवहार में रागद्वेष की जितनी प्रबलता होगी उसका आचार एवं व्यवहार उतना ही अधिक दूषित होगा, इसलिए आचार की उच्चता के लिए समत्व में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है। समता दो प्रकार की है-स्वनिश्रित और परनिश्रित, राग और द्वेष के उपशमन के द्वारा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में संतुलित अनुभूति करना स्वानिश्रित समता है, सब प्राणी सुख के इच्छुक और दु:ख के विरोधी हैं, इसलिए कोई भी वध योग्य नहीं है, यह आत्मतुला पर निश्रित समता है, स्वनिश्रित समता की सिद्धि के लिए भगवान ने कषाय के उपशमन का उपदेश दिया पर-निश्रित समता की सिद्धि के लिए प्राणातिपात आदि पापों से विरत होने का उपदेश दिया। स्वाश्रित समता आत्मशुद्धिपरक है एवं पराश्रित समता जीवनशुद्धि एवं सामाजिक व्यवहार पर आश्रित है। जैन आचार का यह वैशिष्ट्य है कि यह निश्चय और व्यवहार में संतुलन बनाए हुए है, फलस्वरूप आत्माराधना समाज के विकास में सहयोगी बन जाती है। जैन आचार का आधार रत्नत्रय : जैन आचार की पूर्व भूमिका है-ज्ञान। ज्ञानशून्य आचार को वहां कोई महत्त्व प्राप्त नहीं हैं। अहिंसा की अनुपालना ज्ञानपूर्वक ही संभव है। दशवैकालिक सूत्र में ठीक ही कहा गया कि जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा? अर्थात् अज्ञानी के लिए संयम का आचरण असंभव है, पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जीव क्या है, अजीव क्या है? यह जानने के बाद ही अहिंसा की अनुपालना सरलता से हो सकती है। आचार्य उमास्वाति ने ठीक ही कहा कि ‘सम्यगदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’ अर्थात् सम्यक दृष्टिकोण, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चारित्र तीनों का समन्वित रूप ही मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है। जैन आचार की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि इसके संपूर्ण सिद्धान्त अनेकांत पर आश्रित है, केवल ज्ञान अथवा केवल दर्शन अथवा केवल चारित्र-एकांकी मार्ग से मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष: अर्थात् ज्ञान एवं क्रिया का समन्वयक ही परम लक्ष्य को प्राप्त करा सकता है। भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग एवं आचारमार्ग की एकांकी प्ररूपणा से हटकर जैनदर्शन त्रिवेणी संगम को आचार की पराकाष्ठा स्वीकार करता है। ज्ञान का फल है-अहिंसक आचरण, वही ज्ञान सम्यक होता है, जिसकी पूर्णता अहिंसा में हो, जिस ज्ञान से हिंसा की उत्प्रेरणा मिलती हो, हिंसा की साधन सामग्री विकसित होती हो, वह ज्ञान नहीं, ज्ञानाभास है। संसार परिभ्रमण का हेतु है। वास्तविक ज्ञानी तो वही है जो समता एवं अहिंसा की अनुपालना करता है। सूत्रकृतांग में कहा है-ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है, अत: स्पष्ट हो गया कि अहिंसा ही परम आचार है जिस पर जैन दर्शन के संपूर्ण सिद्धान्त टिके हुए हैं और यह अहिंसा समता के आधार पर विकसित होती है, जैसे मुझे दु:ख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को दु:ख अप्रिय है, इस समता का अनुभव जितना विकसित होता है उतनी ही अहिंसा विकसित होती है और समाज में यदि इस आत्मौपम्य की चेतना जागृत हो जाए तो वर्तमान में व्याप्त आतंकवाद, बलात्कार, भ्रष्टाचार, अमानवीय व्यवहार को स्वयं विराम मिल जाएगा। भगवान महावीर ने आचार के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी चिन्तन प्रस्तुत किया, उन्होंने यह स्पष्ट कहा कि गृहस्थ समाज में रहता हुआ, संपूर्ण अहिंसा व्रत का पालन नहीं कर सकता, अत: उन्होंने दो प्रकार के आचार की परूपणा की ‘श्रमणाचार एवं श्रावकाचार’ श्रमण के लिए पांच महाव्रतों का देशकाल निरपेक्ष होकर त्रिकाल में पालन अनिवार्य है जबकि श्रावक के लिए १२ अणुव्रतों का देशकाल एवं क्षमता सापेक्ष पालन करने का प्रावधान है। बारह अणुव्रतों की सामाजिक प्रासंगिकता : जैन आगमों में हर गृहस्थ के लिए पांच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत का प्रावधान कर भगवान महावीर ने स्वस्थ, शान्त, समृद्ध एवं अहिंसक समाज संरचना का सूत्र हाथों में थमा दिया। पांच अणुव्रत, जो जैन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित है-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, स्वदार संतोष एवं इच्छा परिमाण-ये पांचों व्रत न केवल आत्मकल्याण के लिए उपयोगी हैं अपितु समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याण के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है, अब क्रमश: प्रत्येक अणुव्रत की वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में सामाजिक प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला जाएगा। १. अहिंसा अणुव्रत:- अहिंसक समाज की संरचना के प्रथम सोपान पर अहिंसा की न्यूनतम मर्यादा का पालन करने वाला व्यक्ति कम से कम चलने-फिरने वाले स्थूल जीवों की हिंसा नहीं करेगा, निरपराधी को समाप्त करने का प्रयास नहीं करेगा और बिना प्रयोजन किसी को संकल्प पूर्वक नहीं मारेगा। भगवान महावीर ने गृहस्थ के लिए आरंभजा हिंसा एवं विरोधजा हिंसा का परिहार नहीं किया, अपितु संकल्पजा हिंसा का निषेध किया है, उनका यह स्पष्ट चिन्तन था कि महारंभी जीवन शैली स्वस्थ समाज के लिए काम्य नहीं हो सकती। अनारंभी जीवन शैली सामाजिक प्राणी के लिए संभव नहीं हो सकती। बीच का रास्ता है-अल्पारंभ का। अल्पारंभ का अर्थ है- हिंसा का अल्पीकरण, इस छोटे से व्रत को व्यापक रूप में अपना लिया जाए तो वर्तमान विश्व की ज्वलन्त समस्या, आतंकवाद के समाधान की दिशा प्रशस्त हो सकती है, उसकी जड़ें उखड़ सकती हैं। भगवान महावीर का युग कृषि प्रधान युग था, उस समय खेती मुख्यत: पशुओं पर आधारित थी, एक दृष्टि से खेती और पशु अभिन्न से हो गए थे। पशुओं के प्रति किसी प्रकार का क्रूर व्यवहार न हो, इस बिन्दु पर भगवान ने बल दिया। स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत के पांच अतिचार महावीर युग में पशुहिंसा के पांच रूप में अधिक प्रचलित थे, वे इस प्रकार है- वध – निर्दयता से मार-पीट करना। बंधन – गाढ़ बन्धन से बांधना। अंग – भंग-चमड़ी उतारना और नाक-कान आदि अवयव काटना। अतिभार – बहुत अधिक भार लादना। वृत्ति-विच्छेद – अपने आश्रित प्राणी के खान-पान या आजीविका में कटौती करना। आजकल कृषि की स्थिति बदल चुकी है फिर भी पशुओं के प्रति क्रूर व्यवहार छूट नहीं पाया है, पशु पर अतिभार लादने की बात आज भी चलती है। क्रूरता के अन्य कारणों में मनोरंजन, प्रसाधन सामग्री एवं चिकित्सा को लिया जा सकता है। सांडों की लड़ाई, मुर्गो की लड़ाई इत्यादि रईस लोगों की शौकीया वृत्ति की परिणितियां है। प्रसाधन सामग्री का निर्माण करने के लिए थोड़े से लोगों की विलासी मनोवृत्ति के लिए छोटे-बड़े निरीह प्राणियों को जिस क्रूरता से मारा जाता है वह निश्चित ही मानव सभ्यता के लिए एक महाकलंक है, चिकित्सा के क्षेत्र में ई-शोध भी एक ऐसा ही नशा है, उस निमित्त से आज तक एक-एक वैज्ञानिक हजारों-हजारों मेंढ़क, चूहों और बन्दरों को बलि का बकरा बना देता है जो सर्वथा अवांछनीय एवं त्याज्य है। अहिंसा के लिए आवश्यक है- संवेदनशीलता, दूसरों को कष्ट देते समय यह अनुभूति हो जाए कि यह कष्ट मैं दूसरों को नहीं स्वयं को दे रहा हूं, जिस समाज में संवेदनशीलता नहीं है, वह समाज अपराधियों, हत्यारों या क्रूरता के खेल-खेलने वालों का समाज बन जाता है। अणुव्रती समाज में संवेदनशीलता का विकास होता है जिसके कारण क्रूरता जनित समस्याओं से निजात मिल सकता है। अहिंसा अणुव्रत पालन करने का सबसे पहला परिणाम होता है-पर्यावरण के प्रदूषण की समाप्ति। आज पर्यावरण का प्रदूषण बढ़ा है, उसमें अनावश्यक हिंसा का बहुत बड़ा हाथ है, कितना पानी का अपव्यय, कितने जंगलों की कटाई, कितने पशु-पक्षियों का निर्ममता से शिकार करने से अनेकों प्रजातियों का नष्ट होना, अनावश्यक भूमि का खनन एवं दोहन-यह सब अपने स्वार्थ के लिए इतनी मात्रा में हो रहा है कि वातावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है। पृथ्वी पर मानव अस्तित्व की सुरक्षा एवं शांति, अहिंसा अणुव्रत के सम्यक पालन से ही संभव है। अहिंसा अणुव्रती कभी भी आत्महत्या, भ्रूणहत्या, परहत्या नहीं करेगा, आत्मपीड़न, पर-पीड़न नहीं देगा। मन, वचन एवं काया से हिंसात्मक प्रवृत्तियों से बचेगा, जिससे समाज में शांति, समरसता, संवेदनशीलता एवं आपसी सौहार्द का विकास होगा। २. सत्य अणुव्रत : एक श्रावक अहिंसा अणुव्रत का पालन करता है तो उसे सत्यनिष्ठ बनना होगा, मृषावाद का वर्जन करना होगा। मृषा (झूठ) संभाषण के मुख्यत: चार कारण माने गए हैं-क्रोध, लोभ, भय और हास्य, इन कारणों की तीव्रता को नियन्त्रित करने से सहज रूप से सत्य की साधना हो सकती है। सत्य अणुव्रत का पालन करने वाला श्रावक पुष्ट आधार के बिना किसी पर दोष का आरोपण नहीं करता, किसी के लिए अहितकारक असत्य नहीं बोलता, किसी के गोपनीय रहस्य का उद्घाटन नहीं करता, किसी को गलत पथदर्शन नहीं देता और झूठी साक्षी नहीं देता व झूठा हस्ताक्षर भी नहीं लिखता, इनमें से एक भी आचरण करने वाला न केवल व्रत भंग का अपितु सरकार की कानून के तहत् भी अपराधी होता है एवं विविध प्रकार के दण्ड का भागी बनता है, पर सत्य अणुव्रत का पालक न केवल अपराध मुक्त समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, अपितु समाज में विश्वास का पात्र बनता है और विश्वास सत्य के बिना नहीं होता, समाज के सारे व्यवहार का आधार सत्य है, उसके बिना एक दिन भी लेन-देन का बाजार नहीं चल सकता। आर्थिक व्यापार एवं आर्थिक बाजार का विकास सत्य पर ही टिका हुआ है। ३. अचौर्य अणुव्रत : श्रावकाचार में अचौर्य अणुव्रत की महत्ती उपयोगिता है, इस व्रत के अनुसार चोरवृत्ति से किसी दूसरे की वस्तु उठाने से अचौर्य अणुव्रत भंग होता है, किन्तु गहराई से विचार करने पर ज्ञात होता है कि अनैतिकता या अप्रामाणिकता की वृत्ति ही चोरी है, जब तक मनुष्य में नैतिकता की चेतना जाग्रत नहीं होती, वह आर्थिक अपराधों से नहीं बच सकता, नैतिकता का विकास तभी संभव है जब कोई भी मनुष्य दूसरे के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार न करे। क्रूरतापूर्ण व्यवहार दो तरह से हो सकता है-शरीर के संदर्भ में और आर्थिक संदर्भ में, शारीरिक स्तर पर की जाने वाली क्रूरता का समावेश हिंसा में होता है। आर्थिक मामले में बरती जाने वाली क्रूरता जैसे बच्चों की खाद्य-पेय सामग्री में मिलावट, दवाओं में मिलावट, सामान्य खाद्य-पेय पदार्थों में मिलावट करना, भ्रष्टाचार करना, झूठा माप-तोल कर ग्राहकों को धोखा देना, टेक्स की चोरी करना, राज्य निषिद्ध वस्तुओं का आयात-निर्यात करना इत्यादि चोरी से बचने की मनोवृति का सम्बन्ध अचौर्य अणुव्रत के साथ ही है, इस प्रकार अचौर्य अणुव्रती नैतिक मूल्यों के विकास में एवं भ्रष्टाचार-क्रूरता मुक्त समाज निर्माण में आदर्श नागरिक की भूमिका अदा कर सकता है। ४. स्वदार संतोष व्रत : गृहस्थ के साधनाक्रम में ‘‘स्वदार सन्तोष’’ (अपनी पत्नी से संतोष करना) का प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है, इस प्रयोग से उन्मुक्त वासना सिमटकर एक बिन्दु पर केन्द्रित हो जाती है, विवाह संस्था के दृढ़ीकरण में ‘स्वदार संतोष’ व्रत की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है, जिस समाज या पाश्चात्य संस्कृति में इस प्रकार के व्रत का मूल्य नहीं है, वहां विग्रह के बाद भी उच्छृंखल यौनाचार चलता है। विवाह पूर्व और विवाहेत्तर यौन सम्बन्धों के कारण, वेश्या गमन एवं परस्त्री गमन के कारण पति-पत्नी में आपसी कलह की स्थिति पैदा होती है और परिवार टूट जाते हैं, इस दृष्टि से स्वदार संतोषव्रत को पारिवारिक जीवन का आधार माना जा सकता है। पाश्चात्य अपसंस्कृति के प्रभाव में आकर पूर्वी राष्ट्र भी अपने उन्मुक्त भोग से उत्पन्न होने वाली समस्याएं जैसे पारिवारिक विघटन, तलाक, यौन-शोषण, बलात्कार, क्रूरतापूर्ण कर्म, यौन व्यापार आदि में लिप्त पाए जा रहे हैं। एड्स जैसी जानलेवा बीमारी का मुख्य कारण इसी को माना जाता है, अत: स्वदार संतोष व्रत न केवल यौन उच्छृंखलता पर नियंत्रण कायम कर सकता है अपितु समाज में शांतिपूर्ण सहवास के वातावरण का निर्माण कर सकता है। ५. अपरिग्रह अणुव्रत : आर्थिक आपाधापी के इस युग में आत्मविस्मृति अपने अति के बिन्दु तक पहुंच गई है, आज सारा समाज परिग्रह की आसक्ति के दुष्परिणाम भुगत रहा है। चारों ओर स्वार्थ की दौड़-भाग मची हुई है, सभी स्वकेन्द्रित चिन्तन कर रहे हैं-मैं सुखी रहूं, मेरा परिवार सुखी रहे-इस आकांक्षा को साकार रूप देने के लिए धनार्जन की अंधी दौड़ में भागता जा रहा है। धनार्जन जो जीवन जीने के लिए उपयोगी साधन था, आज उसने साध्य का स्थान बना लिया है, सारी समस्याओं की जड़ है-धन को केन्द्र में रखकर कार्य करना, फलत: समाज में संग्रह वृत्ति बढ़ रही है। संग्रह वृत्ति के कारण आसक्ति अथवा तृष्णा बढ़ रही हैं, जिसके फलस्वरूप समाज में अपहरण, शोषण, अनियन्त्रित भोग एवं आर्थिक वैषम्य बढ़ रहा है। भगवान ने इन सबकी समाप्ति के लिए मानव जाति को इच्छापरिमाण एवं अपरिग्रह का सन्देश दिया है। सामाजिक जीवन में जो भी विषमता और संघर्ष वर्तमान में हैं, उन सबके पीछे कहीं न कहीं अनियन्त्रित आवेश, अहंकार, छल-छद्म (कपट-वृत्ति) तथा संग्रह-वृत्ति है, इन्हीं अनियन्त्रित कषायों के कारण सामाजिक जीवन में विषमता और अशान्ति उत्पन्न होती है, आवेश या अनियन्त्रित क्रोध के कारण पारस्परिक संघर्ष, आक्रमण, युद्ध एवं हत्याएं होती हैं, आवेशपूर्ण व्यवहार दूसरों के मन में अविश्वास उत्पन्न करता है और फलत: सामान्य जीवन में जो सौहार्द होना चाहिए, वह भंग हो जाता है। वर्ग या अहंकार की मनोवृत्ति के कारण ऊंच-नीच का भेद-भाव, पारस्परिक-घृणा और विद्वेष पनपते हैं। सामाजिक जीवन में जो दरारें उत्पन्न होती हैं, उनका आधार अहंकार भी होता है। माया या कपट की मनोवृत्ति भी जीवन को छल-छद्म से युक्त बनाती है, इससे जीवन में दोहरापन आता है तथा अन्त: बाह्य की एकरूपता समाप्त हो जाती है, फलत: मानसिक एवं सामाजिक शांति भंग होती है। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण और व्यावसायिक जीवन में अप्रमाणिकता फलित होती है। महावीर भगवान ने बताया कि ‘‘इच्छा हु आगास समा अणंतिया“ अर्थात् इच्छा आकाश के समान अनन्त है। मनुष्य अपनी संग्रह वृत्ति को इच्छा परिमाणव्रत द्वारा या परिग्रह-परिमाण व्रत के द्वारा नियन्त्रित करे। महावीर ने कभी नहीं कहा कि एक गृहस्थ के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक है, उन्होंने परिग्रह की कोई निश्चित सीमा-रेखा नियत नहीं की अपितु उसे व्यक्ति के स्वविवेक पर छोड़ दिया, इसका जीवन्त उदाहरण है-उपासकदशा में वर्णित आनन्द आदि दसों श्रावकों का जीवन, जिन्होंने समृद्ध होने पर भी स्व विवेक से किस प्रकार जमीन-जायदाद, बहुमूल्य वस्तुएं, धन-धान्य, पशु एवं अन्य छोटी से छोटी वस्तुओं की सीमा रेखा निर्धारित की एवं स्वेच्छा से संयम किया, अत: आचार्य तुलसी के अनुसार गृहस्थ के संदर्भ में अपरिग्रह के तीन सूत्र बनते हैं- १. अर्जन में नैतिकता-अशुद्ध साधन का उपयोग नहीं करना २. अर्जन की सीमा-अमुक स्थिति तक पहुंचने के बाद व्यवसाय से मुक्त होना ३. अर्जित सम्पत्ति के व्यक्तिगत भोग का संयम करना इस प्रकार हर गृहस्थ परिग्रह परिमाण व्रत द्वारा न केवल अर्थ के अर्जन एवं भोग का संयम करता है अपितु अर्थ की आसक्ति एवं अहं से भी बचाता है, जिसके परिणाम स्वरूप परिवार-समाज में दहेज को लेकर होने वाली हत्याएं एवं विविध प्रकार के तनाव को विराम मिल सकता है। शोषण, अपराध चेतना, अपहरण, क्रूरतापूर्ण व्यवहार, अमानवीय व्यवहार, आर्थिक वैषम्य से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियात्मक हिंसा, प्रदर्शन की वृत्ति इत्यादि आज सामान्य जनता में प्रतिशोध की भावना उत्पन्न करती है, इन सारी समस्याओं का समाधान इच्छापरिमाण व्रत से स्वत: हो जायेगा एवं शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व सम्पन्न समाज का सपना साकार हो सकेगा, इस प्रकार हम कह सकते हैं कि श्रावक-जीवन में इच्छा परिमाण एवं कषाय-चतुष्टय पर जो नियन्त्रण लगाने की बात कही गई है, वह सौहार्द एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन एवं मानसिक तथा सामाजिक शान्ति के लिये आवश्यक है, उसकी प्रासंगिकता कभी भी नकारी नहीं जा सकती। तीन गुणव्रत : पांच अणुव्रत के बाद श्रावक के लिए तीन गुणुव्रत बतलाए गए हैं। १. दिग् व्रत- गमनागमन के लिए क्षेत्र का सीमाकरण २. भोगोपभोग – खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने आदि के काम आने वाली वस्तुओं का संयम ३. अनर्थदण्डव्रत- बिना प्रयोजन हिंसा से बचना एवं अनावश्यक हिंसा का परित्याग करना आचार्य तुलसी के शब्दों में जैसे तम्बू तानने के लिए जमीन में कुछ खूंटिया गाड़नी पड़ती हैं, खूंटियों के आलम्बन बिना तम्बू टिक नहीं सकता, उसी प्रकार इच्छापरिमाण एक तम्बू है, उसे टिकाने के लिए तीन खूंटियों की अनिवार्यता है, इस प्रकार इन तीन व्रतों या नियमों को स्वीकार किए बिना इच्छाओं को सीमित करने का संकल्प फलित नहीं हो सकता। ६. दिग्व्रत- साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के दो रूप हैं-क्षेत्र-विस्तार और व्यापार विस्तार। प्राचीन काल में क्षेत्रीय उपनिवेशवाद का प्रचलन था, आज उसका स्थान व्यावसायिक उपनिवेशवाद ने ले लिया है। वर्तमान परिस्थितियों में सामान्यत: कोई भी राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर सीधा अधिकार करना नहीं चाहता, किन्तु व्यापार पर अपना कब्जा करने के अवसर खोजता रहता है। बहुउद्देशीय कम्पनियों की घुसपैठ भी आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने के लक्ष्य से हो रही है, ऐसा माना जाता है, किसी भी राष्ट्र में व्यावसायिक प्रभुत्व के विस्तार को रोकने में दिगव्रत एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। दिग् परिमाण व्रत स्वीकार करने वाला अपने अर्थोपार्जन एवं विषयभोग का क्षेत्र छहों/चारों दिशाओं में निर्धारित करता है, जिसके फलस्वरूप अर्थलोलुपता एवं विषय तृष्णा की पूर्ति हेतु देश-विदेश में भटकन की मनोवृत्ति पर स्वत: नियंत्रण स्थापित हो जाता है। यद्यपि वर्तमान तीव्र संचार तकनीकी के युग में कहा जा सकता है कि इस प्रकार के व्रत की आज क्या प्रासंगिकता हो सकती है, इस व्रत के द्वारा अनियंत्रित आकांक्षाओं पर अंकुश लगता है, स्वदेश प्रेम एवं स्वावलम्बन का विकास होता है, अनावश्यक हिंसा एवं परिग्रह पर स्वत: नियंत्रण हो जाता है। निर्धारित क्षेत्र से बाहर यातायात की सीमा करने से उन क्षेत्रों में होने वाले समस्त आरम्भ-समारंभ के पाप से न केवल व्यक्ति बचता है अपितु सन्तोष वृत्ति का विकास करता है, जो सुखी जीवन का आधार सूत्र है। ७. भोगोपभोग परिमाण व्रत : श्रावक के व्यक्तिगत जीवन में स्वेच्छा से भोगोपभोग वृत्ति पर अंकुश लगाना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। आज के भोगवादी संस्कृति के युग में इस व्रत की उपयोगिता को कोई विचारशील व्यक्ति अस्वीकार नहीं करेगा। आज भोगोपभोग सामग्री की जितनी विधाएं विकसित हुई हैं, उस भूल-भूलैया में व्यक्ति बाजार में जाने के बाद जेब खाली किए बिना नहीं लौट पाता है। छोटी से छोटी साबुन से लेकर बड़ी से बड़ी वस्तुओं की इतनी विविधताएं है कि व्यक्ति का दिमाग चकरा जाता है क्या खरीदें और क्या न खरीदें? आनन्द श्रावक ने किस प्रकार विलेपन, हस्त प्रोच्छन, मुखवास जैसी छोटी-छोटी वस्तुओं का संयम कर स्वादवृत्ति, आसक्ति एवं उच्छृंखल भोग पर अंकुश लगाया, इस व्रत से स्वादवृत्ति के कारण बढ़ने वाली बीमारियों पर रोकथाम संभव है एवं अनावश्यक धारण करने के वस्त्र, दैनन्दिन प्रयोग में आने वाली नई साधन-सामग्री बर्तन, चद्दर, फ्रीज इत्यादि सारी सुविधाजनक सामग्री के संग्रह एवं आसक्ति पर नियंत्रण होगा एवं अभावग्रस्त को पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो सकती है। जैन आचार्यों ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक तरीके से यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया कि गृहस्थ को समाज में जीने के लिए आजीविका का उपार्जन अनिवार्य है, पर जिस व्यवसाय में महाहिंसा होती है जिन्हें १५ कर्मादान नाम से जाना जाता है, वैसे व्यवसाय से आजीविका अर्जित करना निषिद्ध माना गया है। महावीर द्वारा १५ महाहिंसात्मक व्यवसायों का निषेध वास्तव में आज के संदर्भ में देखा जाये तो बड़ा प्रासंगिक प्रतीत होता है, यहां मात्र उसकी वर्तमान युग में किस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं से निजात पाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है उसका विश्लेषण किया जा रहा है। वनकर्म अर्थात् जंगल कटवाने का व्यवसाय, अंगार कर्म में अग्नि प्रज्ज्वलित करके किये जाने वाले सारे व्यवसायों को निषेध किया गया है। आज बड़े-बड़े कारखानों में महाहिंसा के साथ-साथ निकलने वाले धूएं से जिस प्रकार शहरों में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है एवं ओजोन की छत में भी छेद बढ़ता जा रहा है, साथ ही फर्नीचर साज-सज्जा के लिए जंगलों की कटाई जिस कदर से हो रही है यह अनुमान लगाया जा रहा है कि भविष्य में वर्षा का स्रोत सूख जाने से तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा। साथ ही दन्त, रस, विष, केश एवं यन्त्रपीड़न आदि व्यवसायों में धनार्जन के लिए जिस क्रूरतापूर्ण बर्बर तरीके से पशुओं का कत्ल एवं पशुओं पर परीक्षण किया जा रहा है, वह निश्चित ही मानव जाति के लिए महाकलंक है। अनेक प्रजातियां प्राणियों की आज विलुप्त हो चुकी है एवं अनेक विलुप्ति के कगार पर है। भगवान महावीर ने ठीक ही कहा कि जो षड्जीवनिकाय के अस्तित्व को अस्वीकार करता है, वह अपने अस्तित्व को ही अस्वीकार करता है। परस्पर सभी जीव अपने अस्तित्व के लिए एक दूसरे पर निर्भर है। इस अन्तर्निभरता के सूत्र को विस्मृत करने के कारण ही आज स्वयं मानव अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, इसीलिए आजकल Human Survival की बात पर गंभीरता से विचार-विमर्श एवं मानव अस्तित्व की सुरक्षा हेतु पर्यावरण प्रदूषण पर सरकार द्वारा रोकथाम के विविध आयाम अपनाए जा रहे हैं, पर जब तक मानव का स्वनियंत्रण काम नहीं करेगा, मात्र बाह्य नियंत्रण से वांच्छित परिणाम की आशा करना अशक्य है, इस प्रकार आज भोगोपभोगव्रत की प्रासंगिकता हस्ताम्लकवत् स्वत: सिद्ध है। ८. अनर्थदण्डव्रत : मानव अपने जीवन में ऐसे अनेक कर्म करता है जिसके फलस्वरूप उसका अपना कोई हित साधन नहीं होता, इस निष्प्रयोजन, अनावश्यक कर्म का यहां निषेध किया गया है, आजीविका चलाने के लिए जो पापकारी प्रवृत्ति द्वारा हिंसा करनी पड़ती है वह यहां अर्थदण्ड है और निष्प्रयोजन ही केवल प्रमाद, कुतूहल, अविवेक, अज्ञानता के वशीभूत होकर चलते हुए अनावश्यक पत्तियों को तोड़ना, अपने मनोरंजन के लिए मुर्गे, अश्व, बैल आदि में लड़वाना अनावश्यक हिंसा है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाद जनित अनर्थ हिंसा का उल्लेख करते हुए कहा है कि अश्लील गीत, नृत्य-नाटक आदि (सिनेमा) देखना आसक्तिपूर्वक विषय कषाय वर्धक साहित्य पढ़ना, जूआ खेलना मद्यपान करना, निष्प्रयोजन झूले में झूलना (इससे वायुकाय हिंसा), प्राणियों को परस्पर लड़ाना, बिना कारण सोये पड़े रहना एवं निरर्थक वार्तालाप करना-ये सभी प्रामादाचरण है। अनर्थ हिंसा एवं निष्प्रयोजन प्राणघात से बचने के लिए महावीर ने इस व्रत के माध्यम से अप्रमत्तता का सूत्र दिया। आचार्य समन्तभद्र ने तो इतनी सूक्ष्मता से इस व्रत को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णन किया है कि निरर्थक जमीन खोदना, अग्नि प्रज्ज्वलित करना, पंखा करना, वनस्पति का छेदन-भेदन करना (फल एवं हरियाली पत्तीदार वनस्पति आदि जीवों की विवाह आदि में विविध आकृति बनाना), पानी का दुरूपयोग (स्नान, हाथ धोने में एवं बर्तन एवं वस्त्र प्रक्षालन में) घी, तेल, दूध आदि के बर्तन खुले रख देना (जिसमें जीवों के गिर जाने से अनावश्यक प्राणिघात के भागीदार बनते हों), लकड़ी, पानी आदि को बिना देख-भाल के काम में लेना-ये सभी प्रमाद से उत्पन्न हिंसा है, जो आज की आधुनिक जीवन शैली के अंग बन चुके हैं, इस व्रत के माध्यम से महावीर ने संपूर्ण जीवनशैली को संयमित करने का प्रयास किया है, इससे न केवल स्वयं का निष्प्रयोजन पाप से बचाव होगा अपितु जागृत मानवीय व्यवहार का विकास होगा एवं संयम चेतना के विकास से अभावग्रस्त को उचित साधन सामग्री उपलब्ध हो सकती है, इसी व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभ चिन्तन, पापकर्मोपदेश, हिंसक उपकरणों के दान एवं उपरोक्त प्रमादाचरण से बचे। श्रावक के उपर्युक्त पांच अणुव्रतों एवं तीन गुणव्रतों का बहुत कुछ सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से हैं। मानव समाज में आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियां विद्यमान हैं और एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक एवं अति प्रासंगिक हैं। गृहस्थ के शेष चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, दैशावकाशिक, पौषधोपवास का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से वैयक्तिक जीवन से हैं। यद्यपि अतिथि संविभाग व्रत की व्याख्या पुन: सामाजिक संदर्भ में की जा सकती है। ९. सामायिक व्रत : सामायिक समभाव की साधना है। गृहस्थ भी समता की आराधना से वंचित न रहे, इसलिए नौंवे व्रत का विधान है। एक मुर्हूत्त तक आत्मचिन्तन, स्वाध्याय-ध्यान-जप आदि के द्वारा समता की आराधना करने से प्रवृत्ति एवं निवृत्ति में सन्तुलन स्थापित होता है, मानसिक तनाव को विराम मिलता है, चित्तवृत्ति का शोधन होने से वास्तविक शान्ति का अनुभव होता है। आज हमारी सामायिक की साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्राय होती जा रही है और वह एक रूढ़-क्रिया मात्र बन कर रह गई है। सामायिक कत्र्ता के जीवन व्यवहार में आवेश नियंत्रण का अभाव एवं आसक्ति, अधीरता के कारण सामायिक की छवि भावी पीढ़ी पर प्रभावी नहीं हो रही हैै। यह भगवान महावीर द्वारा गृहस्थ के लिए निर्धारित धर्माराधना की ऐसी प्रायोगिक पद्धति है जो अन्य धर्म दर्शन में दुर्लभ है, इस व्रत को प्रभावी बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाए, यह युगीन अपेक्षा है। इसी अपेक्षा को मद्देनजर रखकर आचार्य तुलसी ने अभिनव सामायिक की पद्धति प्रदान की। अगर वह जीवन का अंग बन जाए तो सन्तुलित व्यक्तित्व का निर्माण हो सकता है, इस व्रत के माध्यम से मानसिक सन्तुलन की साधना, मन-वचन और काया के सामंजस्य की साधना एवं विधायक भावों के विकास की साधना से न केवल पारिवारिक शांति कायम हो सकती है अपितु सामाजिक जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करने की योग्यता अर्जित हो सकती है अन्यथा छोटी-छोटी परिस्थितियों में अपने मानसिक एवं भावनात्मक सन्तुलन को खोकर मानव अपशब्द प्रयोग एवं मारपीट आदि घरेलु हिंसा में तत्पर हो जाता है और आत्महत्या जैसा दुष्कर्म भी कर बैठता है एवं अकल्पनीय अकरणीय कार्य कर लेता है एवं फिर पश्चाताप करता है। सारे अपराध आवेश के अनियंत्रण और इसी समभाव की साधना के अभाव में होती है। अत: सर्वांगीण शान्तिपूर्ण स्वस्थ परिवार एवं समाज संरचना में सामायिक व्रत की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। १०. देशावकाशिक व्रत : देश का अर्थ है-छोटा या अंश, इस व्रत में अल्पकालिक तथा छोटे-छोटे नियम के लिए अवकाश रहता है, जो लोग एक साथ दीर्घकालिक त्याग नहीं कर सकते, उनके लिए यह अभ्यास का सुन्दर एवं सरल उपक्रम है। आज के युग में किसी में यदि बुरी लत पड़ गई तो उसे इस प्रकार के व्रत के माध्यम से क्रमश: उसकी बुरी आदत से निजात दिलाया जा सकता है। धीरे-धीरे थोड़े-थोड़े समय के लिए किए गए त्याग भविष्य में व्यक्ति के चरित्र विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, इस व्रत से न केवल भोग्य पदार्थों की असारता समझकर अपना स्वास्थ्य सुधरेगा अपितु मानसिक शक्ति भी दृढ़ होगी एवं आत्म संयम से आत्म बल बढ़ेगा। ११. पौषधोपवास व्रत : जो गृहस्थ अध्यात्म साधना में आगे बढ़ना चाहते हैं वे इस व्रत के अन्तर्गत उपवासपूर्वक विषय-वासनाओं से उपरत होकर श्रावक जीवन में ही श्रमण वत् जीवन का आस्वादन हेतु एक दिन-रात अथवा रात्रिकालिन पौषध स्वीकार कर आत्मा की उपासना करते हैं। भगवान महावीर ने अष्टमी-चतुर्दशी तिथियों पर इस व्रत की आराधना पर जोर दिया था, पर आज के संदर्भ में हर क्षेत्र में सप्ताह में एक दिन सभी को अवकाश प्राप्त होता है उस दिन का सदुपयोग पौषध व्रत के माध्यम से आत्मसाधना में व्यक्ति स्वदोष दर्शन की साधना से अपने चरित्र को शनै:-शनै: परिष्कृत कर अणुव्रती इहलोक एवं परलोक दोनों को सफल बनाने का प्रयास करता है। १२. अतिथि संविभागव्रत : यह व्रत गृहस्थ के लिए सामाजिक दायित्व का सूचक है, संयमी व्यक्ति अकिंचन होते हैं उनके पास धनवैभव नहीं होता, वे पचन-पाचन की क्रिया से मुक्त होते हैं एवं भ्रामरी भिक्षाचरी से अपना जीवन चलाते हैं, उनके संयम में, भोजन, पानी, वस्त्र आदि अपनी वस्तुओं का संविभाग कर साधु को सहयोग देना इस व्रत का उद्देश्य है, इसीलिए महाभारतकार ने भी गृहस्थ आश्रम को शेष तीन आश्रमों से श्रेष्ठ बतलाया है क्योंकि तीनों ही आश्रम इसी पर टिके हुए हैं। संयमी को निर्दोष आहार देने से अपूर्व कर्मों की निर्जरा होती है एवं शुभ पुण्य के अर्जन के साथ-साथ शुभायुष्य का बंध होता है। गृहस्थ पर अपने परिजनों के उदरपोषण के दायित्व के साथ-साथ साधक एवं समाज के असहाय एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पौषण का दायित्व भी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग एवं सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दु:ख में सहभागी बनना एवं अभावग्रस्त पीड़ितों एवं दीन-दुखियों का तन-मन-धन से सहयोग करना भी गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है, इस व्रत द्वारा गृहस्थ में समाज सेवा, दान चेतना एवं अर्जन के साथ विसर्जन की चेतना का जागरण होता है एवं साथ ही अनासक्ति का विकास होने से आत्मोत्थान होता है एवं समाज में सदाशयता, सामाजिक सम्बन्धों में मधुरता एवं साधार्मिक वात्सल्य का विकास होता है। उपसंहार : आज पूरे विश्व में ‘‘Life Style’’ के बारे में चिंता या चिन्तन किया जा रहा है। संसार में जो बदलाव आएगा, उससे जैन लोग भी अप्रभावित नहीं रह पाएंगे। मनुष्य आज अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है, कुछ समस्याएं शाश्वत होती है, उनका अस्तित्व तीनों कालों में रहता है। कुछ समस्याएं सामयिक होती है, वे समय-समय पर बदलती रहती हैं। उपरोक्त विश्लेषण से यह बात समझ में आ जाती है कि बारह अणुव्रतों के सम्यक पालन से शाश्वत एवं सामयिक दोनों समस्याओं का समाधान संभव है। व्रतों का पालन कर व्यक्ति स्वयं सुखी और स्वस्थ जीवन जीयेगा एवं परिवार-समाज में शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की स्थापना कर स्वस्थ एवं शांतपूर्ण समाज संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। अस्तु जैन धर्म के श्रावकाचार की उपर्युक्त समीक्षा करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रावकों के लिए महावीर द्वारा प्रतिपादित आचार के नियम एवं सर्वांगीण जीवन शैली के १२ सूत्र, हर देश, हर व्यक्ति, हर समाज में एवं हर युग ये प्रासंगिक सिद्ध होते हैं। -समणी डॉ. शशिप्रज्ञा सहायक आचार्य जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं

वर्षायोग एक संस्कृति 0

वर्षायोग एक संस्कृति

-प.पू. गणाचार्य १०८ श्री विरागसागर जी महाराज वर्षायोग की प्राचीनता : वर्षायोग का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख दिगम्बर जैन ग्रन्थों में मिलता है, मूलाचार ग्रन्थ में मुनियों के दस स्थिति कल्पों में पद्य नामक कल्प वर्षायोग का विधान है, वहाँ पर कहा गया है कि मुनिजनों को वर्षायोग नियमत: करना चाहिए, इसी प्रकार अन्य ग्रन्थों में भी वर्षायोग का विधान है। बौद्ध के चातुर्मास का तथा हिन्दु ग्रन्थ बाल्मीकि रामायण आदि में श्री रामचन्द्र जी के चातुर्मास का उल्लेख है, चातुर्मास की परम्परा आज भी निर्वाधित रुप से चली आ रही है, दिगम्बर जैन संत आज भी नियम से चातुर्मास करते हैं। वर्षायोग का अर्थ :- वर्षायोग दो शब्दों से मिलकर बना है, वर्षा + योग = वर्षायोग, वर्षा यानि वर्षात्, योग यानि धारण करने वाली, योग शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है- यथा योगशास्त्र में योग का अर्थ मिलना अर्थात् आत्मा से जुड़ने को योग कहा जाता है। गणित शास्त्र में योग (जैसे- २+२ का योग ४) शब्द का अर्थ वृद्धि लिया गया है जैन ग्रन्थों में योग शब्द का अर्थ आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन में कारण भूत मन, वचन, काय को कहा है अथवा इन तीनों को स्थिर रखने को योग कहा है, यहाँ यही अर्थ अनुग्रहीत है। जैन ग्रन्थों में आध्यात्मिक साधना, आराधना, बाह्याभ्यंतर तप, निश्चय व्यवहार परक पंचाचार, ध्यान को भी योग कहा गया है। प्राचीन काल में मुनिगण वर्षाकाल में किसी वृक्ष के नीचे ४ माह तक स्थिर और अखण्ड साधना करते थे किन्तु वर्तमान काल में हीन संहनन (कम शक्ति) होने के कारण किसी तीर्थक्षेत्र, ग्राम, नगर, मन्दिर या धर्मशाला आदि में रहकर यथा शक्ति साधना करते हैं, इसीलिए वर्षायोग या वर्षावास यह सार्थक संज्ञा है। चातुर्मास :- श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन चार माह में वर्षायोग होने से इसे चातुर्मास भी कहते हैं, इससे अर्थ स्पष्ट होता जाता है कि वर्षायोग का संबंध मात्र वर्षा ऋतु के दो माह से नहीं अपितु वर्षाकाल के चार माह से है, अत: ‘चातुर्मास’ भी सार्थक संज्ञा है। वर्षायोग क्यों :- वर्षाकाल में निरंतर पानी बरसता है जिससे नदी नालों में बाढ आ जाती है, मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। अनंत जीवों वाली साधारण वनस्पति अर्थात् हरी घास उत्पन्न हो जाती है। असंख्य सूक्ष्म जीव कीट पतंगे आदि जीव-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। बिलों में पानी भर जाने से बहुत से जीव जन्तु बिलों से बाहर आ जाते हैं, जिससे उन सबकी रक्षा बहुत कठिन हो जाती है, अत: अहिंसा व्रत के धारी साधुजन अपने प्राणी संयम की रक्षा हेतु चातुर्मास करते हैं अर्थात् चार माह एक ही स्थान पर ठहरते हैं। वर्षायोग कब :- चातुर्मास की स्थापना आषाढ माह के शुक्ल चतुर्दशी की पूर्व रात्रि में की जाती है, किन्हीं ग्रन्थों में आषाढ माह की प्रतिपदा को वर्षायोग धारण करते हैं ऐसा भी उल्लेख है, यथा- जैनाचार्य श्री जिनसेन ने कहा है कि आदिनाथ ने कृषि शिक्षा आषाढ माह की प्रतिपदा को ही दी थी, इसी कारण वर्षायोग इसी माह में स्थापित किया जाता है। व्याकरणाचार्य पाणिनी ने भी वर्ष की समाप्ति आषाढ माह में मानी है तथा कार्तिक कृष्णा अमावस्या की अंतिम रात्रि में साधुजन चातुर्मास समाप्त करते हैं क्योंकि इस दिन ही वीर निर्वाण संवत् आदि की परि समाप्ति होती है। राजाओं के युग में आर्थिक वर्ष की भी पूर्णता दीपावली अर्थात् कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन ही मानी जाती है इसी दिन वार्षिक आय-व्यय की पूर्णता पुरानी बही-खातों में की जाती है। वर्षायोग कैसे :- वर्षायोग के स्थापना व निष्ठापन के एक दिन पूर्व मध्यान्ह सामायिक में मंगल गोचर मध्यान्ह वंदना क्रिया, सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु, शांति व समाधि भक्ति पूर्वक की जाती है तथा बाद में मंगल गोचर भक्त प्रत्याख्यान विधि (उपवास ग्रहण क्रिया) सिद्ध, योगी, आचार्य, शांति व समाधि भक्ति पूर्वक की जाती है, दूसरे दिन साधुगण वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं पश््चात् चातुर्मास स्थापना पूर्व रात्रि में एवं निष्ठापन अपर रात्रि में वृहद सिद्ध, चैत्य तथा स्वयं भू स्तोत्र में से क्रमश: दो-दो तीर्थंकर की स्तुति व लघु चैत्य भक्ति क्रमश: सभी दिशाओं में मुख करके की जाती है किन्हीं-किन्हीं संघों में पूर्व या उत्तर दिशा में मुख कर ही की जाती है, मात्र आवर्तन शिरोनति चारों दिशा में की जाती है। अंत में पंच महागुरु भक्ति शांति व समाधि भक्ति पढते हुए स्थापन, निष्ठापन करें। वर्षायोग समाप्ति के बाद वीर निर्वाण क्रिया करें। सुयोग्य श्रावक जन इस कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के उद्देश्य से अभिषेक विधान करते हैं, ध्वजारोहण, कलश स्थापना, मंगलदीप प्रज्ज्वलन करते हैं तथा स्थापना व निष्ठापन के अवसर पर चारों दिशाओं में मंगल हेतु पीली सरसों या पुष्पादि का क्षेपण करते हैं। एक और प्रश्न खड़ा हो सकता है कि चातुर्मास-कलश की स्थापना क्यों की जाती है? तो कलश के प्रकरण में पंचास्तिकाय तात्पर्य वृत्ति १/५/१५ में कहते हैं – पुण्णा मणोरहेहि य केवलणाणेण चावि संपुण्णा। अरहंता इदि लोए सुमंगलं पुण्णवुंâभो दु।। अरहंत भगवान सम्पूर्ण मनोरथों से तथा केवलज्ञान से पूर्ण हैं, इसीलिए लोक में पूर्ण कलश को मंगल माना जाता है। वर्षायोग से लाभ :- चातुर्मास काल में साधुगणों को गमनागमन की सीमा निर्धारित कर चार माह एक ही स्थान पर रहने से ध्यान, अध्ययन, चिंतन का अधिक अवसर प्राप्त होता है, उनकी त्याग तपस्या भी सर्वाधिक होती है। आहारादि में भी वे हरी पत्ती, साग, घुने अनाज, फली, पुराने मेवा आदि का त्याग करते हैं और भी अपनी शक्ति अनुसार नियम आदि लेकर तप, त्याग तथा अध्ययन की विशेष साधना करते हैं तथा श्रावकों को भी साधुजनों की सेवा-सुश्रुषा एवं घर-घर में चौकों के माध्यम से श्रावक भी शुद्ध प्रासुक आहार लेते हैं। साधुजनों के माध्यम से श्रावक संस्कार शिविर, पूजन शिविर, शिक्षण शिविर, व्यसन मुक्ति- शाकाहार अभियान, स्वाध्याय क्लास, सामाजिक संगठन, धर्म प्रभावना का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है। वर्षाकाल में प्राय: व्यवसाय, शादी विवाह आदि नहीं होने से श्रावक जनों को भी पर्याप्त मात्रा में धर्मलाभ प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। साधुओं के उपदेश से श्रावक क्षेत्रादिकों में दान, आहार दान इत्यादि शुभ क्रियाओं में प्रवृत्त होकर धर्म का अर्जन करते हैं। श्रावकों का साधुओं के निकट आने से उनमें भी तप, त्याग, साधना चर्या के संस्कार आते हैं। -संजय जैन

जीवन मोक्ष: सत्संग, समर्पण, और संत 0

जीवन मोक्ष: सत्संग, समर्पण, और संत

सन्त और सत्संग के बिना यह दुर्लभतम मानव जीवन भी व्यर्थ है जो सन्तों की कीमत समझ लेते हैं, उनके भीतर से यह वचन निकलता है- ‘‘जो दिन साधु न मिले, वो दिन होय उपास’’ उन्हें सत्संग के बिना उपवास-सा महसूस होता है। सत्संग आत्मा की खुराक है। आत्मा की व्यवस्था सिर्फसंतकृपा से ही हो सकती है, अपितु जिस शरीर में भव्यात्मा विराजमान है, उस शरीर की व्यवस्था तो माँ-बहन, बेटी, पत्नी या बेटा कोई भी कर सकता है, जब हम संतों के समीप जाते हैं, उनके सत्संग में मन लगाकर बैठते हैं तो वे हमें ‘‘ज्ञानामृत भोजन’’ अर्थात् ज्ञान का अमृत परोसते हैं, अगर हम उसे श्रद्धा से ग्रहण करते हैं और धीरे-धीरे आचरण में उतारते है तो हमें दुगुना लाभ मिलता है, हमारी ज्ञान की प्यास खुलती है और आचरण से मन शुद्ध एवं शरीर स्वस्थ बनता है। ज्ञान पिपासा है जो हमें सन्त की तलाश करायेगी। प्यासा व्यक्ति पानी एवं ज्ञानी ज्ञान की तलाश करता है, यदि हमें ज्ञान होगा तो सन्त की तलाश करेंगे और सुराहीरुपी सन्त के समक्ष प्याला बनकर समर्पित हो जाएंगे, समर्पित होने से ही प्याला भरता है और प्याला भरे होने से ही प्यास बुझती है। आत्मा की भूख और प्यास मिटाने के लिए सन्त समागम और प्रभुभजन अति आवश्यक है। सत्संग और प्रभु भजन जीवन में बड़ी दुर्लभता से मिलते हैं। सत्संग मिलने का मतलब है – सन्तों का दीदार होना और सन्तों से प्यार होना। दीदार में सिर्फ दर्शन होता है और प्यार में सम्पूर्ण समर्पण। समर्पण के साथ किया गया सत्संग ही जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाता है। समर्पण से मिट्टी के द्रौणाचार्य से भी एकलव्य की शिक्षा और सिद्धि प्राप्त हुई थी। विष के प्याले में मीरा बाई को श्री कृष्ण के दर्शन हुए थे, जिसे जो भी मिलता है, समर्पण से मिलता है अहंकार से नहीं। अहंकार से मिलता है सिर्पâ अंधकार और समर्पण से मिलता है प्रकाश। यदि हम सन्त चरणों में समर्पित होते हैं तो अन्त:करण प्रकाशित हो जाता है जैसे कि माटी समर्पित होती है तो गागर बनती है, बूंद समर्पित होती है तो सागर बनती है। संसारी गुरुचरणों में समर्पित होता है तो सन्त बनता है, सन्त प्रभुचरणों में समर्पित होता है तो अरिहन्त बन जाता है। समर्पण का सूत्र है स्वयं को अर्पित कर देना, जो भी समर्पित हुआ, वह पा गया। यदि हम मार्ग भूले भी तो समर्पण का प्रकाश सही मार्ग पर ले जायेगा और सत्य से मिला देगा। यदि हमें सत्य को पाना है तो स्वयं को सन्त-चरणों में समर्पित करना होगा क्योंकि संत ही साधन है प्रभु-प्राप्ति का। ‘गुरु’ मानवता की मुंडेर पर चारित्र्य का चिराग है। साधना के शिखर पर सिद्धत्व की सृष्टि है। आत्मा की भूमि पर अमृत की वृष्टि है। गुरु ही हमारी पिपासा को देख-परखकर हमें मोक्ष मार्ग पर चलने को लाभान्वित कराता है, मार्गदर्शन करता है और मोक्ष का परम फल, परम प्रसाद दिला देता है। मगर पथ पर तो हमें स्वयं ही चलना होता है। मोक्षमार्ग पर चलने के लिए हमें श्रद्धा, ज्ञान एवं आचरण की तीव्र आवश्यकता है। सच्ची श्रद्धा, सच्चा ज्ञान तथा सच्चा आचरण ही हमें मोक्ष के मार्ग पर ले जायेगा, इसलिए कहा गया है ‘‘सम्यक दर्शन, ज्ञान चारित्रणि मोक्ष मार्ग’’

मन की रफ्तार 0

मन की रफ्तार

हमने अपने घर के वरिष्ठ सदस्यों के मुंह से सुना था, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। मन की गति को न पकड़ सका, राजा संत रईस।’’ जब भी रफ्तार का नाम लिया जाता है, कुछ बातें दिमाग में चली आती हैं। हवा की गति तेज होती है, सूर्य के प्रकाश की गति तेज होती है, ध्वनि की गति तेज होती है, इन सभी गतियों की तुलना मन के रफ्तार से नहीं की जा सकती। मन की गति को मापना संभव नहीं है। साथ-साथ भूखंड की ऊर्जाओं को मापने का प्रयास किया जाता है। ऊर्जा मापने के लिए वैज्ञानिकों ने कई यंत्रों का अविष्कार किया, सभी यंत्र प्रकृति, भूखंड के बारे में संभावना ही बता सकते हैं। परिणाम के करीब जा सकते हैं, मगर शतप्रतिशत परिणाम नहीं देते, आपने टीवी और प्रिंट मीडिया में सुना और पढ़ा होगा, ‘‘तूफान आने की संभावना है, बरसात आने की संभावना है, तेल के कुएं निकलने की संभावना है, भूकंप आने की संभावना है, सूखा-बाढ़ आने की संभावना है, अधिक ठंड या अधिक गर्मी पड़ने की संभावना है। ज्योतिष शास्त्र कहता है, ‘‘गणना के हिसाब से आपकी जिंदगी में ऐसा होने की संभावना है।’’ वास्तुशास्री कहता है, ‘‘भूखंड में संशोधन के बाद अच्छे परिणाम आने की संभावना है’’ हर विषय संभावना ही बताती है, सच में क्या होगा, केवली भगवान और नारायण कृष्ण ही बता पायेगें। सभी विद्याएं, विद्वान संभावनाओं की बात करते हैं। मन की गति, समय की गति दोनों का समावेश अगर आपस में कर दिया जाए तो असंभव कुछ भी नहीं, हमें संभावनाओं का ज्ञान हो जाए, पुरूषार्थ की गति को, मन की गति को आपस में संयोग कह दें, तब असंभव कुछ नजर नहीं आएगा और भी बन जाएगा। गीता में कृष्ण ने अपने उद्बोधन में अर्जुन से कहा था, ‘‘हे अर्जुन, समय गतिवान है, समय की गति पकड़ने का प्रयास मत करना। समय के साथ अपनी गति को जोड़ देना।’’ आज हम पूरे हिन्दुस्तान में भ्रमण करते हैं, समय की गति को पकड़ने का प्रयास करने वाले कौन-कौन से प्रांत हैं? प्रथम नाम आपको महाराष्ट्र का मिलेगा, उसका उदाहरण आप अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देख सकते हैं। अमीर हो या गरीब हो, नौकर हो या मलिक हो, कम से कम १२ घंटा एवं १६ घंटों तक कार्य करते हैं। यही कारण है, मुम्बई को ‘‘आर्थिक राजधानी’’ कहा जाता है, यह बात क्या सिर्फ मराठियों पर लागू होती है, बिलकुल नहीं। प्रांत में रहने वाले सभी भारतीयों पर लागू होती है, समय की गति को पकड़ने का पूरा प्रयास, समय पर कार्य पूरा करने का प्रयास, समय पर पहुंचने का प्रयास देखने लायक है, केवल देखने लायक ही नहीं सराहने लायक भी है। क्या सभी मुम्बईवासी ऐसा प्रयास करते हैं? जो करते हैं, वह सफलता को प्राप्त करते हैं, मैंने आचार्यों के लेख पढ़े, उनके कुछ अंश अपनी भाषा में आपके साथ बांटने का या आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूं। मेरा यह प्रयास सार्थक होता है, तो मैं अपने आपको धन्य समझूंगा। आचार्य कहते हैं, ‘‘चौबीस घंटे का दिन-रात होता है, प्रकृति अपनी नियति नहीं बदलती, चौबीस की छब्बीस या तेईस घंटे नहीं करती।’’ आचार्यों ने चार तरह के मनुष्यों का वर्णन किया है। पहला-चार घंटे काम करता है और चौदह घंटे सोता है, छह घंटे आलस्य और प्रमाद में बीता देता है, ऐसा क्यों होता है? दुश्चिंताएं, ख्याली पुलाव, अज्ञात भय, दूसरा क्या करेगा, दूसरा क्या कहेगा, डर के मारे जी-हुजुरी, अपने आपको समझदार दिखाने के प्रयास में असफल हो जाता है, उसका एक साल का लक्ष्य तीन साल में पूरा होता है। दूसरा-आठ घंटा काम करता है, दस घंटा सोता है और छह घंटे आलस्य करता है, वह अपना लक्ष्य दो साल में पूरा करता है। तीसरा-बारह घंटा काम करता है, आठ घंटा सोता है और चार घंटा नित्य क्रियाएं एवं प्रमाद में निकाल देता है, वह अपना एक साल का लक्ष्य एक साल में पूरा करता है। चौथा-संत, महंत, विश्व के विशिष्ट, सफल, व्यापारी हो, अध्यात्मिक हों, समाजसेवी हो या परमार्थ के काम में जुड़े हुए हो, इनकी दिनचर्या सबसे अलग होती है। अगर आप विश्व के टॉप टेन (प्रथम दस) हस्तियों के बारे में इंटरनेट के माध्यम से पढ़ने का समझने का प्रयास करेंगे एवं दिनचर्या को अपने आप में उतारने का प्रयास करें तो संभव है कि टॉप टेन में आपका नाम भी आ जाए, निश्चित ही आपका नाम आएगा। भाग्यलक्ष्मी, कर्मलक्ष्मी, यशलक्ष्मी, कुल लक्ष्मी, मां भगवती आपका स्वागत करने के लिए तत्पर खड़ी हैं। आप प्रयास करके तो देखें। बिल गेट्स, फोर्ड, अंबानी और टाटा, बिड़ला की पंक्तियों में आपका नाम निश्चित लिखा जाएगा, इसके लिए आपको समय का सदुपयोग करना होगा, जिंदगी का एक-एक सेकेंड करोड़ों रूपए से अधिक कीमती होता है, अनमोल होता है, अनमोल समय को बेमोल बर्बाद मत करो, समय को आप साथ दें, समय आपका सम्मान करेगा। प्रकृति, परमात्मा आपके सम्मान की व्यवस्था, सम्मान के कारण आपके समक्ष उपस्थित कर देंगे, सोलह घंटे काम करने वाले और छह घंटा प्रकृति एवं शरीर विज्ञान के आदेशानुसार शरीर को आराम देना या सोने का प्रयास करना है तो उनका एक साल का लक्ष्य चार से छह माह में पूर्ण हो जाता है क्योंकि वो आज का काम कल पर नहीं छोड़ते। परिस्थिति एवं कठिनाइयों का सामना करते हुए आज का काम आज ही पूरा करते हैं। अपनी पूरी शक्ति परेशानियां और कठिनाइयों को अपने से अलग करने में लगा देते हैं जो पुरूषार्थ के साथ तन कर खड़ा हो जाता है, कठिनाई एवं परेशानियां अपने आप पलायन करने लगती है, इतना ही नहीं परेशानियां पैदा करने वाले स्वयं आपके आत्मविश्वास से परेशान हो जायेंगे। जब टूटने लगे होंसले तो बस ये याद रखना ढूंढ़ लेना अंधेरों में मंजिल अपनी बिना मेहनत के हासिल तख्तो ताज नहीं होते जुगनू किसी रोशनी के मोहताज नहीं होते -डॉ.सम्पत सेठी जैन (वास्तु एवं निर्माेलॉजिस्ट)

विवेक और जैन धर्म: जैन धर्म में विवेक की भूमिका 0

विवेक और जैन धर्म: जैन धर्म में विवेक की भूमिका

जैन धर्म किसी एक धार्मिक पुस्तक या शास्त्र पर निर्भर नहीं है, इस धर्म में ‘विवेक’ ही धर्म है | जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति सर्वोपरि है और दर्शन मीमांसा धर्माचरण से पहले आवश्यक है | देश, काल और भाव के अनुसार ज्ञान दर्शन से विवेचन कर, उचित- अनुचित, अच्छे-बुरे का निर्णय करना और धर्म का रास्ता तय करना | आत्मा और जीव तथा शरीर अलग-अलग हैं, आत्मा बुरे कर्मों का क्षय कर शुद्ध-बुद्ध परमात्मा स्वरुप बन सकता है, यही जैन धर्म दर्शन का सार है, आधार है | जैन दर्शन में प्रत्येक जीवन आत्मा को अपने-अपने कर्मफल अच्छे-बुरे स्वतंत्र रुप में भोगने पड़ते हैं, यहाँ परमात्मा को, कर्मों को क्षय कर आत्मा स्वरुप प्राप्त किया जा सकता है ​| जिनवाणी में किसी व्यक्ति की स्तुति नहीं है, बल्कि समस्त आत्मागत गुणों का महत्व दिया गया है, जिनधर्म गुणों का उपासक है। हमारे बाहर कोई हमारा शत्रु नहीं है, शत्रु हमारे अंदर है, काम क्रोध, राग-द्वेष आदि विकार ही आत्मा के शत्रु हैं, हम राग और द्वेष को जीत कर अविचल निर्मल वीतरागी बन सकते हैं | ज्ञान और दर्शन के सभी दरवाजे खुले हैं। अनेकान्तवाद के अनुसार कोई दूसरा धर्म पन्थ भी सही हो सकता है क्योंकि सत्य सीमित या एकान्तिक नहीं है | अन्य धर्मों की तुलना में जैन धर्म में अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया है, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह और उनके प्रति मोह आसक्ति वर्जित है | जैन धर्म में नगर और नारी को समान स्थान दिया गया है, श्रावकश्राविका, श्रमण-श्रमणियों के रुप में बराबर स्थान तथा नारी को भी मुक्ति पाने का अधिकारी माना गया है | जैन धर्म, जैन दर्शन के अनुसार जन्म, जाति, रंग, लिंग का कोई भेदभाव नहीं, मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से पहचाना जाना चाहिए | जैन दर्शन, जैन धर्म, जैन आचार निवृत्ति परक है, इसमें त्याग और तपस्या, अनासक्ति और अपरिग्रह पर बड़ा जोर है, प्रवृत्ति सूचक कर्मों से उच्चौत्तर आत्माओं को दूर रहने की सलाह दी गई है | जैन धर्म में रुढ़िवादिता नहीं है, चूंकि एक किसी गुरु, तीर्थंकर, आचार्य या संत को ही सर्वोपरि नहीं माना गया है, समयानुसार विवेकमुक्त बदलाव मुख्य सिद्धांतों की अवहेलना किये बिना मान्य किया गया है | किसी तरह के प्रलोभन से जैनमत में धर्म परिवर्तन के कोई नियम नहीं है, स्वत: जिन धर्म संयत आचरण करने पर व्यक्ति जिनोपासक बन सकता है | जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, आकाश, पृथ्वी, ६ प्रकार के जीवों की रक्षा का संकल्प लेना तथा जीवन यापन के लिए आवश्यकता से कम, उपयुक्त साधनों का प्रयोग करना, यतनापूर्वक पाप रहित जीवन जीना ‘जैन धर्म’ का मुख्य सिद्धांत है | जैन धर्म में कोई देव भाषा नहीं है, भगवान महावीर के अनुसार जन भाषा में धार्मिक क्रियाएँ और ज्ञान प्राप्ति की जानी चाहिए, सामान्य जन भाषा भगवान महावीर के समय में प्राकृत और पाली थी, लेकिन आज ये भाषायें भी जन भाषायें नहीं रही, अत: अपने क्षेत्र की भाषा में चिंतन, मनन और धर्म आराधना होनी चाहिए, यही भगवान महावीर के उद्घोष का सार है, हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषा या अन्य कोई भी भाषा प्रयोग में ली जा सकती है | ‘‘जियो और जीने दो’’ ‘‘परस्परोपग्रह जीवनाम्’’ दयाभाव युक्त और उसी के तहत जीवों के जीने में सहयोग करना अहिंसा का व्यवहारिक रुप है | जैन धर्म के सिद्धांतों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता एक के बाद एक स्वयंसिद्ध है, जैसे वनस्पति में जीव है, जीव और जीवाणु है, पानी, भोजन, हवा में जीव है, यह सब बातें वैज्ञानिक सिद्ध कर चुके हैं, इससे सिद्ध होता है कि जैनाचार्य और जैन दर्शन द्वारा प्रदत्त ज्ञान अंधविश्वासों से मुक्त व सच्चा है। जैन श्रमण, साधु, साध्वी भ्रमण करते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं रहते, मठ नहीं बनाते, आश्रम नहीं बनाते, पैसा कौड़ी अपने नाम से संग्रह नहीं करते। जैन धर्म में गृहस्थों के लिए, श्रावक-श्राविका के लिए, सन्त-साध्वी के लिए अलग-अलग आचार मर्यादायें तय की गई है | अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह यह पाँच महाव्रत हैं, शाकाहारी भोजन हो, नशा-मुक्त जीवन हो, शिकार और जुए से दूर रहें, झूठ और चोरी का व्यवहार न करें, व्यभिचार मुक्त जीवन जीए | मुक्ति का मार्ग अहिंसा, तप दान और शील के द्वारा बताया गया है, किसी से वैर न हो, सभी प्राणियों से प्रेम हो, इन मर्यादाओं के पालन के लिए विवेक प्राप्ति हेतु ज्ञान दर्शन स्वाध्याय के द्वारा प्राप्त करना हमारा आवश्यक कर्तव्य है | जैन दर्शन सत्यनिवेषी है, सत्य ही धर्म है, परिस्थितिवश विवेक से सत्य को ढूंढना और उचित-अनुचित, धर्म- अधर्म, पाप-पुण्य का निर्णय करना, ये मुख्य शिक्षाएँ हैं। -डॉ रिखब चन्द जैन (चेयरमैन टी.टी. ग्रुप)

ओजस्वी सन्त तरूण सागरजी 0

ओजस्वी सन्त तरूण सागरजी

मध्यप्रदेश के दमोह के छोटे से ग्राम में जन्मा एक बालक कभी देश का इतना ओजस्वी व प्रखर वक्ता सन्त बन जायेगा, यह किसी की कल्पना में नहीं था। २६ जुन सन् १९६७ में जन्मा पवन कुमार जैन, अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही एक जैन सन्त का आध्यात्मिक प्रवचन सुनकर, मन से आन्दोलित हो गया एवं १४ वर्ष की उम्र में अपना घर छोड़ दिया, वह किशोर अगले ५-६ वर्ष अपनी ज्ञान-पिपासा की शान्ति एवं मानव जीवन का उद्देश्य पूर्ण सुख-शान्ति प्राप्ति हेतु गुरू की खोज करता रहा, अन्त में सन् १९८८ में २१ वर्ष की आयु में दिगम्बर आचार्य श्री पुष्पदन्त सागरजी से मुनि दीक्षा लेने पर गुरू से नया नाम मिला- ‘‘मुनि तरूण सागर’’ मुनि तरूण ने शुरू के कुछ वर्ष ज्ञान व अध्यात्म शक्ति के विकास में लगाये, यह लिखने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि कुछ ही अन्तराल में, ‘तरूण सागर’ ज्ञान का सागर बन गया एवं एक विशिष्ट प्रवचन शैली विकसित की, जिसकी वजह से श्रोता बरबस ही उनकी ओर खिंचता चला जाता था, उन्होंने देश को अनेक शहरों का भ्रमण किया एवं अपनी ओजपूर्ण वाणी एवं धीमी व तेज उतार-चढ़ाव वाली प्रवचन की विशेष शैली से अपने श्रोताओं को सही जीवन जीने का सन्देश किया, उनका कहना था कि तुम स्वयं अच्छे व्यक्तियों की खोज मत करो, तुम स्वयं ही इतने अच्छे बन जाओ कि लोग तुम्हारी खोज करें, तुम्हारे जीवन में गुणों का इतना सुवास हो कि आने वाला तुम्हारे जीवन व व्यवहार से प्रभावित होकर जावे। अधिकांश प्रवचनकार ऐसा सोचते हैं कि हमें अपनी बात इतनी मिठास से कहनी चाहिये ताकि श्रोता को आनन्द मिले, परन्तु मुनि तरूण सागरजी की प्रवचन शैली एक अलग ही किस्म की थी, वे कही जाने वाली कड़वी व कूट सत्य को श्रोता के सामने ज्यों का त्यों परोस देते थे, यानि कुनैन की गोली पर मिठास का लेप नहीं करते थे, वो बताई जाने वाली बात को ऊंचा-नीचा करके व कई बार घुमा-फिराकर ऐसे ज्यों की त्यों कहते थे कि श्रोता को हार्ट-अटैक की तरह एक दम अटैक करती थी, वह सोचने को मजबूत होता था कि मुझे अब कुछ करना चाहिये, सोचना चाहिये, चिन्तन व विचार परिवर्तन होना चाहिए। उनकी विद्वता व वैशिष्टतया से केवल आम आदमी ही नहीं बल्कि विद्वान व प्रबुद्धजन, साहित्यकार व राजनेता भी प्रभावित होते थे, इस वजह से उनके गुणों की सुगन्ध व पहचान बढ़ती गई, प्रवचन में तो हजारों-हजारों व्यक्ति उपस्थित होते थे, वो मन्दिरों व स्थानकों के अलावा, स्कूलों कॉलेजों व जेल में प्रवचन देते थे, मध्यप्रदेश, हरियाणा की विधानसभा में यही एक जैन सन्त रहे, जिन्हें अपनी बात रखने का अवसर मिला, उन्होंने पुलिस अकादमियों व सेना के जवानों को भी सम्बोधित किया एवं उन्हें प्रभावित किया। सन्त तरूण सागरजी अपनी बात खूब कड़ाई से रखते थे, अत: वो कड़वे प्रवचनकार नाम से विख्यात हो गये, उनके प्रवचनों का संकलन ‘‘कड़वे प्रवचन’’ नाम से कई भागों व कई भाषाओं में प्रकाशित हुए है, जैन सन्तों में सम्भवत: यही एक व्यक्ति है जिनका नाम ‘लिम्का रिकॉर्ड बुक’ में ही नहीं, बल्कि ‘गिनीज रिकॉर्ड’ में भी शामिल हुआ है, उनके प्रवचनों की एक पुस्तक तो विशिष्ट आकार में प्रकाशित हुई थी, जो स्वयं में एक रिकॉर्ड है। वरिष्ठ पत्रकार व सम्पादक बिजय कुमार जैन ‘हिंदी सेवी’ के निवेदन पर मुनि श्री तरूण सागरजी ‘जैन एकता’ के काफी पक्षधर बनें एवं इस हेतु अनवरत मे सहयोग करते रहे। तेरापंथ के आचार्य श्री महाश्रमणजी का सन् २०१४ में जब दिल्ली में चातुर्मास था, तब उन्हीं के प्रयास से दिगम्बर मूर्तिपूजक, स्थानक व तेरापंथी चारों सम्प्रदायों का चातुर्मास के अवसर पर विशाल सम्मेलन हुआ था, तब यह भी तय किया गया था कि ऐसा आयोजन प्रति वर्ष होगा, परन्तु एकता की ओर बढ़ते कदम और आगे नहीं बढ़े, वह फिलहाल मुनि ही कहलाते थे, परन्तु ज्ञान, मान-सम्मान में किसी भी आचार्य से कम नहीं थे, इनकी पहचान कम ही उम्र में व कम ही वर्षों में पूरे विश्व में हो गयी थी। दिल्ली में आपके अनेकों चातुर्मास सम्पन्न हुए हैं, इस साल सन् २०१८ का चातुर्मास कृष्णानगर क्षेत्र के राधेपुरी मन्दिर में था, वो पीलिया की बिमारी से ग्रस्त हो गये, यह बिमारी वैसे कोई खतरनाक श्रेणी की व जानलेवा नहीं होती, परन्तु आपके लिये असाध्य बन गयी। स्थिति कण्ट्रोल में नहीं आई, उम्र का केवल ५१ वां वर्ष ही चल रहा था, यानि भविष्य की काफी सम्भावना थी, परन्तु एक विवेकपूर्ण आचारवान सन्त होने के नाते उन्होंने अपना मानस सल्लेखना पूर्वक समाधि लेने का बना लिया, इस स्थिति में दिल्ली स्थित अनेक जैन साधु उनके पास पहुंच गये एवं सभी ने उनकी कम उम्र देखते हुए, उन्हें संथारा लेने व दिलाने के पक्ष में नहीं थे, परन्तु एक सितम्बर २०१८ रात्री में एकाएक स्थिति बिगड़ गयी एवं रात्रि में ३:१८ की ब्रह्मवेला में अपनी अन्तिम श्वास ली। देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सहित अनेक विद्वतजनों ने आपके कृतृत्व की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए अश्रपूरित श्रद्धांजलि दी, यह एक प्रश्न खड़ा हुआ कि इतनी कम उम्र में ऐसे महान सन्त की इहलीला क्यों समाप्त हुयी, इनके कृतृत्वों ने इनका जवाब दे दिया कि मात्र इतनी कम उम्र में ही समाज व राष्ट्र को इतना कुछ दे दिया एवं परोस दिया कि आगामी कई पीढ़ियां उनसे लाभान्वित होती रहेंगी, जो काम ९०-१०० वर्ष उम्र में होता था, उन्होंने ५० की उम्र में ही कर लिया, अत: प्रभु! ने शायद किसी अन्य लोक में ज्यादा अपेक्षा समझकर, इस महान आत्मा को वहां भिजवा दिया होगा, प्रभु की लीला कौन जान सकता है? प्रात: ४ बजे तक समाचार सर्वत्र फैल गया एवं कृष्ण नगर का चप्पा-चप्पा जनाकीर्ण हो गया, प्रात: ७ बजे के आसपास उनके पार्थिव शरीर को, बैठी हुई मुद्रा में हजारों व्यक्तियों की सहभागिता से गाजियाबाद से आगे मुरादनगर स्थित तरूण सागर धाम में उनके पार्थिव शरीर को संध्या वेला में अग्नि के सुपुर्द कर दिया गया। मुनि श्री तरूण सागरजी ने पूरे विश्व के करोड़ों व्यक्तियों को अपने प्रवचनों -कृतृत्वों से प्रभावित किया था, अनेक भाषाओं में व कई खण्डों में प्रकाशित उनकी प्रवचनों की पुस्तकें आगामी शताब्दियों को दिशाबोध देती रहेगी, प्रेरणा देती रहेगी। कुछ वर्षों पहले आचार्य महाप्रज्ञजी ने एक सन्देश, मेरे माध्यम से इनको भिजवाया था, तब से व्यक्तिगत पहचान हो गयी थी, इसके बाद जब भी दर्शन का अवसर मिला खूब स्नेहाशक्ति आशीर्वाद देते थे, ऐसी महान आत्मा को ‘जिनागम’ परिवार का शत: शत: वन्दन। – विजयराज सुराणा, नई दिल्ली